हवेली रोशनी से जगमगा रही थी। पेड़-पौधों पर जुगनुओं की तरह टिमटिमाती झालरों ने मानो सपनों की दुनिया बसा दी थी। संगीतमय फव्वारे, शाही व्यंजनों की महक, ढोलक की थाप, और लोकगीतों पर थिरकती स्त्रियों की खिलखिलाहट ने माहौल को और भी भव्य बना दिया। बीचों-बीच फूलों से सजा चांदी का झूला रखा था, जिस पर बैठी मीता किसी अप्सरा से कम नहीं लग रही थी।
स्टेज के पास एक बड़ा-सा फैमिली ट्री बनाया गया था। उस पर “टू बी मॉम”, “टू बी पापा”, और परिवार के बाकी रिश्तों की तस्वीरें बड़ी खूबसूरती से सजाई गई थीं। लेकिन धरा, गुप्ता परिवार की बड़ी बहू, जब उस फैमिली ट्री पर अपना नाम नहीं देख पाई, तो उसका दिल छलनी हो गया। उसकी आंखें भर आईं, जैसे लंबे समय से रोके गए आंसू बांध तोड़ने को आतुर हों।
धरा का दर्द
धरा शांत, सुशील, पढ़ी-लिखी और सौम्य स्वभाव की महिला थी। लेकिन उसकी सबसे बड़ी ‘कमी’ यह थी कि आठ साल के वैवाहिक जीवन के बाद भी वह मां नहीं बन पाई थी। इसी वजह से उसे इस समारोह में शामिल होने की अनुमति तो दी गई, लेकिन उसे मीता के पास जाने तक की मनाही थी।
मीता, उसकी देवरानी, गर्भवती थी और इस गोद भराई के आयोजन की केंद्र बिंदु थी। धरा को हमेशा शुभ कार्यों से दूर रखा जाता था, मानो उसका अस्तित्व ही अशुभ हो। रिश्तेदार और पड़ोसी उसे “बांझ” कहकर ताने मारते। उसका अपना परिवार भी उसे “बंजर धरा” कहकर बुलाता था। इस अपमान ने उसके आत्मसम्मान को गहरी चोट पहुंचाई थी, लेकिन हर बार उसने चुप रहकर सहन किया।
अनहोनी की आशंका
धरा ने समारोह से दूर रहने की कोशिश की, लेकिन बच्चों का झूले के पास दौड़ना उसे खटका। उसे कुछ अनहोनी का आभास हुआ। वह अनचाहे ही स्टेज की ओर बढ़ गई। तभी कुछ बच्चे झूले से टकरा गए, जिससे मीता का संतुलन बिगड़ने लगा।
धरा ने फुर्ती से मीता को संभाल लिया, लेकिन इस प्रयास में मीता की गोद से शगुन का सामान गिर गया।
“मीता, तुम ठीक हो?” धरा ने चिंतित स्वर में पूछा।
लेकिन मीता को संभालने के बावजूद, उसकी सास ललिता देवी आगबबूला हो गईं। “जहां तेरे कदम पड़ जाएं, वहां कुछ ठीक रह सकता है क्या? तुझे मना किया था न स्टेज के पास आने को!”
“लेकिन मां जी, मैंने तो…” धरा ने सफाई देने की कोशिश की।
“चुप कर! जुबान चलाती है? चल निकल यहां से!” कहते हुए ललिता देवी ने उसका हाथ झटके से छुड़ाया। धरा स्टेज से नीचे गिर पड़ी।
अपमान का चरम
धरा ने आहत होकर देखा कि पूरा परिवार उसे घूर रहा था। उसका पति रजत भी, जिसने कभी उसका साथ नहीं दिया, वही घृणा भरी नजरों से देख रहा था। रिश्तेदार फुसफुसा रहे थे, लेकिन गुप्ता परिवार के रुतबे के कारण कोई भी खुलकर उसका समर्थन करने का साहस नहीं कर सका।
“अरे, मेरी किस्मत फूटी थी, जो इसे बहू बना लिया। इतनी रिश्तों की लाइन लगी थी मेरे बेटे के लिए। भगवान ही जाने, क्यों इसे झेल रहे हैं हम,” ललिता देवी ने कड़वाहट से कहा। “बंजर धरा है तू। नाम ही धरा है, लेकिन है पूरी तरह बंजर!”
इन शब्दों ने धरा की आत्मा को छलनी कर दिया। उसका धैर्य जवाब दे गया।
धरा का विद्रोह
धरा ने जोर से चिल्लाकर कहा, “बांझ नहीं हूं मैं!”
सन्नाटा छा गया। सब अवाक थे।
“मैं भी मां बन सकती हूं, लेकिन कमी मुझमें नहीं, आपके बेटे में है!”
यह सुनते ही रजत ने तिलमिलाकर उसे थप्पड़ जड़ दिया। “बकवास बंद कर और यहां से निकल!”
धरा ने आंखों में आंसू लिए, लेकिन पूरे आत्मविश्वास के साथ कहा, “नामर्द हो तुम! हिम्मत है तो सच का सामना करो।”
सच का सामना
धरा की बात सुनकर सब चौंक गए। ललिता देवी और परिवार के अन्य सदस्य स्तब्ध खड़े थे। रजत ने नजरें झुका लीं।
“मां जी, सच से भागने का कोई फायदा नहीं। इतने साल मैंने आपकी हर बात सहन की। मैंने हर ताने चुपचाप सुने। लेकिन अब और नहीं। जब आप सब जानते थे कि समस्या मुझमें नहीं, आपके बेटे में है, तो फिर मुझे क्यों दोषी ठहराया गया?”
वह आगे बढ़ी और कहा, “औरत मां बने या न बने, वह हमेशा संपूर्ण है। मैं भी मां बन सकती थी, अगर रजत ने सच स्वीकार कर कोई इलाज कराया होता। लेकिन पुरुष को दोष देना तो पाप है, है न?”
धरा का नया सफर
धरा ने परिवार की ओर देखा। “मैंने अपनी वफादारी निभाई, लेकिन अब मैं अपनी इज्जत और आत्मसम्मान के लिए जीऊंगी। मैं धरा हूं, और धरा कभी बंजर नहीं होती। मैं जीवन दूंगी, लेकिन उस जीवन को जो मेरा सम्मान करेगा।”
यह कहकर वह आत्मविश्वास से भरे कदमों के साथ हवेली से बाहर निकल गई। पीछे रह गए लोग उसकी हिम्मत और सच्चाई के सामने चुप खड़े थे।
नया अध्याय
धरा ने अपमान को वरदान में बदल दिया। उसने समाज की बेड़ियों को तोड़ते हुए अपनी जिंदगी को नए सिरे से शुरू किया। उसने खुद को शिक्षा और समाजसेवा में झोंक दिया। कुछ ही सालों में वह आत्मनिर्भर बनी और उन महिलाओं के लिए प्रेरणा बनी, जिन्हें समाज ने ‘बांझ’ कहकर किनारे कर दिया था।
धरा ने साबित कर दिया कि हर औरत अपने आप में पूर्ण है। जीवन की चुनौतियां उसे तोड़ नहीं सकतीं, बल्कि मजबूत बनाती हैं। उसका अपमान ही उसकी ताकत बन गया।
स्वरचित मौलिक
पूजा गर्ग, दिल्ली