Moral Stories in Hindi : ठाकुर शमशेर सिंह नम आँखों से पिता को अग्नि में विलीन कर घर वापस लौटते हैं।माँ तो कुछ वर्ष पूर्व ही गुजर गई थी।बगल में चाचा का परिवार है,परन्तु उनके मन और घर में सन्नाटा पसरा हुआ है।वे एकटक से दीवार में टँगी हुई माता-पिता की तस्वीर को निहार रहे थे,उसी समय उनके चाचा उदय सिंह उनके कंधे पर हाथ रखकर कहते हैं -“बेटा!आजकल के समय में तुमने माता-पिता की जितनी सेवा की,उतने विरले ही करते हैं।अब तुम्हारा प्रायश्चित पूर्ण हुआ। “
शमशेर सिंह-“काका!पश्चाताप की अग्नि तो अभी भी मेरे सीने में धधक रही है!”
उदय सिंह -” नहीं बेटा!अनजाने में हुई गल्ती की सजा इतनी बड़ी नहीं होती है,जितनी तुमने झेली है।अब तुम अपने मन में कोई मैल मत रखो,जाकर आराम करो।”
ठाकुर शमशेर सिंह थके कदमों से बिस्तर पर आकर लेट जाते हैं,परन्तु नींद उनकी आँखों से कोसों दूर है।वर्षों पुरानी घटित घटना उनकी आँखों के समक्ष सजीव होकर नाचने लगती है।
ठाकुर शमशेर सिंह बहुत ही संपन्न घराने से ताल्लुक रखते थे ।बाप-दादों की पुश्तैनी जमीन-जायदाद थी।घर में किसी चीज की कमी नहीं थी।घर में नौकर-चाकर भरे-पड़े थे।उनके पिता और दादा जंगलों में शिकार करते थे।जानवरों का शिकार प्रतिबंधित हो जाने के बावजूद परिवार का बंदूक के प्रति मोह भंग नहीं हुआ था।घर में अभी भी पाँच बंदूकें थीं,जो अब शादी-ब्याह और जलसों में शान प्रदर्शन हेतु चला करतीं थीं।
ठाकुर शमशेर सिंह के पिता का नाम ठाकुर रंजीत सिंह और माता का नाम अंजलि देवी था।जिस समय ठाकुर शमशेर सिंह की उम्र दस वर्ष थी,उस समय उनके छोटे भाई का जन्म हुआ था।बच्चे के जन्म के समय रंजीत सिंह की हवेली में जश्न का माहौल था।उनकी हवेली रोशनियों से जगमगा रही थी।मेहमानों का तांता लगा हुआ था।हो भी क्यों न!आखिर दस साल बाद ठाकुर रंजीत सिंह को दूसरे पुत्र-रत्न की प्राप्ति हुई थी।खुशी के मौके पर ठाकुर रंजीत सिंह तथा उनके सम्बन्धी बन्दूक से फायरिंग करते हुए झूम रहे थे।दस वर्षीय बालक शमशेर को भाई के रूप में एक नया खिलौना मिल गया था।वह छोटू को प्यार भरी नजरों से देख रहा था।
जैसे-जैसे छोटू बड़ा हो रहा था,वैसे-वैसे अपनी भोली अदाओं से परिवार में सबकी आँखों का तारा बनता जा था।बालक शमशेर भी स्कूल से आने के बाद छोटू के इर्द-गिर्द ही बना रहता था।
समय के साथ छोटू पाँच साल का हो गया।वह भी हमेशा अपने बड़े भाई शमशेर के आगे-पीछे घूमता रहता।शमशेर भी उसे बेइंतिहा प्यार करता था।उस दिन छुट्टी का दिन था।सुबह-सुबह माँ अंजली देवी ने दोनों बेटों को नाश्ता करवा दिया।अंजलि देवी शमशेर को छोटे भाई का ख्याल रखने कहकर अन्य कामों में लग गईं।दोनों भाई आपस में घर में ही गेंद खेलने लगें।इधर ठाकुर रंजीत सिंह ने अपने एक नौकर को सारी बंदूकें साफ करने का आदेश दिया।हवेली में बीच-बीच में बंदूकों की सफाई होती रहती थी।नौकर ने आलमारी से बंदूकें निकालकर बाहर रख दी।उसे पता था कि खाली बंदूकें ही सफाई की जाती हैं,इस कारण परिवार में किसी के आवाज देने पर वह बंदूकें छोड़कर चला गया।
