Moral Stories in Hindi : हमारे परिवार में दादी सबसे अनोखी थीं।माँ बताती थीं कि जब मेरा जन्म हुआ था तब दादी खूब नाची थी।सबसे कहतीं थीं कि हमारे घर का चिराग आया है।मेरे दादाजी ने तो मेरा नाम आशीष रखा था लेकिन दादी ने मुझे इस नाम से कभी नहीं पुकारा।वो तो हमेशा गोलू ही कहती थीं और जब मुझे पुकारना होता था तो ‘अरे गोलुआ ‘ कहती थीं।उनके इस उच्चारण में मुझे बहुत स्नेह और अपनत्व झलकता था।
स्कूल से आकर जब उनकी गोद में बैठता था तो अपने बचपन और मायके की अनेक कहानियों में एक कहानी सुनाना वो कभी नहीं भूलती थी कि हम तो दूसरी किलास भी नहीं पढ़ पाई लेकिन तेरे बाप को देख कित्ता पढ़ाया और अब ते भी बहुत बड़ा अफसर बनियो।मैं ठहरा पढ़ाईचोर..सो तपाक-से कह देता,” पहले दीदी पढ़ेंगी दादी तब ना हम पढ़ेंगे।मेरी भोली बातें सुनकर वो खूब हँसती और सिर पर एक चपत लगाकर कहतीं, ” एकदम अपने बाप गया है।”
स्कूल की पढ़ाई खत्म होने पर आगे की पढ़ाई के लिये पापा मुझे हाॅस्टल भेजना चाहते थें लेकिन माँ न भेजने के लिये अड़ गईं।तब दादी ने ही माँ को उलाहना दिया,” तें ही अपने बेटे से पियार करत हो…,हम नाहीं।जो हम अपने करेजा(कलेजा) पर पत्थर रखकर महेशवा(मेरे पिता) को पढ़ने ना भेजते तो तू क्या अफसराइन(ऑफ़िसर की पत्नी) बनकर इठलाती।उनके तर्क के आगे फिर माँ निरुत्तर हो गईं थीं।
इंजीनियरिंग का फ़ाइनल ईयर था,दादाजी की तबीयत खराब होने की खबर सुना तो उनसे मिलने के लिये आया।तब दादी उन्हें लेकर ललितपुर कस्बे से हमारे घर ही आईं हुईं थीं।दादी बहुत उदास दिख रहीं थीं।मैंने उनसे कहा,” चिंता क्यों करतीं हैं, दादाजी कुछ ही दिनों में दौड़ने लगेंगे।” तब उनकी आँखों में आँसू के साथ-साथ एक आशा की किरण भी थी।वापस जाते वक्त पापा ने मुझे बताया था कि आशीष…,तेरे दादाजी बचेंगे नहीं।पिता का साथ छूटने का दर्द उनकी आँखों में स्पष्ट दिखाई दे रहा था।
मेरी परीक्षाएँ शुरु हो गईं थी।एक पेपर ही बचा था कि पापा का फ़ोन आया,” तेरे दादाजी नहीं रहें।” जी तो किया कि दौड़कर घर का चला जाऊँ लेकिन फिर दादी फ़ोन करके बोलीं, ” परीक्षा छोड़कर मत अइयो गोलू।” मुझे उनकी बात माननी पड़ी।
जब घर पहुँचा तो दादी मुझसे लिपटकर रो पड़ी थीं।दादाजी के बिना तो वो अपने मायके भी नहीं जातीं थीं और आज उनके बिना….।मैं उनका मन बहलाने के लिये उन्हें अपने कमरे में ले गया और दादाजी की तस्वीरें दिखाते हुए बोला,” दादी…,जब आप दादाजी के साथ घूमने जाती होंगी…।”
” यही तो शिकायत रह गई गोलू कि उ आदमी हमको घुमाने खातिर कहीं नहीं ले गया।” दादाजी के प्रति उनका क्रोध चेहरे पर उभर आया।कहने लगीं, ” जाते बखत तो हमने उनसे कह दिया कि तुम हमें घुमाने खातिर कहीं नहीं ले गये।परशुराम के चार बच्चे थें तो भी वो अपनी मेहरारु को दिल्ली ले गया था लेकिन तुमसे दो भी संभाले नहीं गये।और तो और गोलू…तोहार दादाजी हमें एक ठो सिनेमा भी दिखाने नहीं ले गये।”
मैंने बात घुमाते हुए कहा,” कोई बात नहीं दादी…पापा तो आपका बहुत ख्याल रखते हैं।वो तो…।”
” कौन..तोहार बाप!” दादी तपाक-से बोली,” उ तो एकदम अपने बाप पर गया है।कहो आम तो सुनेगा इमली।बाल-बच्चेदार आदमी है…पूजा-पाठ में मन लगाये के चाही लेकिन उका तो रुपइया कमाये से ही फुरसत नाहीं।”
” इसीलिए तो दादी.. आपकी माँ से खूब बनती है।वो भी तो आपकी तरह….।”
