पहला और आखिरी विद्रोह – रेणु दत्त : Moral stories in hindi

सुबह के सात बजे थे। ट॔ग ट॔ग …बाबूजी के कमरे से दो बार घ॔टी की आवाज आई। सहायिका मीना उधर जाते जाते ठिठक कर बोली ” दीदी साब आपको बुला रे हैं। ,” आज बेटी मिनी का दूसरी कक्षा का रिजल्ट है ,आफिस से पहले उसके स्कूल भी जाना है। तेजी से हाथ में घडी बांधते हुए मैं बाबूजी के कमरे में आई।

वहां हल्का अंधेरा पसरा था, मैंने खिडकी का पर्दा हटाया

बाहर की रौशनी झप से बाबूजी के बिस्तर पर पडी। ” हां बाबूजी मैं आ ही रही थी” उन्होंने कुछ अस्पुष्ट सा कहा

मैंने अपनी हथेली उनके हाथ पर रख दी। कई दिनों बाद उनकी आखों मे चमक थी। मै जानती हूं वो मिनी को आशिर्वाद दे रहे थे।

डाक्टरों का कहना है कुछ महीनों में उनकी तबियत सुधर जाएगी,वे पहले की तरह बोल पाऐंगे। पर उनकी हर बात मैं समझ लेती हूं। जैसे मां को शिशु के हर इशारे का पता होता है।

मन बचपन के गलियारे में भटकने लगा।

बाबूजी की रौबीली आवाज कभी पूरे घर में गूंजा करती थी। कुन्दन जैसा तपा हुआ रंग,घनी मूंछे और लंबा डील डौल।इसके विपरीत मां इकहरे बदन की,तीखे नैन नक्श वाली थी, रंग गोरा पर दबता हुआ सा। जहां बाबूजी आत्मविश्वास से भरे थे, कुशल व्यापारी, गांव के सबसे बडे रईस होने का दंभ उनके हाव भाव में बसा हुआ था,वहीं मां को हमने कभी ऊंची आवाज में बोलते ना सुना था।सुना है उनके बाबूजी से रिश्ते के समय ही दादी ने साफ कह दिया था ” हमारे यहां औरत जात की ना चलती”।मां ने कभी अपनी चलाई भी नहीं।

वह अन्तर्मुखी थी,उनका सबसे बडा अपराध पहली औलाद यानि मुझे एक बेटी को जन्म देना था। बकौल दादी “हमारे खानदान में छोरी ना जनी जाती” या जन्म लेने ही नहीं देते थे। पुत्र होने की स्तिथि में बाबूजी सारे गांव को भोज देने की इच्छा रखते थे, पर मेरे जन्म ने उन्हें क्रोध से भर दिया था। उनका बस चलता तो खाट के पाए के नीचे रखकर या दूध भरी परात में मुझे डालकर मुक्ति पा लेते।यह मां का पहला और आखिरी विद्रोह था जो उन्होंने मुझे जीवित रखने के लिए किया वरना खानदान के नाम पर बेटी की बली आम बात थी।

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दो साल बाद बाबूजी और दादी की इच्छा पूर्ण हुई जब मेरे भाई दीप ने हवेली को अपने पहले रूदन से गुंजायमान किया।

बाबूजी ने दीप को कुलदीपक का सम्मान दिया पर मां का अपराध रत्ती भर भी कम ना हुआ। दीप राजकुमारों की तरह पल रहा था उसकी हर इच्छा ,हर छोटा सा इशारा सबके लिए आदेश था। कहीं गलती से वो गिर जाता या हल्की फुलकी चोट खा जाता तो नौकरों के साथ साथ मां और मुझे भी बाबूजी के कोप की चिबुक  सहनी पडती। जब देखो बाबूजी दीप की चिरौरी करते,उसी से खेलते ,घुमाने ले जाते,हर जिद पूरी करते।

उनके लिए मैं केवल नेपथ्य में कभी कभी नजर आने वाला साया थी।

कुछ साल  बाद  दादी चल बसी।दीप के पास बाबूजी थे तो मेरे पास मां का संबल था। या शायद मैं मां का सहारा थी।चाहे मुझे बाबूजी की उपेक्षा मिलती हो पर भौतिक सुख सुविधाओं की मुझे कमी ना थी। बाबूजी ने हर सहूलियत दी हुई थी बस भावात्मक लगाव नदारद था। स्कूल में मैं खुश रहती ,ढेरों सहेलियां और उन्मुक्त वातावरण।पढना मुझे पसन्द था,किताबें अनोखी दुनिया का दर्पण, जो मेरे कल्पनाशील मन को पंख लगा देतीं।

