जीम के जाना – सुनीता मिश्रा

मैने सुबह ही होटल से चेक आउट कर लिया।सोचा कंपनी का काम निपट चुका है ,शाम की फ्लाईट है तो पूरा दिन अपने बचपन के दोस्त राकेश के साथ बिताऊँगा ।अपने आने की खबर मैने उसे कल रात मे फोन पर दे दी थी।

उसके घर जब मै पहुँचा तो देखा पुराने छोटे से घर की जगह तीन मंजिल नये डिजाईन से बने बंगलो नुमा मकान ने ले ली है।कॉलबेल पर हाथ रखते ही एक अल्शेशन काले रंग का कुत्ता बरामदे के जंगले से झाँक कर जोर जोर से भौंकने लगा।।उसकी ही आवाज सुनकर राकेश बाहर  आया।मुझे देखकर उसने दरवाजा खोला आकर गले लग गया।हम दोनो बैठक मे आये।

“अभी आया”कहकर वो शायद अंदर के कमरे मे गया।

मै बैठक निहारने लगा।हॉल बारह बाई बारा का होगा, हल्के नीले रंग का  पेंट किया दीवार  पर रवि वर्मा की बड़ी सी पेंटिंग,साईड मे टेबल पर बड़े से एक्वेरियम मे रंग बिरंगी मछलियाँ,टेबल पर करीने से लगे नायाब शो पीस ,कुल मिलाकर बैठक आगंतुको को आकर्षित करने मे कामयाब थी।

तभी तेजी से एक पन्द्रह,सोलह  साल का लड़का कमरे मे आया और अजनबी निगाह से मुझे देखते बाहर निकल गया।न नमस्ते,न दुआ सलाम।बाईक स्टार्ट होने की आवाज आई।मैने अंदाज़ लगाया राकेश का सुपुत्र होगा।

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इसी समय राकेश कार की चाभी अपनी उंगलियो से घुमाते हुए आया बोला”यार तू बैठ,मिसेज को  आज प्रक्टिकल एग्ज़ाम लेने जाना है,एक्सटर्नल है वो।उसे कॉलेज छोड़कर आता हूँ,फिर गप्पे मारेंगे आराम से”  कहकर उसने मेरे कन्धो पर हाथ रख अपनापन जताया।

भाभी जी आईं मैने उठकर उन्हे नमस्ते की,जवाब मे उन्होने भी दोनो हाथ जोड़ दिये बोली “भाई साहेब , ,ये मुझे ड्रॉप करके जल्दी आ जायेंगे “मैने सहमति मे सिर हिला दिया।सामने रखा दैनिक भास्कर उठा कर पढ़ने लगा।



थोड़ी देर मे चौदह साल की बिटिया भी मेरे सामने से बिना हाय,हलो,नमस्ते के ,अपरिचित सी निकल गई ।स्कूटी की आवाज सुनाई पड़ी,ये राकेश की बिटिया थी।

अब घर मे मै था,और था वो काला खुंखार ,चेन से बंधा कुत्ता।चाय की तलब थी,और पेट भी खाली था।मैने यूँ ही निगाह चारो तरफ दौड़ाई,बैठक से सटे हुए कमरे का पर्दा हवा से थोड़ा हिला,वहाँ कमरे मे एक टँगी हुई तस्वीर ने मुझे आकर्षित किया,खुद को रोक नहीं पाया,उठकर परदे के पास गया,पर्दा खींच कर देखा ,वहाँ माला डाली हुई दो फोटो दीवार पर लगी थी।ये फोटो थी भाभी और बाबूजी की।

ग्वालियर,मेरा बचपन का शहर,मै और राकेश बाल मित्र थे।मेरा अधिकतर समय राकेश के साथऔर उसके घर ही बीतता था।राकेश के घर उसकी छोटी दो  बहिने,इंटर मे पढ़ते चाचा,विधवा बुआ,मां और बाबू थे।सभी दो  कमरे,किचिन,और बरामदे को जाली से बंद कर,कमरे का रुप दे छोटे से घर मे रहते थे।

इसी छोटे से घर मे अक्सर इलाज,या किसी काम से आने वाले मोहना,मुरैना,के रिश्तेदार ,सगे सम्बंधी,आस पड़ोस के बंधु बांधव,का आना जाना लगा रहता था।

भाभी यानि राकेश की मां ,चूंकि,चाचा और बुआ उन्हे भाभी कहते थे तो राकेश  और उसकी बहिने भी अपनी मां को भाभी कहते ,मै भी राकेश के साथ उन्हे भाभी कहने लगा।

