Moral Stories in Hindi : आज भी मुझे अपनी बायोलॉजी की टीचर ज़ोया मैंम याद हैं। जिनका एक पैर जन्म से ख़राब था। वह एक हाथ में बैसाखी ले कर चलती थीं तथा दूसरी ओर से उन्हें किसी का हाथ पकड़ना पड़ता था। वह रिक्शे से आती थी।मैं अपनी फ्रेंड्स के साथ उनकी प्रतीक्षा करती रहती थी। जैसा ही वो आती हम दौड़ कर उन्हें रिक्शे से उतारते ।
वह एक ओर से बैसाखी पकड़ती और एक ओर से हम में से कोई उनका हाथ पकड़ कर उनको डिपार्टमेंट तक ले जाते। उनका डिपार्टमेंट कॉलेज गेट से दूर था।तथा रास्ते में ऊँचा नीचा ग्राउंड होने के कारण रिक्शा वहाँ तक नहीं जा सकता था। 15 मिनट लग जाते थे हमको उन्हें वहाँ तक पहुँचाने में। वो सदा मुस्कुराती रहती थी। कहती थी की वह किसी आया की मदद ले लेंगी पर हमें उनकी सहायता करने में एक सुखद अनुभव होता था और हम सच्चे दिल से उनको सहारा देकर ले जाते थे।
रास्ते में वह बातें करती जातीं । हमारे पूछने पर वह बताती थीं कि कैसे उनकी माँ ने जो अब इस दुनिया में नहीं हैं,उनके लिए त्याग किये हैं और उनको उच्च शिक्षा दिला कर आत्म- निर्भर बनाया है। वह बताती थी ” मैं जन्म से ही विकलांग थी। चेहरा बहुत प्यारा था गोल मटोल गुड़िया सी दिखती थी। पर चलने में असक्षम। जब मैं एक वर्ष की हुईं तब मेरे माता पिता को मेरी इस शरीरिक कमी का पता चला।विकलांग और वो भी लड़की, माँ को बहुत ताने सुनने पड़ते थे।
संयुक्त परिवार था। उठते बैठते उन्हें सास और नंदों की अवहेलना झेलना पड़ती थी। फिर जब मेरे छोटे भाई का जन्म हुआ और वह पूरी तरह स्वस्थ भी था तब कहीं माँ को परिवार वालों की ओर से कुछ सुकून मिला। अब पिता जी का सारा प्यार मेरे छोटे भाई के लिए था। पर माँ तो अब भी मेरे लिए चिंतित रहती थीं।माँ की ज़िद पर मुझे डॉक्टर को दिखाया गया। डॉक्टर ने बताया एक दो ऑपरेशन के बाद मैं बैसाखी की मदद से चलने लायक हो सकती हूँ।
पिता जी ने कहा रहने दो ऑपरेशन कराने की जरूरत नहीं है। मेरे पास पैसा नहीं है। पर माँ ने हिम्मत नहीं हारी। वह लगातार पिता जी को मनाती रहीं।माँ ने अपने गहने बेच दिये। माँ की कोशिशों को देख कर दादा जी ने अपनी एक ज़मीन बेच कर सहायता की। मैं सात वर्ष की थी जब मेरा ऑपरेशन हुआ।ऑपरेशन सफ़ल रहा।
अब मैं बैसाखी के साथ चल सकती थी। पर एक ओर से बैसाखी तथा तथा दूसरी ओर मुझे किसी के हाथ का सहारा लेना पड़ता। माँ ने मेरा एडमिशन कराया। रोज स्कूल पहुँचाना, कक्षा तक ले कर जाना और लाना माँ खुद करती। वह मुझे शिक्षित देखना चाहती थी।उनका सपना था कि मैं किसी तरह पढ़ लिख जाऊँ ताकि किसी के उपर बोझ न बनूँ तथा अपना जीवन सम्मान के साथ बिताऊँ।दादी कहती थी कि लंगड़ी लड़की को पढ़ाने की क्या जरूरत है।
वह तो सारा दिन पोते का लाड़ करतीं। पर माँ किसी की बातों पर ध्यान न देतीं। माँ मेरा होम वर्क कराती और मैं लगन से पढ़ती।मैं पढ़ने में अच्छी थी। स्कूल में खूब पुरस्कार जीते। प्रत्येक वर्ष कक्षा में प्रथम आती। उम्र बढ़ती रही। बायोलॉजी में पी. एचडी किया। और प्रोफेसर बन गई, आज मैं जो कुछ भी हूँ अपनी माँ के प्रयत्नों से हूँ। उनकी ममता ने मुझे जीने का हौसला दिया।
चार वर्ष पहले मेरी माँ इस संसार से विदा हो गयीं।” कहते कहते उनकी आवाज़ भारी हो जाती तथा हमारी आंखों में आँसू आ जाते थे। पर उनकी लगन और हिम्मत देखकर हमें प्रोत्साहन मिलता था। मैं सोचती थी कि मैंम की माँ कितनी महान और निडर रही होंगी। कितनी तकलीफ़ों का सामना करना पड़ा होगा अपनी विकलांग बेटी के जीवन को सफल बनाने में।
पर ज़ोया मैंम भी प्रशंसा के लायक़ है जिन्होंने अपनी माँ को निराश नहीं किया और उनके सपनों को साकार किया।फिर हमारी कॉलेज की पढ़ाई खत्म हो गई। और मैं यूनिवर्सिटी में पढ़ने लगी तथा शादी भी हो गई. कुछ साल बाद मेरी एक सहेली जिसकी छोटी बहन अब उसी कॉलेज में पढ़ रही थी,
उसने बताया कि ज़ोया मैंम अब स्कूटर से कॉलेज आने लगी हैं। और शायद जल्दी ही कार लेने वाली हैं। कॉलेज की कुछ हमदर्द लड़कियाँ अभी भी उनको सहारा दे कर डिपार्टमेंट तक ले जाती हैं। ऐसा लगता है जैसे उनकी माँ की ममता तथा आशीर्वाद आज भी उनके साथ है तथा उनकी दुआएँ ज़ोया मैंम की मदद करने वालों के साथ।
लेखिका:महजबीं