राजस्थान का एक जिला…”नागौर’ ! इस जिले के छोटे से गाँव परबतसर में राजन अपने परिवार के साथ रहता है । बहुत धनी सम्पन्न तो नहीं लेकिन इतना जरूर है कि अपनी कड़ी मेहनत से परिवार का भरण – पोषण कर सके और घर आए मेहमानों को भी एक वक्त की रोटी खिला सके ।
राजन का # कठपुतली व्यवसाय था । पत्नी रेणुका रंग – बिरंगे भाँति – भाँति के कपड़े सिलकर कठपुतलियाँ बनाती और राजन दुकान में लेकर बेचता था ।
इसके अलावा # कठपुतली तमाशा भी वो रविवार के दिन पर्यटकों के लिए आयोजन करता था ।बाप – दादा के समय से ही कठपुतली नृत्य कला खानदानी पेशा था । उसकी बनी कठपुतलियाँ बाजार में बहुत प्रसिद्ध और टिकाऊ के नाम से चलती थीं ।
राजन के दो संताने थीं । बेटी मुन्नी और बेटा जय । मुन्नी को पढ़ने लिखने का बहुत शौक था पर जयको सिर्फ खाना और सोना भाता था । राजन उसे बहुत समझता..बेटा !मुन्नी तो ब्याह कर दूसरे के घर चली जाएगी, वो उसे बिठाकर खिलाएगा,
इतने मन से पढ़ती है उसकी शादी अच्छे घर मे होगी पर तुझे तो खिलाना है , अपने घर की जिम्मेदारी संभालना है । अगर तू नहीं पढ़ेगा तो जो बरसों से तेरे लिए सपने देख रहा हूँ वो तो बिखर जाएँगे । उस दिन बहुत सुहावना मौसम था और बाजार में पर्यटक भी खूब आए थे ।
राजन दोनों हाथों में कठपुतली बांधे ग्राहक के पास जा ही रहा था कि अचानक तेज बारिश आ गयी । जल्दी से उसने सारी कठपुतलियाँ समेट कर सन्दूक में डाला और ताला लगाकर किनारे रख दिया । घर के लिए निकल चुका था
तो अचानक तेज बादल गरजे, बिजली चमकी और बिजली राजन के शरीर पर आ गिरी । वो उसी वक़्त तड़प उठा । अफरा तफरी सी मचने लगी । रेणुका ने वहीं रोना धोना शुरू कर दिया । जय बिल्कुल बुत सा बन गया, उसके ऊपर जैसे कोई असर ही नहीं पड़ा ।
तभी मुन्नी ने आसपास के दुकान वालों से आग्रह करके ऑटो की व्यवस्था किया और सब मिलकर उसे अस्पताल ले गए लेकिन वहाँ उसे मृत घोषित कर दिया गया ।
घर का माहौल बहुत दुःख भरा हो गया । चार लोगों के परिवार में मुख्य कमाने वाला सदस्य ही चला गया । सारे क्रिया कर्म से निवृत्त होकर रेणुका खुद को बहुत लाचार बेबस समझ रही थी । सोचकर कि कैसे गुजारा होगा ।
जय एक कोने में बैठा कठपुतलियों को बारीकी से निहार रहा था । रेणुका ने उसे पुचकार के बुलाना चाहा पर जय ने देखकर अनदेखा कर दिया । फिर रेणुका खुद उसके पास जाकर उसके सिर पर हाथ फेरते हुए बोली…”अब तू नहीं पढ़ेगा तो अब कोई गुजारा नहीं होने वाला,
पढ़ाई में ध्यान लगा और ऑफिसर बनकर दिखा । दो मिनट की चुप्पी के बाद जय ने खीझते हुए कहा…”,कैसे लगाऊँ पढ़ाई में मन ? मुझे भी पापा की कठपुतली कला में माहिर होना है । पढ़ाई करने में जी नहीं लगता ।
मुन्नी कठपुतली के कपड़े ही सिल रही थी कि उसकी सहेलियों ने आकर कहा..ले मुन्नी ! तेरे लिए फार्म लायी हूँ । ये सब सिलना छोड़ और चल हम सब मिलकर ये फॉर्म भरेंगे । मुन्नी ने चुप रहो बोलकर सबके सामने मना कर दिया ।