समय के साथ दीप से ईर्षा पिघलने लगी मैं स्वयं को बन्धन मुक्त समझने लगी और उसे जंजीरों मे जकडा हुआ। मुझे उससे प्यार तो था उससे बात करना, खेलना चाहती थी पर जो विशिष्टता का विष उसके बाल मन में घर कर गया था वो उसे किसी से जुडने नहीं दे रहा था।मेरे साथ उसका व्यवहार  एक मालिक जैसा रहा। मां के साथ भी बदतमीजी से बात करने से नहीं चूकता था। 

मैं जंगली बेल सी बढ रही थी। हर कक्षा में सर्वोपरि, प्रथम आती या इनाम पाती तो मां खुश होकर बलाएँ लेती। साडी के कोर से आँसू पोंछती। वहीं दीप बस पास भर हो जाता तो बाबूजी फूले ना समाते।मेरी सफलता देखकर भी अनदेखी करते।

हाई स्कूल पास करके मैंने शहर के बडे कालेज में लाॅ में एडमिशन ले लिया और होस्टल में रहने लगी।गांव बस छुट्टियों में ही जाना होता था।

मेरा लाॅ का तीसरा वर्ष था तभी बाबूजी ने दीप को अमरीका की एक यूनिवर्सिटी में एनरोल कर दिया। वहां की तडक भड़क ने उसके होश उडा दिए हर थोडे दिन बाद वो पैसे की डिमांड करने लगा,बाबूजी भी शौक से पैसा भेजते रहे।

लाॅ की पढाई पूरी होते ही मेरी दिल्ली में एक लाॅ फर्म में नौकरी लग गई।और यहां मुझे अपने जीवनसाथी सुधाकर मिले। नाम के अनुरूप मधुर व्यवहार, बुद्धिमान और सुशील। पहले ही दिन मैं उनके व्यक्तित्व से प्रभावित हो गई। साथ काम करते हुए उन्हें अच्छी तरह जाना, परखा। अंततः जब उन्होंने विवाह का प्रस्ताव रखा तो मैंने तुरंत हां कह दी।

कुछ समय बाद सप्ताहांत पर गांव गई तो पहली बार बाबूजी से किसी गंभीर विषय पर बात की, उन्हें बताया कि सुधाकर मिलना चाहते हैं।आशानुरूप उनकी प्रतिक्रिया रूखी रही। उनके अनुसार एक तो सुधाकर ठाकुर नहीं है अतः विजातीय है,दूसरे मैनें स्वयं वर चुनकर जो धृष्टता की है उसके प्रतिकार स्वरूप मुझे उसी समय घर से निकाल दिया गया।

हारी हुई मैं वापिस दिल्ली आ गई। कुछ समय उपरान्त मेरी और सुधाकर की कोर्ट मैरेज हो गई।सुधाकर के घरवाले और कुछ हमारे मित्रआयोजन में उपस्थित रहे।

मां का ख्याल रुलाई लाता रहा, उसका मेरे जीवन के इस महत्वपूर्ण पल में ना होना दुखदाई था।

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उस समय तक लैंड लाइन फोन गांव तक पहुंच चुके थे।

घर फोन करती तो मेरी आवाज सुनते ही फोन पटक दिया जाता। मैं अपने घर संसार में खुश थी, बस मां की याद चिन्ता बन मेरे मन को विचलित कर जाती।

मां मेरा बिछोह ना सहन कर पाई, जिस दिन मैं बेटी मिनी को अस्पताल में जन्म दे रही थी, उसी दिन मां चल बसी।मैं अन्तिम दर्शन भी ना कर पाई।मां ही एकमात्र सूत्र थी जो मुझे घर से जोडे थी,उसके जाते ही गांव और घर से मेरा नाता टूट गया।दीप ने कभी मेरी खोज खबर नहीं ली। बाबूजी मुझे याद तो आते पर एक हूक के रूप में। एक ऐसा रिश्ता जो संवारा भी नहीं जा सकता था और नकारा भी नहीं जा सकता था।

देखते देखते पांच साल बीत गए। मैं और सुधाकर अपनी प्राइवेट प्रैक्टिस, घर गृहस्थी और मिनी के लालन पालन में मगन थे।ऐसे में एक दिन गांव के पडोसी जो किसी जमीन के केस में कोर्ट आए थे, मुझसे टकरा गए। मुझे वक़ील के चोगे में देख पहले तो बडे खुश हुए,फिर बाबूजी की हालत पर अफसोस जताने लगे।

मैंने हैरत से माजरा पूछा तो उन्होने जो बताया वो सुनकर मेरे पैरों तले से जमीन खिसक गई।

