अमर प्रेम – रंजना बरियार

हरी मख़मली घास की शीतल छुअन निर्मला जी के तन मन को  शीतल कर रही है। तपती दोपहरी, उसपर से बत्ती गुल, किसी तरह से धीमी गति सें पंखे का घूमना.. बड़ी मुश्किल से दोपहर कट पाई थी..अब सूरज का अस्ताचल हुआ है..माली अभी-अभी लॉन में पानी पटा कर गया है, निर्मला जी और राकेश जी , दोनों पति -पत्नी, बेंत की कुर्सी लगाकर बैठे हैं.. साथ बैठकर भी दोनों अपनी अपनी दुनिया में कहीं खोये से हैं…गोधूली बेला है,

पक्षी गण चुप चाप अपने अपने नीड़ को वापस जा रहे हैं… नीरवता पसरी है.. मुहल्ले में तो  बिलकुल चहल पहल नहीं होती.. सभी घरों के बच्चे विदेशों में बस गये हैं.. कुछ भारत में हैं, वो भी  महानगरों में बसे हैं… माँ बाप की उन्हें शायद ही याद आती है.. विदेश वालों के तो कोरोना के बहाने हैं…दो वर्षों से यह बहाना कारगर है… बहरहाल, सभी माता-पिता सेवानिवृत्त, एकाकी जीवन जीने को विवश हैं!

         अचानक फाटक खुलने की आवाज़ आई… दोनों ने पीछे मुड़कर देखा…एक अधेड़ उम्र की महिला, मैली कुचैली साड़ी पहने , कंधे पर एक गठरी टाँगे,फाटक खोलकर इनके तरफ़ ही आ रही है…. ‘ये कौन महिला है..जो इतने विश्वास के साथ हमारी ओर चली आ रही है?’ निर्मला जी ने अपने पति से धीरे-धीरे फुसफुसाते हुए कहा।

‘पास आने दो, पूछता हूँ’ राकेश जी ने कहा।

”हाँ … वो है पर… आज के आपराधिक युग में बहुत तरह की वारदातें  हो रही हैं…. बूढ़े लोगों को अकेला समझकर लोग पहले औरत को भेजते हैं… फिर पीछे से आकर अपराध को अंजाम देते हैं!” निर्मला जी ने कहा।

तभी वो महिला पास आकर सीधे निर्मला जी के चरण स्पर्श  करती है.. फिर राकेश जी के तरफ़ झुकती है…

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”अरे अरे ये क्या है… ? तुम कौन हो? हमारे चरण स्पर्श क्यों कर रही हो?”

निर्मला जी ने असमंजस में एक साथ इतने प्रश्न कर डाले!

आँटी आपने मुझे पहचाना नहीं? आगंतुक महिला ने कहा।

तब निर्मला जी ने गौर से उसके चेहरे की ओर देखते हुए कहा..…  ”लगता है कहीं देखा है.. पर कहाँ देखा.. बिलकुल याद नहीं कर पा रही हूँ..!”

‘मैं संध्या हूँ आँटी…’ महिला ने चेहरे पर थोड़ी मुस्कान लाते हुए निर्मला जी को देखते हुए कहा..।

‘कौन संध्या?’ उन्होंने फिर पूछा।

‘आँटी, बेटू नहीं है घर में , उसे बुलाएँ… शायद वो पहचाने मुझे!’ संध्या ने कहा।

”अच्छा… तुम वो संध्या हो.. तो कैसे पहचानती भला? उस समय तुम पंद्रह साल की छरहरी किशोरी थी… और आज एक प्रौढ़ महिला… दुखियारी सी…

कैसे पहचान सकती ?” निर्मला जी ने दुख भरे लहजे में कहा।

”अच्छा सुनो, तुम अपने कमरे में जाकर अपनी गठरी रखो, फिर चाय  बनाकर पी लो, कुछ नमकीन वग़ैरह लेकर.. सबकुछ पहले ही जैसा है.. तुम्हें दिक़्क़त नहीं होगी। ” निर्मला जी ने संध्या को प्रेम से निर्देश देते हुए कहा। 

