शहर के एक शांत मोहल्ले में, एक तीन मंज़िला मकान में अभिषेक अपने माता-पिता के साथ रहता था. वह अपने माता पिता का इकलौता बेटा था और परिवार की गिनती मध्यम वर्गीय परिवारों में होती थी.
घर में हमेशा सुख-शांति का माहौल रहता था और अभिषेक को कभी किसी चीज़ की कमी महसूस नहीं हुई थी. उसके माता पिता ने उसे प्यार और भरोसे से पाला था, कभी उस पर किसी तरह का कोई बोझ नहीं डाला था.
अभिषेक पढ़ाई में हमेशा से अव्वल था, अभिषेक पढ़ने में बहुत होशियार था। वो अपनी अलग पहचान बनाना चाहता था.
उसके माता पिता ने कभी उसे काम करने के लिए नहीं कहा , क्योंकि वे उसे अपनी इच्छा से आगे बढ़ने देना चाहते थे.।
ग्रेजुएशन के बाद, अभिषेक ने शहर में नौकरी की तलाश शुरू की. कुछ इंटरव्यू दिए, पर बात नहीं बनी. वह थोड़ा मायूस ज़रूर हुआ, पर घर में उसे हमेशा तसल्ली ही मिली.
“कोई बात नहीं बेटा, आज नहीं तो कल मिल जाएगी नौकरी,” माँ कहतीं. “हमारा तो गुज़ारा चल ही रहा है. तेरे बाबूजी भी काम कर रहे हैं, अभी कोई दिक्कत नहीं, नौकरी मिल जाएगी.”
उसके माता पिता ने उस पर कभी कोई दबाव नहीं डाला था, उसे हमेशा अपनी पसंद का रास्ता चुनने की आज़ादी दी थी। अभिषेक जानता था कि वह घर के पास ही कोई और काम भी देख सकता था, पर उसकी अपनी महत्वाकांक्षाएँ बड़ी थीं, जो उसे कुछ अलग करने को उकसाती थीं।
अभी अभिषेक शहर में नौकरी की तलाश में जुटा ही था कि एक दिन उसके पड़ोस में उसका बचपन का जिगरी दोस्त, राहुल, आया। राहुल सालों से अमेरिका में था और अब कुछ दिनों के लिए घर लौटा था. राहुल के महंगे कपड़े, उसका स्टाइल, उसके हाथ में विदेशी तोहफे और उसकी बातों में परदेस की चकाचौंध साफ झलक रही थी.
“अरे अभिषेक, तू अभी तक यहीं फँसा है?” राहुल ने अपनी गाड़ी से उतरते ही कहा. “देख, मैं कहाँ से कहां पहुंच गया हूँ. वहाँ तो पैसों की बारिश होती है! इंडिया में तेरे जैसे टैलेंट की कोई कदर नहीं. यहाँ तो बस धक्के खाने पड़ते हैं। तू भी आ जा, अमेरिका में तेरी किस्मत खुल जाएगी.”
राहुल के घर पर रिश्तेदारों और पड़ोसियों की भीड़ लगी थी। हर कोई उसकी तारीफ़ कर रहा था, “देख लो, वर्मा जी का लड़का कितना कामयाब हो गया.”
अभिषेक ये सब देख रहा था और उसके मन में एक नई आग सुलगने लगी थी। उसे लगने लगा था कि उसकी मेहनत की असली कद्र भारत में नहीं, बल्कि विदेश में है।
एक दिन रात को, अभिषेक ने अपने माता-पिता से बात की. “माँ, बाबूजी… मैं सोच रहा हूँ, मुझे भी विदेश जाना चाहिए. यहाँ मुझे लगता है मेरे टैलेंट की कदर नहीं हो रही। राहुल भी कह रहा है, वहाँ बहुत मौके हैं।”
माँ का चेहरा पीला पड़ गया. “क्या कहता है बेटा! इतनी दूर अकेला कैसे रहेगा? यहाँ हमें छोड़कर?”
बाबूजी ने कहा, “बेटा, हमने सारी ज़िंदगी यहीं गुज़ारी है. बुढ़ापे में हम किसके सहारे रहेंगे? तू ही तो हमारा इकलौता सहारा है।”
अभिषेक ने उन्हें समझाने की कोशिश की, “आप चिंता क्यों करते हो? मैं पैसे भेजूँगा, आपका ख्याल रखूँगा। आप लोग यहां आराम से रहना.”
