मर भी जा –   बालेश्वर गुप्ता

अरे हतभागी तू मरती भी तो नहीं, मर जाये तभी तो मैं भी मरूं।कैसे तुझे अकेला छोड़कर,मरूं?

कहते कहते इंदर सिसक पड़ा, आंखों से आंसू थमने का नाम ही नही ले रहे थे।

        सन 1966 की घटना आज भी मेरे मन मष्तिष्क में ज्यूँ की त्युं अंकित है। मैंने  मेरठ में स्नातक की पढ़ाई करने हेतु दाखिला लिया था और आनंदपुरी कॉलोनी में किराये पर कमरा लेकर रह रहा था।रोज आधा लीटर दूध इंदर  मेरे पास पहुंचा देता,और मैं स्टोव पर उसे उबाल कर पी लेता।

      यूँ तो मेरठ एक अच्छा बड़ा शहर है,पर इस आनंदपुरी कॉलोनी में एक 50 गज के प्लाट में टीन टप्पर से बनाया अपना आवास और अपनी दो भैंस का ठिकाना बनाया हुआ था इंदर ने।मुझे पता नही उस प्लाट का मालिक कौन था,पर उसने इंदर को उस प्लाट पर रहने की अनुमति दी हुई थी,

शायद प्लाट की सुरक्षा को ध्यान में रखते हुए।अपनी पत्नी और अपने एक 17-18 वर्षीय बेटे के साथ इंदर वहीं रहता था।दो भैस थी सो उनके दूध को कॉलोनी में बेचकर उससे प्राप्त राशि से उनका गुजारा चल रहा था।

        इंदर की बस एक ही तमन्ना थी कि उसका बेटा खूब पढ़ लिख जाये और उसे उसके जैसा जीवन न जीना पड़े।हर पिता अपने बच्चों के बारे में ऐसा ही सोचता है,पर इंदर कुछ अधिक ही अपने बेटे सुंदर के बारे में संवेदनशील था।सुंदर भी होनहार था हाई स्कूल में प्रथम श्रेणी में पास हुआ था

और अब इंटर की परीक्षा उसे देनी थी।कभी कभी सुंदर भी मुझे दूध देने आता था तो मैं उसे बड़ी आत्मीयता से अपने पास बैठा लेता था,वैसे भी उसकी और मेरी उम्र में कोई विशेष अंतर भी नही था। इंदर की स्थिति और उसके सुंदर के प्रति भावो को देख मुझे लगता था कि

मैं भी उनकी इस जीवन यात्रा में सहयोगी बन जाऊं।लेकिन मैं भी तो विद्यार्थी ही था और मेरी भी अपनी सीमाये थी,फिर भी मैं सुंदर की पुस्तकों से लेकर पहनने के कपड़ो तक कुछ सहायता कर देता था।

         काफी दिनों से सुंदर मुझे दिखायी नही दे रहा था और दूध इंदर ही दे कर जा रहा था।मैंने इस पर कोई ध्यान नही दिया,हो सकता है पढ़ाई में व्यस्त हो।पर कई दिन से मैं नोट कर रहा था कि पहले की तरह चहकने वाला इंदर गुमसुम सा रहता है।मैंने एक दो बार पूछा भी कि इंदर काका कोई परेशानी तो नही पर उसने मुँह फेर कर कहा नही बाबू कोई परेशानी नही।




        एक दिन मेरी नजर इंदर के चेहरे पर पड़ी तो मैं चौंक गया,उसका चेहरा सूजा हुआ था।मेरे पूछने पर बोला, कुछ नही बाबू, दाढ़ में दर्द है इसलिये सूजा लग रहा है।मैंने उसे अपनी मेडिकल किट से एक पेनकिलर निकाल कर दे दी,इसे खा लेना दर्द ठीक हो जायेगा।

      इंदर के चेहरे पर अब मुस्कान थी ही नही,अब वो अपने बेटे सुंदर के बारे में भी कोई  बात नही  कर रहा था।पहले वो सुंदर के सुनहरे भविष्य के बारे में बात करते अघाता नही था,उसके चेहरे पर सुंदर का नाम आते ही चमक बढ़ जाती थी,अब उसके मुंह से उसका नाम सुनने को भी नही मिल रहा था।

       एक दिन मेरे यहाँ इंदर या सुंदर दोनो में से कोई भी दूध देने नही आया,तो मैं खुद ही उसके घर की तरफ चला गया।वहां मैंने कॉलोनी के कुछ लोगो की भीड़ देखी तो मैं अनजानी आशंका से घिर गया,पता नही क्या बात है?इंदर की पत्नी बीमार चल रही थी,मुझे लगा कि कहीं उसे कुछ ना हो गया हो?

इसी ऊहापोह में मैं इंदर के घर पहुंच गया,जहां से इंदर का आर्तनाद सुनाई पड़ रहा था,जो अपनी पत्नी को इंगित कर कह रहा था,अरे हतभागी तू मरती भी तो नही,मर जाये तो मैं भी मरूं। कैसे तुझे अकेली छोड़कर मरूं?

     सुनकर मैं तो ठगा सा रह गया, मैं तो समझ ही नही पाया कि मामला क्या है?इंदर के पड़ौसी ने बताया कि पिछले कई महीनों से सुंदर काफी उद्दण्ड हो गया है, शराब भी पीने लगा है और नशे में कभी भी अपने बाप पर हाथ भी उठा देता है।उस दिन इंदर के मुहँ सूजा होने का कारण मुझे आज समझ आया।

अपनी बीमार पत्नी को मरने को कहने और खुद मरने का आर्तनाद मन को चीर देने जैसा था।ये तो स्थिति मेरी थी ,इंदर के दर्द की पराकाष्ठा का अहसास तो कल्पना से परे था।एक बाप का अपने बेटे से पिटना मुझे अंदर तक हिला गया।फिरभी मैंने अगले दिन सुंदर से बात करने का प्रयत्न किया पर उसने तो मुझे भी टका से जवाब दे दिया,बाबू आपको हमारे घर के मामलों से क्या मतलब?

      मेरा मन आनंद पुरी से उचट चुका था,हर समय इंदर का सिसकता  और सुंदर का कृतघ्न चेहरा मेरे सामने रहने लगा।मैं भी विद्यार्थी ही था,पढ़ाई से मन उचाट रहने लगा तो मैंने आनंदपुरी से कमरा छोड़ दिया,कुछ न कर सकने की कसक लिये।

           बालेश्वर गुप्ता, पुणे

मौलिक, सत्य घटना पर आधारित, अप्रकाशित।

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