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    तीस वर्ष पहले संध्या निर्मला जी के घर आया का काम करती थी।जब आई थी तब बेटा हर्षित  मात्र एक वर्ष का ही था, पाँच वर्षों तक वो साथ रही। बेटे की सारी देख भाल संध्या के ज़िम्मे ही  थी। कार्यालय जाने के पहले तक जितने काम हो पाते , निर्मला जी करतीं, बाक़ी सब संध्या के जिम्में होता… माता-पिता हर्षित को बेटू कहते, तब उसने भी बेटू कहना शुरू कर दिया ..’ बेटू’ शब्द सिर्फ़ शब्द ही नहीं था… वो बच्चे को कुछ हद तक बेटे

की तरह ही प्यार करती थी, इस कारण निर्मला जी और राकेश जी दोनों उससे स्नेह करते थे। हर्षित को घुमाने के बहाने वो सारा मुहल्ला घूमती …. निर्मला जी से अधिक जानने वाले लोग संध्या के ही थे… मुहल्ले भर की आयाओं की गोष्ठी जमती… एक दूसरे को अपने अपने घरों के समाचारों से अवगत कराया जाता…निर्मला जी को ये सब नागवार भी लगता… पर संध्या का हर्षित के प्रति स्नेह और उनकी नौकरी की विवशता ने  उनके मुँह पे ताले जड़ दिए थे…पर एक दिन पानी सर से ऊपर आ गया…


कार्यालय से आने पर एक लड़का उन्हें घर पर दिखा.. सामने से तो दरवाज़ा बंद ही था, पीछे के दरवाज़े से उन्होंने घर में प्रवेश किया…अंदेशा तो कुछ था ही उन्हें… देखते ही लड़का दौड़ कर भाग गया…. दिन दहाड़े… आँखों पर विश्वास नहीं हुआ.. छोटी सी लड़की.. कहीं कोई अनिष्ट न हो जाय… उन्होंने उसे काम से निकाल दिया… दो दिन बाद संध्या , उनके घर के पीछे रहने वाले आदिवासियों के घर पर उसी लड़के के साथ नज़र आई…

वो लड़का उसी घर का था, क़रीब एक सप्ताह उस घर में उसने समय बिताया… पहली बार उन्होने ऐसा देखा, ऐसा भी होता है… लिव इन रिलेशन की तरह… फिर संध्या के दर्शन नहीं हुए… आज तीस वर्षों बाद यहाँ किस परिस्थिति में, किस मक़सद से आई है.. समझ से परे …

   ”आँटी, ये देखो, मेरी और बेटू की तस्वीर…मैं वही स्कर्ट पहनी हूँ , जिसके लिए आपसे ज़िद किया था… मैने इसे सम्भाल कर रखा है…मातृ सुख मुझे बेटू से ही मिला… फिर तो…” कहती कहती संध्या चुप हो गई…

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निर्मला जी ने तस्वीर उसके हाथ से लेकर देखा… फिर संध्या का चेहरा… कहाँ गई इस बेचारी की कांति… किसने छीन लिया… मन में  सम्भावनाओं की होड़ लग गई… पर वो पूछेंगी नहीं … उसे दुख पहुँचेगा… वो खुद ही धीरे-धीरे बताएगी। उन्होंने कहा ‘तू कुछ बना कर खा ले… पता नहीं कब से ठीक से खाया नहीं…चेहरा सूखा पड़ा है… ‘ उसके गाल को प्यार से छूते हुए निर्मला जी ने कहा। ‘जी आँटी खा लिया..’ उसने कहा ।

                   संध्या ने घर के सारे काम काज सम्भाल लिया था…. इस उम्र में निर्मला जी को राहत मिल गई… उसने बेटू की तस्वीरें देखीं.. उसके कॉनवोकेशन के, उसके ब्याह के… बहू के… वो फोटों को सहलाती…. बेटू मेरा.. इतना बड़ा हो गया… तस्वीर को पप्पी लेती… कहती.. ‘मुझे तो वो दीदी कहता था आँटी… अब क्या बोलेगा??… आप बोलना, मुझे माँ कहे…’ उसकी ये बातें निर्मला जी के मन को छू जातीं… ”पता नहीं इसके साथ क्या

हुआ है?”…ऐसे प्रश्न मन में उमड़ घुमड़ करते… पर पूछने की हिम्मत नहीं होती.. जाने क्या बता दे… ! उन्होंने संध्या को हर्षित से फ़ोन पर बात करवाया… वीडियो कॉल भी करवाया… संध्या कुछ ख़ास बोलती नहीं… ऐसा लगता सिर्फ़  उसे  निहार रही है… निर्मला जी से पूछती वो कब तक भारत आएगा ?… उसकी आँखों का सूनापन निर्मला जी को बहुत खलता…आख़िर उन्होंने पूछ ही लिया…’ यहाँ से जाने के बाद तुम्हारी शादी कहाँ हुई थी?’