लेकिन उसकी बातों में वो गर्माहट नहीं थी, जो उसके माता-पिता चाहते थे.
आखिर में, माँ ने बाबूजी की तरफ देखा। बाबूजी ने एक लंबी साँस भरी और बोले, “ठीक है बेटा, अगर तेरा मन है तो जा। बस अपना ख्याल रखना। हम यहाँ तेरा इंतज़ार करेंगे।”
उन्होंने बेटे की आँखों में चमक देख ली थी, जिसे वे बुझाना नहीं चाहते थे। उन दोनों ने अपने कलेजे के टुकड़े को आँखों से दूर भेजने के लिए, बुझे मन से ही सही पर खुद को मना ही लिया।
अभिषेक विदेश चला गया. शुरुआती दिन संघर्ष भरे थे। नई जगह, नया कल्चर, और अकेलेपन का सामना। उसे छोटे-मोटे काम करने पड़े, कभी-कभी तो भूखे भी सोना पड़ा, लेकिन उसने हार नहीं मानी। पता नहीं क्यों, लेकिन वो अपने देश लौटकर वापिस जाना ही नहीं चाहता था।
धीरे-धीरे उसे एक अच्छी नौकरी मिल गई। फिर उसकी मुलाकात एक अमीर परिवार की लड़की से हुई, जिससे उसने शादी कर ली और वहीं सेटल हो गया।
उसने अपने माता पिता को फोन पर ही अपनी शादी की खबर दे दी।
अब अभिषेक की ज़िंदगी बदल चुकी थी। बड़ी गाड़ी, बड़ा घर, आलीशान पार्टियाँ। वह एक कामयाब अप्रवासी बन चुका था। भारत में फोन करना भी उसे कभी-कभी बोझ लगने लगा था। माता पिता के फोन आते तो वह जल्दी-जल्दी बात निपटा देता।
“हाँ माँ, सब ठीक है. मैं बिज़ी हूँ, बाद में बात करता हूँ.”। लेकिन वो बाद कभी नहीं आता।
“बेटा, पैसे तो मिल गए, लेकिन तू बता सब ठीक है?” माँ बात करने की कोशिश करती.
“हाँ माँ, मिल गए होंगे. मैं भेजता रहता हूँ. अब रखो, मुझे काम है.”
वह हर महीने पैसे भेज देता था, कभी-कभार कुछ महंगे तोहफे भी। उसे लगता था कि पैसों से सारी ज़रूरतें पूरी हो जाएंगी, पर वह भूल गया था कि रिश्तों में पैसों से ज़्यादा अपनापन और भावनात्मक सहारा मायने रखता है।
उसके माता-पिता के लिए वह अब एक ‘विदेशी’ बेटा था, जो बस पैसे भेजता था, पर उनसे दूर था, उनकी बुढ़ापे की लाठी नहीं बन पाया था।
भारत में, अभिषेक के माता-पिता अकेले रह गए थे। घर में चहल-पहल खत्म हो चुकी थी। उन्हें अभिषेक द्वारा भेजे गए पैसे मिलते थे, लेकिन वह अकेलापन उन्हें अंदर से खाए जा रहा था। माँ की तबीयत कभी ठीक रहती, कभी बिगड़ जाती। बाबूजी को भी अब ज़्यादा कुछ दिखाई नहीं देता था. घर के छोटे-मोटे काम, बाज़ार जाना, दवाइयाँ लाना – ये सब पहाड़ जैसे लगते थे। वे सोचते, ” किसके साथ बैठें, किससे बात करें?”
उनकी आँखों में अक्सर एक अनकहा सूनापन तैरता रहता.
अभिषेक का एक दोस्त था राजेश . राजेश और अभिषेक बचपन के साथी थे, लेकिन राजेश ने शहर में रहकर ही अपना छोटा-मोटा काम शुरू किया था। राजेश अभिषेक के माता पिता को अपने खुद के माँ-बाप जैसा मानता था। अभिषेक के माता पिता ने भी कभी उन दोनों में कोई फर्क नहीं किया था, वो भी उसको अपना बेटा मानने थे।
वह हर सुबह उनके घर आ जाता, उनका हालचाल पूछता, “माँ जी, बाबूजी, कैसे हो? कोई काम तो नहीं है?”