उसकी सहेली रम्भा ने कहा..”तुझे तो नौकरी करने का शौक था न ? तो अब पीछे क्यों हट रही हो । मुन्नी ने अपनी मजबूरी बताते हुए कहा…घर की स्थिति देख रही है न तू ! भाई को भी पढ़ाना है गृहस्थी भी देखना है । जब पापा थे तब शौक था, अब क्या करूँ ।
वो तो ईश्वर और कुछ भले मानुष का एहसान है कि मेरी शिक्षा मुफ्त कराई गई जिसकी वजह से दसवीं पास हो गयी हूँ । जय को तो पढ़ाई से मतलब नहीं है लेकिन घर को तो चलाना है न ? फॉर्म के लिए पैसे खर्च करती हूँ तो माँ की दवाई कैसे आएगी ।
उसी में से मुन्नी की एक सहेली रूपा बोली…”मैं तुझे पैसे दूँगी, क्या पता तेरी नौकरी हो जाए तो तू आराम से अपने साथ परिवार का पेट पाल सकेगी ।
रेणुका ने सारी दोस्तों के जाने के बाद मुन्नी से कहा…”पैसे कुछ बचत किये हैं बेटा, फॉर्म भर दो, आगे का देखना मेरा काम है । मुन्नी के गाल पर आँसुओं के मोती ढुलक आए माँ की बात सुनकर । जय अब भी चुपचाप कठपुतली को देख रहा था ।
रेणुका के सीने में अचानक दर्द हुआ और वो हृदयाघात से चल बसी । खिलौने वाली कठपुतली की भाँति जीती जागती बोलती हुई मुन्नी अब इतने दर्द को देखकर मानो काठ सी हो गयी । अब इस निर्मोही संसार मे दोनो भाई – बहन का एक दूसरे के अलावा कोई नहीं था ।
एक महीने बाद…
मिट्टी के गुल्लक से मुन्नी ने पैसे निकाले और बाजार से फार्म मंगवाकर भर दिया । अब बक्सा खोलकर कठपुतली की काठ आकृति, कपड़े, श्रृंगार आदि बक्सा खोलकर सहेजने में लगी थी कि तभी उसकी नज़र दूसरे खाली बक्से पर गयी तो कलेजा धक सा हो गया । सारे कठपुतली वाले सामान किसने ले लिए । दौड़कर वह बाहर जय के दोस्त चन्दू के घर जाने लगी तो उसे रास्ते मे ही जय मिल गया
तो उसने पूछा…”कहाँ दौड़ रही हो मुन्नी दीदी ? आओ एक चीज दिखाऊँ । उसने अपना थैला खोलकर दिखाया तो ढेर सारी सुंदर सुशोभित सजी धजी कठपुतलियाँ रखी हुई थीं । मुन्नी के आश्चर्य की कोई सीमा नहीं थी ।
उसने अपने भाई से पूछा..”ये तुम्हें किसने दिया । खुशी से उछलते हुए जय ने बताया…”मैंने आज दिन भर मेहनत करके दिमाग लगाकर पापा के दोस्त सहदेव अंकल से सीखा । यही सीखने मैं पाँच – छः दिनों से जा रहा था । मुन्नी कभी भाई को तो कभी कठपुतलियों को देखे ।”अब तुम्हें कोई भार नहीं उठाना पड़ेगा दीदी । ईश्वर के हाथों की कठपुतली हैं हम सब”
। जैसे वो चाहेंगे जीना पड़ेगा, अब मुझे समझ आ गया है । तुम्हारे अलावा अब मेरा कोई नहीं । वक्त ने माँ पापा को मुझसे छीन कर अपने हाथों की कठपुतली बना दिया ।
।लेकिन अब मैं पापा के इस कारोबार को आगे बढ़ाऊंगा और जिंदादिली से कमाकर ग्राहकों को वही गुणवत्ता देकर पापा जैसा नाम कमाऊँगा ।
मुन्नी की आंखें डबडबा गईं जय की बातें सुनकर । बिलख कर वह गले लगकर रोते हुए बोली..”देर से ही सही पर तुम ज़िन्दगी का मर्म तो समझ पाए ।
अब कठपुतलियों से बाजार हर रोज सजता । और जय मुन्नी के कड़ी लगन से गुलजार भी होता । देखते – देखते जय के हाथों की कथपुतलियाँ भी बाजार की रौनक बन गयी थीं । अथाह बिक्री से जय ने छोटी सी दुकान किराए पर ले लिया । और अपने पिता के व्यवसाय को एक नया आयाम दिया ।
मौलिक, स्वरचित
अर्चना सिंह
# कठपुतली