छल – उमा महाजन : Moral Stories in Hindi

                        ९० वर्षीय मां बिलख-बिलख कर रो रहीं थीं और बीच-बीच में अपने बेटे-बहू को भी कोसती जा रही थीं  ‘तुम लोगों ने मेरे साथ इतना बड़ा छल क्यों किया ? मेरे पौत्र, मेरे जिगर के टुकड़े को मुझे पूछे-बताए बिना विदेश भेज दिया और मुझे कानों कान किसी ने भनक तक न लगने दी। हे प्रभु ! बस अब मुझे उठा ले तू !

यह कैसा समय आ गया है ? कैसा घोर कलियुग है,जहां एक मां खुद अपनी ही संतान पर विश्वास नहीं कर सकती ? असल में तुम लोगों ने मेरी ‘दृष्टिहीनता’ का अनुचित लाभ उठाया है। जानते हो न कि इसे कुछ दिखता तो है नहीं, कैसे जान पाएगी ?’ 

     मां थीं कि रोते-रोते रुकने का नाम ही नहीं ले रही थीं, ‘हां ! नहीं दिखता मुझे पर महसूस तो होता है न ? उसके लिए तो आंखें नहीं चाहिए न ?

मैं पिछले पांच वर्षों से अपने ‘नेत्रों की ज्योति का जाना’ अपना दुर्भाग्य समझकर सहज स्वीकार करती आई हूं ,लेकिन अब मैं और जी नहीं पाऊंगी क्योंकि अब मेरी अपनी संतानों ने ही मेरी कमजोरी का फायदा उठाना शुरू कर दिया है। हे राम..! अब ले चल मुझे यहां से।’ कहते-कहते मां बिस्तर पर औंधी गिर पड़ीं। 

     दरअसल ‘मूल से ब्याज प्यारा’ की तर्ज पर हमारी दृष्टि विहीन मां की अपने पोते रजत में जान बसती थी और उसके विदेश गमन का समाचार मिलते ही वे फट पड़ी थीं।

   मां के अंतिम वाक्यों ने भैया-भाभी के मर्म को अंदर तक भेद दिया था। एकाएक वे दोनों उठे और अपने कमरे में जाकर फूट-फूटकर रो पड़े। विवशता में अपने बेटे को विदेश भेजने का उनका दर्द भी आज इन्हीं आंसुओं में घुलते हुए खुलकर बहने लगा था। मां की पीड़ा ने उनकी पीड़ा को दोगुना कर दिया था।

     यह देखकर मैंने अपनी छोटी बहन को उन्हें संभालने का संकेत दिया और स्वयं मां के पास आ गई। दरअसल मां ‘शुगर’ की लंबी बीमारी के बाद अपनी नेत्र-ज्योति पूरी तरह गंवा चुकी थीं और पुत्र-पौत्र दोनों ने मिलकर अपनी जिंदादिली युक्त प्रेम से इस असहाय सी स्थिति में भी उनकी ‘जिजीविषा’ को बनाए रखा था।

अतः मैंने उनके दोनों हाथ अपने हाथों में लेकर सहलाते हुए मौन सांत्वना देने का प्रयास किया, लेकिन वे फिर फफक-फफक कर रो पड़ीं ,’रज्जो , तू तो मेरी लाडली है। तूने भी मुझसे इतना बड़ा छल किया ?’ मुझे लेशमात्र संकेत नहीं दिया ? मेरा अपना ही बेटा पोते जैसी आवाजें निकाल कर मुझे भरमाता रहा और तुम सब तमाशा देखते रहे ?’ मेरे हाथ झटकते हुए मां ने अपना रोष प्रकट किया।

     अब तक मेरे संयम का बांध भी टूट चुका था, ‘मां ! ये सब क्या बोलती जा रही हो तुम ? छल‌ ?  किसी ने तुम्हारे साथ कोई छल नहीं किया है। दरअसल सच तो यह है कि हम सब समय के हाथों छले गए हैं।

  तुम्हें याद है न मां ,पिछले साल अपने पोते के बम्बई में नौकरी के लिए चले जाने पर तुम कितनी बीमार हो गईं थीं। भैया-भाभी की तो जान पर बन आई थी। एक तरफ बेटे का घर से चले जाना और दूसरी तरफ तुम्हारा उसके वियोग में अस्वस्थ हो जाना। ऐसे में वे अपने अंतर्मन की व्यथा किस के सामने व्यक्त करते ? मैंने देखी है उनकी पीड़ा।

मां! तुम अच्छी तरह जानती हो कि तुम्हारा पोता‌ विदेश में शिक्षा पाने के लिए कैसे जिद ठाने हुए था। बंबई की नौकरी छोड़ने का भी यही कारण था। यहां वापस आ कर भी वह कहीं टिक नहीं पा रहा था क्योंकि वह टिकना चाहता ही नहीं था। अब तुम ही बताओ कि भैया-भाभी क्या करते ? एक ओर बेटे की जिद से जुड़ा उसका भविष्य और दूसरी ओर मां का स्वास्थ्य।

असल में छले तो वे दोनों गए हैं और अब तुम भी रो-रोकर उनकी भावनाओं के साथ छल कर रही हो। निस्संदेह तुम्हें बहुत बड़ा सदमा लगा है,लेकिन जरा सोचो कि क्या भैया-भाभी का दर्द कम है ?  जाते समय तुम से कुछ दिनों के लिए बाहर जाने का कहकर रजत अपनी लंबी उम्र और तरक्की का आशीर्वाद ले कर ही गया है।

तुम्हारे इस प्रकार रोने से वह कहां तरक्की कर पाएगा ? फिर, तुम्हें दुःखी देखकर भैया-भाभी तो पूरी तरह से टूट जाएंगे। मां, इस समय भैया-भाभी को तुम्हारे सहारे की जरूरत है।’

     सब कुछ सुनते-सुनते अब मां चुप कर चुकीं थीं। सहसा उन्होंने भैया- भाभी को अपने पास बुलाया और कसकर दोनों को अपनी बाहों में भींच लिया। 

        यह तो मां का बड़प्पन था । वरना उन्हें कैसे बताती कि उनकी संतानों ने मिलकर उनके ‘विश्वास की डोर’ को तोड़ा तो अवश्य है। चाहे भले के लिए ही सही, किंतु छल तो उनके साथ हुआ ही है। उन्हें कैसे समझाती कि मां बढ़ती हुई महत्त्वाकांक्षाओं के कारण विदेशों में पलायन की प्रवृत्ति ने आज न केवल युवाओं का अपना जीवन दांव पर लगा दिया है ,

अपितु अपनी दो पीढ़ियों को भी तोड़ कर रख दिया है। हम बुजुर्ग माता-पिता और दादा-दादी के पास एक-दूसरे को सांत्वना देना ही एकमात्र विकल्प बच गया है अब।

#विश्वास की डोर 

   उमा महाजन

   कपूरथला

   पंजाब।

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