माँ कभी कहतीं, “बेटा, आज सब्जी ले आता.” तो बाबूजी कहते, “आज दवाइयाँ खत्म हो गई हैं.” राजेश बिना कहे सारे काम कर देता. वह उनके लिए चाय बनाता, उनके साथ बैठकर घंटों बातें करता. उनकी उदास आँखें अब राजेश को देखकर चमक उठती थीं.
एक दिन राजेश ने देखा कि घर में दो ही प्राणी हैं, और वह भी उदास रहते हैं। उसने सोचा, “ये कब तक अकेले रहेंगे? अभिषेक के वापस आने की तो कोई उम्मीद लग नहीं रही अभी?”
राजेश ने उन दोनों से कहा, “अंकल-आंटी, आप लोग कब तक ऐसे अकेले रहेंगे? अभिषेक तो परदेस चला गया, पता नहीं कब आएगा. मैं वैसे तो यहीं रहता हूँ, लेकिन फिर भी, अगर घर में और कोई होता तो आपका भी मन लगा रहता.”
राजेश ने उनके घर का थोड़ा हिस्से में जहां जरूरत थी वहां मरम्मत करवाई – नीचे का हिस्सा उनके रहने लायक बनाकर., फिर उसने ऊपर का हिस्सा दो छोटे, मध्यमवर्गीय परिवारों को किराए पर दिलवा दिया।
अब घर में बच्चों की किलकारियाँ गूँजने लगी थीं, परिवारों का आना-जाना लगा रहता था. किराएदार परिवारों की महिलाएँ भी माँ जी का बहुत ध्यान रखती थीं, उनके साथ बैठती थीं, उनकी मदद करती थीं. घर में फिर से रौनक लौट आई थी. माँ-बाप के चेहरे पर मुस्कान वापस आ गई थी।
राजेश की पत्नी, अंजना, नेक दिल की थी। वह भी माँ जी और बाबूजी का सम्मान करती थी और राजेश की मदद को गलत नहीं मानती थी। लेकिन एक दिन अंजना की माँ उससे मिलने आईं और कुछ दिन के लिए वहीं रुकी थीं।
दो-चार दिन में ही अंजना की माँ ने अपनी बेटी के कान भरना शुरू कर दिया.
“अंजना, तू क्यों इतना उनकी सेवा करती है? उनका अपना बेटा तो परदेस में ऐश कर रहा है! उसे तो कोई परवाह नहीं!”
“यह उनका घर है, तुम क्यों दूसरों के लिए इतना करती हो? अपना देखो, अपने बच्चों का देखो!”
“तुम्हारे पति को क्या मिल रहा है ये सब करके? क्यों दूसरों के लिए इतना खट रहा है? अपने पति से कहो अपने काम में ध्यान लगाया करे !”
धीरे-धीरे, अंजना के मन में भी संदेह और हल्की सी नाराज़गी आ गई। उसका व्यवहार थोड़ा बदल गया। वह माँ जी और बाबूजी के साथ पहले जितनी खुशी से नहीं बैठती थी, और राजेश को भी हल्की-फुल्की बातें सुनाने लगी थी।
एक शाम, जब राजेश घर आया, तो उसने महसूस किया कि अंजना कुछ परेशान है. “क्या बात है?” उसने पूछा.
अंजना ने मुँह बनाते हुए कहा, “तुम भी कमाल करते हो! अपने माँ-बाप की सेवा तो करते ही हो, अब पड़ोसियों की भी करने लगे हो! लोग क्या कहेंगे?”
राजेश ने यह सुना और एक पल को चुप हो गया. उसकी आँखों में एक गहरी भावना उमड़ आई. उसने अंजना का हाथ पकड़ा और उसे अपने पास बिठाया। उसकी आवाज़ में दर्द भी था और दृढ़ता भी.
