“मेघा कहाँ हो?” पति विवेक ने पत्नी मेघा को आवाज दी।
तभी मेघा किचन से आकर पति को कहती है, “कहिए! क्या बात है?”
इस पर विवेक मेघा से कहता है, “इस बार मुझे सैलरी में अच्छी बढ़ोतरी हुई है और बोनस भी ठीक मिला है। तो मैं सोच रहा था कि इस बार बच्चों की गर्मी की छुट्टियों में कहीं घूमने चलते हैं। वैसे भी हम कभी कहीं घूमने भी नहीं गए।”
इस पर मेघा कहती है, “अरे वाह! यह तो बहुत अच्छी खुशखबरी है। बच्चों को जब पता चलेगा तो वे बहुत खुश हो जाएँगे। बेचारे हर साल सिर्फ मन मसोस कर रह जाते हैं। कहीं घूमने नहीं जा पाते। उन्हें स्कूल से आने दो। आते ही मैं उन्हें यह खुशखबरी दूँगी।”
तभी विवेक मेघा से कहता है, “थोड़े दिनों में बच्चों की गर्मी की छुट्टियाँ शुरू हो जाएँगी। बस शुरू होते ही दो-तीन दिन में हम कहीं पहाड़ों पर चलेंगे। मैं ट्रैवल एजेंट से किसी अच्छे होटल की बुकिंग करवा देता हूँ और ट्रेन की टिकट भी कराता हूँ।”
हाँ कहकर विवेक ऑफिस के लिए चला जाता है।
घूमने जाने के नाम पर मेघा और उनके दोनों बच्चे आरव और सिया बहुत खुश थे। माँ और बच्चे तरह-तरह की योजनाएं बना रहे थे कि पहाड़ों पर खूब आनंद लेंगे, भरपूर मस्ती करेंगे, वगेरा-वगेरा।
आख़िरकार घूमने जाने का दिन पास आ ही गया था। मेघा बच्चों की ओर से पैकिंग करने में व्यस्त थी। इतने में बेटा आरव अपनी माँ से कहता है,
“मम्मी! क्यों ना हम हमारे साथ दादी जी को भी लेकर चलें? वह तो कहीं नहीं जाती हैं। हमेशा घर रहती हैं। जब से दादाजी इस दुनिया से गए हैं तब से वे सदैव चिंतित सी बहुत उदास रहती हैं। बहुत गुमसुम रहती हैं।”
विवेक जी की मां सरला देवी उनसे अलग गांव में रहती थीं। विवेक जी की नौकरी शहर में होने की वजह से वे अपनी पत्नी और बच्चों के साथ अलग रहते थे। और कामकाज का जोर होने की वजह से वे गांव में अपनी मां से मिलने भी कम जा पाते थे।
सरला देवी का एक ही बेटा विवेक और एक बेटी थी जिसकी शादी भी कई साल पहले हो गई थी। अब गांव में सरला देवी अकेली रहती थीं। उनका शहर में मन नहीं लगता था।
बेटे की बात सुन माँ मेघा ने कहा,
“बात तो आरव तूने बहुत सही की है बेटा। क्यों न उन्हें प्रकृति की सैर कराई जाए। इस बहाने वे थोड़े दिन हमारे साथ रह भी लेंगी। और उनका मन भी बहल जाएगा। वे जिंदगी में कभी कहीं घूमने नहीं गईं। हमारे साथ जाकर उन्हें बहुत अच्छा लगेगा। मैं आज ही तेरे पापा से बात करती हूं।”
जैसे ही विवेक ऑफिस से घर आता है, मेघा विवेक को कहती है,
“सुनिए! क्यों ना हम माँ जी को भी अपने साथ घूमने ले चलें! आखिर वे माँ हैं। इस उम्र में वे अकेले जीवन यापन कर रही हैं। थोड़े दिन हमारे साथ पहाड़ों की सैर कर आएंगी तो उन्हें बहुत अच्छा लगेगा। हरी-भरी प्रकृति को देखकर उनका मन भी हरा-भरा हो जाएगा।”
“जब से पिताजी ने इस संसार को त्याग किया है, मानो उनका जीवन नीरस हो गया है।”
तभी तपाक से विवेक जी कहते हैं,
“तुमने तो मेरे मन की बात कर दी मेघा। मैं आज ही माँ को यहाँ बुला लेता हूँ। उनकी टिकट और होटल बुकिंग भी करवा देता हूँ।”
“सच मानो मेघा! वह हमारे साथ होंगी तो यह सफर, सफर नहीं — सुनहरा सफर बन जाएगा।
आखिरकार मुझे इस काबिल बनाने वाली कि मैं तुम सबको घुमाने ले जा रहा हूँ, तुम्हें इस बड़े शहर में हर प्रकार की सुख-सुविधा दे पा रहा हूँ, बच्चों को अच्छे स्कूल में पढ़ा पा रहा हूँ — यह सब किस वजह से है?
यह सब है मेरी माँ की वजह से।
वही माँ जिन्होंने मुझे गाँव के माहौल से निकाल कर दूर भेजा, ताकि मैं शहर जाकर अच्छी पढ़ाई कर सकूँ।
पढ़ाई में अच्छा था तो किस्मत ने साथ दिया, और मैं तरक्की करता गया।
और आज जिन ऊँचाइयों को मैं छू रहा हूँ — वे भी माँ की ही बदौलत हैं।”
तब विवेक जी अपनी पत्नी मेघा से कहते हैं,
“मैं बहुत अच्छा महसूस कर रहा हूँ कि मेघा, तुमने माँ के बारे में सोचा।”
इस पर मेघा मुस्कुराते हुए कहती है,
“पति देव, आप ये भूल रहे हैं कि अब यह मेरा भी परिवार है। और परिवार में तो माँ भी आती हैं ना! माना कि वे दूर रहती हैं, लेकिन हैं तो वे हमारी माँ ही।”
“तो देरी किस बात की?” मेघा कहती है।
“मैं तुरंत गाँव में माँ को फोन लगाती हूँ और बुला लेती हूँ। मुझे पूरा विश्वास है वे जरूर घूमने जाने के लिए मान जाएंगी। और मैं ज़रा उनके पहाड़ों पर जाने के हिसाब से हल्के ऊनी वस्त्र भी देख लूं।”
ऐसा कहकर खुश मन से मेघा अपनी सास सरला देवी को फोन करने चली जाती है।
अगले दिन सरला देवी जी बेटे के पास शहर आ जाती हैं। और सभी परिवार वाले एक साथ सफर पर चल पड़ते हैं।
एक सुनहरा सफर — जिसमें अपनों का साथ था, जो यादों को संजोए, जिंदगी भर विवेक जी और उनके परिवार के साथ रहा।
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आपकी दोस्त – ज्योति आहूजा