‘गाँव का ही एक था …. खाता पीता परिवार था … पर…’ संध्या ने कहा।

‘पर…’ क्या संध्या?  उन्होंने पूछा ।

”आँटी… मैं शारीरिक रूप से उसकी ब्याहता थी.. पर मन से कभी नहीं हो सकी…’

आँटी वो केवल ‘ हँडिया ‘ पीता था… पीकर मुझे भरपूर नोच खसोट करता…मार पीट करता.. अन्य बातों से उसे कोई मतलब नहीं होता.. ऐसी ही स्थित में मैं गर्भ से हुई…वो पेट में लात मार कर बच्चा गिराना चाहा… मैं जान बचाकर पेट में बच्चे को लेकर भाग गई… दर दर की ठोकरें खाई… मज़दूरी की … घरों में काम किया…बच्चे को जन्म भी दिया… मजदूरी कर के, पेट काटकर उसे बड़ा भी किया…पढ़ाया लिखाया …पर…”

‘आज वो बच्चा कहाँ है?’निर्मला जी ने पूछा ।

”आँटी, वो एक बैंक में चपरासी का काम करता है.. उसके दो बच्चे हैं…”

‘तुम उसके साथ क्यों नहीं रहती?’निर्मला जी ने पूछा।

‘आँटी, उसने मुझे घर से निकाल दिया…’

क्यों??

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”वो मेरे पास गौतम… जो पीछे रहता है न..…  वो आता था… बेटे को पसंद नहीं था… कहता ‘ तुम कुल्टा हो.. तभी बाबा ने भी तुम्हें निकाल दिया होगा… जाने मेरे अंदर किसका खून बहता है….’ ये सब सुन कर मेरा दिल चकनाचूर हो गया.. आँटी, मैं घर छोड़कर यहाँ आ गई… बेटू से मिलने!” संध्या ने रोते रोते कहा।


‘ये वही गौतम है, जिससे तुम्हारी दोस्ती थी?’

‘जी आँटी ‘

‘तो अब तुम उससे क्यों मिलती हो? जब उस वक्त उसने तुमसे शादी नहीं की?’

”आँटी , उसने भी मुझे तन से कँवारा  नहीं  छोड़ा था… पर मन से भी वो हमें प्यार करता था, मुझे समझता था…मेरे मन का कँवारापन उसने ही उतारा था…पच्चीस  वर्षों बाद अचानक वो बाज़ार में मिल गया… फिर आना जाना करने लगा… केवल शालीनता से बातें करता…कभी मेरे शरीर को देखता तक नहीं  था….तो मैं मना नहीं  कर पाई… मेरा मन फिर से ब्याहता सा महसूस करने लगा… तन का क्या है आँटी …… कोई भी ,कहीं भी हवस मिटाने को तैयार रहता है…” एक साँस में उसने कह दिया!

निर्मला जी उसकी बातें सुनकर मोम की तरह पिघलने लगीं…. अब तू कहीं नहीं जाएगी… यहीं मेरे पास रहेगी… बेटू अगले महीने आने वाला है… बहू को लेकर… वो तेरे भी बेटे बहू हैं… हाँ बेटू की एक बहन भी है…वो भी आने वाली है… तू इन दोनों की मासी माँ  है…!

          निर्मला जी ने हर्षित को संध्या की सारी कहानी बताया… हर्षित में बैंक में खाता खुलवाकर संध्या को पैसे भेजना शुरू कर दिया…

          हर्षित और बहू ने  एयरपोर्ट से निकलते ही अपने मम्मी पापा के चरण स्पर्श किये… बग़ल में सिमटी सी खड़ी’ संध्या माँ’ के भी चरण स्पर्श किये… संध्या ने दोनों को गले लगाया… पेशानी चूमी… अश्रु धारा बहने लगी…

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रंजना बरियार

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