“अंजना,” उसने कहा, ” क्या तुम जानती हो रिश्तों का मतलब? हम बचपन से उनके साथ रहे हैं. उन्होंने मुझे बेटे जैसा प्यार दिया है। तुम्हें शायद नहीं पता लेकिन जब मैं छोटा था तब हमारी आर्थिक स्थिति बोहोत खराब थी। और जब कभी हमारे घर में कभी खाना नहीं बन पाता था, तो यही माँ जी मुझे खाना खिलाती थीं,
बाबूजी मुझे कंधे पर बिठाकर घुमाते थे.” मां बाबूजी ने कभी भी मुझे अभिषेक से कम नहीं समझा । कितनी बार मेरे स्कूल की फीस, किताबों का खर्च तक बाबूजी ने किया ।
मेरे पिता को उनकी दुकान खोलने में मदद की । विषम परिस्थितियों में हमेशा हमारे परिवार की ढाल बनकर खड़े रहे । लेकिन कभी एहसान नहीं जताया। हमेशा यही कहते रहते थे मेरे पिता से _ तू मेरा दोस्त नहीं है तू मेरा भाई है और ये परिवार ये सिर्फ तेरा नहीं ये मेरा भी परिवार है।
उसकी आवाज़ थोड़ी तेज़ हुई, “तुम क्या समझोगी, यह सिर्फ खून का रिश्ता नहीं है जो माँ-बाप और बेटे को जोड़ता है। रिश्तों का मतलब होता है प्यार, अपनापन, और एक-दूसरे के लिए खड़ा होना। जैसे मेरे खुद के माँ-बाप मेरा परिवार हैं,
वैसे ही ये अंकल-आंटी भी मेरा परिवार हैं! उन्होंने मुझे बचपन से देखा है, प्यार दिया है। उनका ख्याल रखना मेरी ज़िम्मेदारी है। अगर आज मैं उनके साथ नहीं खड़ा हुआ, तो मैं खुद को कभी माफ नहीं कर पाऊंगा। उनका बेटा परदेस में हो सकता है, लेकिन मैं यहीं हूँ, और मैं उन्हें अकेला नहीं छोड़ सकता।” और तुम भी कभी मत भूलना ये भी मेरा परिवार है। कहते कहते राजेश की आंखों से आंसू बह निकले।
अंजना ने राजेश की आँखों में देखा। उन आँखों में दर्द था, समर्पण था, और एक अटूट विश्वास था। उसने राजेश के शब्दों में सच्चाई महसूस की. उसकी माँ की बातों का ज़हर राजेश की सच्ची भावनाओं के सामने फीका पड़ गया। अंजना ने धीरे से अपना सिर झुका लिया. उसे एहसास हुआ कि उसने गलती की थी, और उसके पति का दिल कितना बड़ा था।
लेकिन राजेश ने अंजना से कहा _ अंजना तुम्हारी कोई गलती नहीं है। तुम अपनी जगह पर बिल्कुल सही हो । अगर मैने तुम्हे पहले ही मां बाबूजी और अपने परिवार के बीते दिनों के बारे में बताया होता तो तुम कभी गलत ख्याल मन में नहीं लाती । अंजना ने राजेश से कहा_ मां बाबूजी के साथ कुछ वक़्त बिताने से उनका अकेलापन थोड़ा कम हो जाता है तो अब से में भी आपके साथ हूं
आज भी अभिषेक विदेश में है। बाहर से देखने पर वह एक ‘कामयाब’ बेटा है। अपने परिवार में खुश है। लेकिन अगर कभी वो अपने आलीशान घर में अकेला होता होगा, तो क्या कभी उसे अपने बूढ़े माता-पिता और शहर में छूटे उस घर की याद आती होगी, जहाँ अब कोई और उनका ध्यान रखता है।
भारत में, अभिषेक के माता-पिता अपनी जिंदगी में खुश रहने की कोशिश करते हैं।उनके पास अभिषेक द्वारा भेजे गए पैसे हैं, लेकिन सबसे बढ़कर, उनके पास राजेश जैसा ‘बेटा’ है। उन्हें एहसास है कि रिश्तों का सच्चा मोल पैसों में नहीं, बल्कि प्यार, परवाह और अपनेपन में होता है। राजेश, बिना किसी खून के रिश्ते के, उनका सच्चा परिवार बन जाता है. वह नायक है – एक ऐसा नायक जिसके दिल में दूसरों के लिए जगह है, और जिसने साबित किया कि “ये भी मेरा परिवार है.”
समाप्त
© 2025 मीनाक्षी गुप्ता (मिनी)। सर्वाधिकार सुरक्षित।