अपनी ग्रैजुएशन कर दीप वापिस गांव आ गया था।आते ही उसने चिकनी चुपड़ी बातें कर सारा व्यवसाय, घर और जमीनें अपने नाम करा लीं। बाबूजी तो सदा उसके मोह में अन्धे ही रहे थे, फिर बूढे भी हो रहे थे। शायद सोचा होगा कि आज भी सब इसका है और कल भी इसी का होगा। बाहर से पढ कर आया लडका है अच्छा है अपनी जिम्मेदारी समझेगा।

पर जो विशिष्टता का जहरीला पेड उन्होंने बोया था उसका दंश झेलना अभी बाकी था। बिजनेस के काम से अक्सर दीप बाहर रहता था। एक बार गया तो काफी दिनों तक ना वो आया ,ना उसका फोन। दरवाजा खटखटाया भी तो नए मकान-मालिक ने, जिन्हें दीप चुपचाप मकान बेच गया था।

बाबूजी को पता चला कि दस दिन पहले घर,व्यवसाय और सारी संपत्ति बेच कुलदीपकजी अमेरिका नौ दो ग्यारह हो चुके थे।

इतना बडा विश्वासघात और वो भी जान से प्यारे बेटे के हाथ वे बर्दाश्त ना कर सके और पक्षाघात के शिकार हो गए। उन्हे संभाला हमारे पुराने वफादार नौकर मोती ने,जो उन्हें  अपने घर ले गया था और यथासंभव इलाज करा रहा था।

यह सब सुनते ही तुरत पैर मैं और सुधाकर बाबूजी के पास पहुंच गए। मुझे देखते ही उनकी आँखों से अविरल आँसू बहने लगे। दुख, शर्मिन्दगी, पश्चाताप से भरे नीर उनके गालों से बह कर मेरे हाथों पर गिरने लगे। उस एक क्षण में जाने कितने गुजरे पलों की कडुआहट बह गई। हम दोनों के मध्य किसी अदृश्य शक्ति ने मानो पिता पुत्री को एक अटूट बन्धन में बांध दिया। मुझे लगा मेरा आज ही जन्म हुआ है और मेरा जन्मदाता मेरे होने को स्वीकार कर खुशी मना रहा है।

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हम उसी दिन बाबूजी को दिल्ली ले आए।उन्हे अच्छी चिकित्सा उपलब्ध करायी है। इन छह महीनों में सैकडों बार रो चुके हैं, जब एक बार मैंने कहा क्या दीप की याद आ रही है तो घृणा और वितृष्णा से उन्होने ना में सिर हिला दिया। मिनी को देखकर उनके चेहरे पर असीम सुख आ जाता है। मुझे और सुधाकर को ऑफिस भी देखना होता है तो सारे दिन की सहायिका मीना को रख लिया है।

बाबूजी की हालत में सुधार है, हाथों में हलचल है, अब सिरहाने लगी घंटी बजाने लगे हैं।एक बार टंग मीना के लिए,दो बार मुझे बुलाने के लिए और तीन बार मिनी के लिए।

अधिकतर तीन बार घंटी बजती है और मिनी दौड़कर नानू के पास चली आती है। धीरे धीरे जबान भी उठने लगी है, मैं प्रतीक्षारत हूं कब उनसे रूकी हुई  बातें कर पाऊंगी।

उनके प्रति नाराज़गी जो सारी जिन्दगी रही कि वे सही अर्थों में पिता नहीं बन सके कहीं तिरोहित हो गई है। रिश्ता जैसे बदल गया है मैं उनकी मां बन गई हूं और वे मेरे पुत्र।

इन्तजार है कि वे कब ठीक होंगे। अगर कहेंगे तो हम दीप पर मुकदमा कर बाबूजी को स्वाभिमान पूर्ण जीवन दे सकते हैं। पर यह उन पर निर्भर  है,अभी तो दीप के नाम से ही उनका चेहरा गुस्से से लाल हो जाता है। जब वो मुग्ध होकर मुझे और मेरे परिवार को देखते हैं तो मन करता है काश मां भी यहां होती , बाबूजी ने बेटा बेटी  को एक समान समझा होता पर अब मुझे कोई  शिकायत नहीं है।

“दीदी मिनी बिटिया कब से गाडी में बैठी है, चलिए आप स्कूल के लिए लेट हो रही हैं।”

मीना की आवाज से मैं तन्द्रा से बाहर आई, बाबूजी को माथे पर चूम मैं मेन गेट से निकल आई।

रेणु दत्त

3 thoughts on “पहला और आखिरी विद्रोह – रेणु दत्त : Moral stories in hindi”

  1. Jis pita k Raj me maa ghut ghut k Marti rhi.. Koi sukh NHi dekha aur Aise hi ghutan me Chal basi…aise vyakti ki Seva aur sukh Dena.. Meri nazar me apradh h… Kartavya palan k Nate ant samay me dekhbhal Thik h parantu Prem ka adhikar us vyakti ko NHi tha.

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