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भाभी साक्षात अन्नपूर्णा का रुप।मज़ाल है कोई अतिथि बिना भोजन पाये घर से चला जाय ।गाँव की, चौथी कक्षा पास ,सीधी सरल,ममता मयी भाभी।उनका रसोई घर सुबह से लेकर रात देर तक भंडारे की तरह खुला रहता।

“जीम के जाना लाला,घर पहुचने मे देर होगी तुम्हे”

“काकाजी ,पूडी,आलू की सूखी सब्जी,और अचार साथ रख दिया,गाड़ी मे जीम लेना।नही तो तबियत बिगर जायेगी आपकी।”

“दिदिया ,तुम्हारे लिये सेव के लड्डू बनाये है।मठरी भी रख दी है ।मुन्ना की बहू को पसंद है न”

घर मे हर आने वाले अतिथि की सुविधा और उसके खाने का पूरा ध्यान रखती थी भाभी।

भाभी और बुआ दोनो ही तरह तरह के पकवान बनाने मे निपुण।आप घर आये और बिना खाये जाएँ,भाभी के राज मे ये सम्भव नहीं था।

पता नही बाबू की अकेली तनखाह मे वो इतना भंडारा कैसे मैनेज करती थी ।भाभी ने कभी मुझमे और राकेश मे भेद नही किया।अपनी मां की मुझे याद नही,मेरे बाबा ने ही मुझे मां और पिता बनकर बड़ा किया।बाबा मुझे राकेश के परिवार के सहारे ही छोड़कर अपनी नौकरी पर जाते थे।मै भी राकेश के घर को अपना घर ही समझता था।कभी कभी मुझे बाबा का बनाया खाना अच्छा नहीं लगता और बिना खाये ही राकेश के घर आ जाता,उसके साथ स्कूल जाने के लिये।भाभी अन्तर्यामी की तरह भांप जाती की मै भूखा हूँ ।



पटे पर मुझे बिठाती थाली परोस कर लाती कहती”गोविंदे ,चल जीम,कैसे चेहरा मुरझाया

है।भूखे पेट कैसे पढ़ेगा रे।”चूल्हे पर तवा रख एक एक गरम रोटी परसती थाली मे।थाली मे बघरी दाल,सब्जी,चाँवल,रोटी ऐसे लगते जैसे अमृत हों।

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भाभी की ममता की छाँह मे मै और राकेश बड़े हुए ,राकेश की दोनो बहिने ब्याह कर अपने अपने घर बस गई ।कम्प्यूटर  साइंस की डिग्री ले,मेरी हैदराबाद की एक कंपनी मे जॉब लग गई,राकेश ने  ग्वालियर नगर निगम मे ज्वाईन कर लिया।

मै बाबा को अपने साथ हैदराबाद ले गया था।हैदराबाद मे सेटल होने के बाद मै केवल एक बार ग्वालियर आया अपनी मां स्वरुपा भाभी की अंत्येष्टि पर एक दिन के लिये।उसके कई सालो बाद अब आना हुआ।

बाहर गेट खुलने की आहट हुई,राकेश लौट आया था।आते ही बोला-“सॉरी यार थोड़ी देर हो गई ।मै चाय बनाकर लाता हूँ ।”

थोड़ी देर मे वो दो कप चाय और बिस्किट की प्लेट लेकर  आया।चाय पीते हुए उसने बताया की बेटा सुबह स्विमिंग के लिये जाता है।वहीं  से कोचिंग के लिये निकल जाता है।सेंटर की केन्टीन मे खा लेता है।और फिर  कॉलेज निकल जाता  है।बेटी भी कोचिंग,और फिर स्कूल चली जाती है।वो अपना टिफ़िन साथ ले जाती है।

कुक सुबह छ बजे आकर सबका टिफ़िन तैयार कर देती है।लंच  हम लोग अधिकतर बाहर केन्टीन या होटल मे ले लेते है।ये बताते हुए बोला-

“आज मै भी केन्टीन मे लंच लूंगा।कुक ने छुट्टी मार दी आज की।तेरे लिये ऑर्डर कर खाना मँगवा लेता हूँ ।बोल क्या खाना पसंद करेगा”

“नहीं यार ,मुझे कुछ जरुरी काम याद आ गया।तुम अपने ऑफिस जाने की तैयारी करो।मै भी निकलता हूँ “कहते हुए मैने मोबाइल पर ओला बुक की।ओला जल्दी ही आ गई ।मैने सूटकेस उठा लिया।अनायास भाभी की फोटो की तरफ ध्यान गया।मैने उन्हे प्रणाम किया।पता नही क्यों लगा उनकी आँखे छलछलाई हुई है।हो सकता मेरा भ्रम हो।

इस बार भाभी न बोल पाई”गोविंदे ,जीम के जाना “।

सुनीता मिश्रा

भोपाल

 

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