“मीनू की मम्मी देखा, जब से अमित विदेश गया है, आपकी बहू उर्मी कभी इसके साथ, कभी उसके साथ खिलखिलाती घूमती है।”
” मूवी, कभी बाजार। थोडी बहुत लाज शरम है या नहीं।”
” गुडिया को दादी के भरोसे छोड जाती है। आप सब झेल लेती हो। अकेली पता नहीं कहां कहां भटकती है।”
मीनू की मम्मी सरला जी, नाम की तरह ही सीधी-साधी महिला थी।
पडोसन मंगला जी ने उनके कान भर दिये थे।
शक की सुई ने अपना कमाल दिखाना शुरू किया।
अब उर्मी पर नजर रखी जाने लगी। हर बात पर गौर किया जाने लगा। किससे बतियाती है, क्या कर रही है? सवाल ही सवाल।
सब्जी लेते लेते पडोस के चिंटू के साथ कैसे दांत निपोर रही थी। पुछना पडेगा, क्यों इतनी हंसी आ रही थी। गुडिया के साथ कभी नानी हाऊस, कभी उसकी सहेली के घर।
अपनी सखी के घर गई तो सरला जी के मन में उल्टे-सीधे विचार उमड- घुमड आने लगे। पता नहीं सखी कौन है? हो सकता है, वहां कोई पुरुष मित्र मिलने आ रहा होगा। बेटा मेरा कमाने गया है और यह यहां गुलछर्रे उडा रही है। अमित से बात करनी होगी। बेचारा मेरा सीधा-साधा बेटा। कहां फंस गया है इसके साथ।”
फोन पर सरला जी की मंगला जी से बातें हो रही थी। सुदेश जी ने सुना तो क्रोधित हो गये।
“उर्मी नौकरी करती है, उच्च पद पर है। किसी से बात करती है तो तुम क्यों परेशान हो। भरोसा रखो अपनी बेटी सी बहू पर। ऐसे तो बेटा भी खो दोगी।”
” तुम्हारे कान भर हमारे जीवन में उथल पुथल करनेवाली मंथरा सी मंगला जी के साथ उठना बैठना बंद कर दो।”
“जी, सही कहा आपने। ये मुझे क्या हो गया था। बेटी सी बहू पर मैं ने शक किया। मेरी गलत सोच महाभारत का न्योता है। हे प्रभु, मुझे माफ करना। “
“दुबारा ऐसी गलती कभी न होगी।”
“कभी ऐसे सोचना भी मत।” सुदेश जी ने कडकती आवाज में कहा।
स्वरचित मौलिक कहानी
चंचल जैन
मुंबई, महाराष्ट्र