” अरे चुप कर…।बड़ा आया माँ का हिमायती।तोहार महतारी को मालुम है कि हमको मीठी चाय पसंद है लेकिन उ औरत चाय में चीनी कभी नहीं डालती।सास का ख्याल तो रखती है परन्तु पति का नाहीं।तोहार नानी ने अपनी बेटी को पति का ख्याल रखना सिखाया ही नहीं।”
दादी के मुख से उनकी शिकायतों का पिटारा सुनने में मुझे बहुत मज़ा आ रहा था।इसी बहाने वे दादाजी की कमी को कुछ देर तक भूली हुईं थीं।मैंने कहा,” अच्छा दादी, कनक बुआ तो आपकी हर बात मानती थीं।आप भी उन्हें….।”
” मत बात कर उसकी बचवा…, उसने तो हमरी नाक कटवा दी।” दादी दुखी हो गईं।कनक बुआ उनके ठीक पीछे बैठी मुस्कुरा रहीं थीं।मैंने किसी तरह से अपनी हँसी पर काबू करते हुए पूछा,” दादी…बुआ ने आपकी नाक कटवा दी लेकिन आपकी नाक तो…।” झट-से मुझे एक चपत लगाते हुए बोली,” हम नाहीं पढ़ सके, अपनी बिटिया को पढ़ाना चाहत रहे लेकिन उस नासपिटी को तो कित-कित और गिट्टे खेलने से ही फुरसत नहीं मिली।किताब देखकर उस महारानी को नींद आवत रही।” बीती बात याद करके उनका चेहरा तो लाल हो गया और हमारी हँसी छूटी जा रही थी।
” लेकिन दादी.. आपकी इच्छा सुनयना जीजी(मेरी दीदी) ने पूरी कर दी ना।एमए इन अर्थशास्त्र…”
” एमए-बीए का चार अक्षर पढ़ ली तो क्या…।ब्याह तो अपनी पसंद से किया ना…हमरी बात तो नाही रखी तेरी जिज्जी ने..।” दादी की त्योरियाँ चढ़ी देख तो हम सब अपनी हँसी बड़ी मुश्किल से ही रोक पा रहें थें।
” अच्छा दादी…छोटे दादाजी भी तो अब बूढ़े हो गयें होंगे।आपको कितने प्यार-से ‘भौजी ‘ कहकर पुकारते थें और आप भी…।”
दादी के इकलौते देवर थे बंसीधर।दादी के ब्याह के समय वे सात-आठ बरस के थें।दादी अपनी कहानी में उन्हें भी शामिल अवश्य कर लिया करतीं थीं।हम सब उन्हें छोटे दादाजी कहते थें।अब उनका ज़िक्र क्या छेड़ दिया, वे तो बिफ़र पड़ी,” नाम मत ले उस मरदुए का….।” फिर अपने हाथ से इशारा करते हुए बोलीं,” इतना-सा था….नाक-निकर बहती थी…हमरे ही हाथ से पलाकर दो बेटों का बाप बना है।फिर तो नजर ऐसी फेरी कि अपने मरते भाई का मुँह भी देखने नहीं आईस।”
” दादी….सबकी तो कह दी..हमसे भी कोई शिकायत हो तो…।”
” तोसे काहे की शिकायत बचवा… तू तो…।” तभी माँ ने मुझे आवाज़ लगा दी।मेरे जाते ही बुआजी दादी से बतियाने लगी।मैं माँ से दादी के लिये चाय का गिलास लेकर आ रहा था कि दादी के मुख से ‘ गोलुआ जैसा…’ स्वर सुनकर मैं ठिठक गया।अपनी प्रशंसा को सुनने के आतुर मेरे कर्णों में दादी के मधुर स्वर सुनाई दिये।दादी बुआ जी से कह रही थीं, ” अपने भतीजा का पक्ष मत ले कनकी…गोलुआ जैसा कपूत तो अपने परिवार में नाहीं …दादा के मरने के दस रोज बाद आया है नालायक…।” दादी अच्छे-अच्छे शब्दों से मुझे अलंकृत करती जा रहीं थी।मैंने उन्हें चाय का गिलास थमाया तो मुस्कुरा कर कहने लगी,” देखा कनक…ये है मेरा पोता…लाखों में एक..।” और मैं उनके वात्सल्य के आगे नतमस्तक हो गया।
दादी की उन मीठी शिकायतों में सबके लिये इतना प्यार था कि उनकी शिकायतों को सुनने के लिये घर के बच्चे-बड़े हरदम उन्हें घेरे रहते थें।सबके बीच रहतीं तो दादाजी के न होने की कमी का एहसास उन्हें थोड़ा कम होता था।
विभा गुप्ता
# शिकायत स्वरचित
घर के बड़े-बुजुर्गों की शिकायतों में उनकी तकलीफ़ों के साथ-साथ अपनों के लिये ढ़ेर सारा प्यार भी छिपा रहता था।उनकी शिकायतें तो अपनों को अपने पास बैठाने का बस एक बहाना होता है।