दोनों भाई खेलते-खेलते बंदूकवाली जगह पर पहुँच गए। शमशेर को भी यह बात पता थी कि यदा-कदा बंदूकों की सफाई होती रहती है।वह कई बार खाली बंदूकों से खेल चुका था।उस दिन भी भी खेलने के लिए शमशेर ने एक बंदूक उठा ली और दोनों भाई चोर-पुलिस खेलने लगें।शमशेर ने अपने छोटे भाई की तरफ बंदूक तानते, हुए कहा -“छोटू!तुम चोर हो,मैं पुलिस। तुमने मेरी गेंद चोरी की है,मैं तुम्हें गोली मार दूँगा।”
इतना कहते ही उसकी अंगुली बंदूक की ट्रिगर पर चली गई और दब गई। देखते-देखते सचमुच गोली छोटू के सीने में लग गई और वह खून से लथपथ होकर जमीन पर गिर पड़ा।छोटू को इस हालत में देखकर शमशेर हाथ से बंदूक फेंककर जोर से चिल्ला उठा।बंदूक की आवाज सुनते ही अंजलि देवी तेजी से आकर छोटू को अपनी गोद में समेट लेती है।पलभर में अंजली देवी के कपड़े खून से भींग जाते हैं।छोटू भाई शमशेर की तरफ अँगुली उठाकर दिखाता है और अगले पल ही उसके प्राण पखेरू उड़ जाते हैं।
हँसते-खेलते घर में मौत का हाहाकार मच जाता है।अचानक पलभर में परिस्थितियाँ बदल जाती हैं।मौत का कहर देखकर किशोर शमशेर हतप्रभ रह जाता है।उसे समझ नहीं आता है कि छोटू को खाली बंदूक से गोली कैसे लग गई?खोजबीन से पता चलता है कि अन्य नौकर की लापरवाही से उसमें एक गोली रह गई थी।किशोर शमशेर को बस यही याद है कि उसके हाथों से बंदूक चलने से छोटू की मौत हो गई है।माँ की गोद में भाई का खून से सना शरीर देखकर वह बेतहाशा रोएँ जा रहा था।छोटू को निर्जीव हालत में देखकर वह खुद मूर्छित हो चला था।
परिवार के समक्ष बहुत विकट घड़ी थी।एक बेटा तो गुजर चुका था,दूसरा अर्द्ध विक्षिप्त अवस्था में पहुँच गया था।किसी को समझ में नहीं आ रहा था कि एक भरे-पूरे परिवार को किसकी नजर लग गई?घरवाले इस अप्रत्याशित हादसे से खुद को सँभाल नहीं पा रहे थे।पलभर में बिना किसी बीमारी के खेल-खेल में छोटू ने दम तोड़ दिया था।माँ अंजलि देवी अपनी गोद में बेटे को समेटे हुए आशाओं के दामन न टूटने का भ्रम पाले हुए थीं।वह किसी हालत में छोटू को अपनी गोद से उतारने को तैयार नहीं थीं।बार-बार छोटू को चूमते हुए उसे जगाने का निरर्थक प्रयास कर रहीं थीं।वहीं पास में बैठा शमशेर बार-बार विस्फरित नयनों से माँ और छोटू को देख रहा था।उस समय बड़ी ही भयावह स्थिति उत्पन्न हो गई थी।
परिवार के मुखिया रंजीत सिंह ने उस समय कलेजे पर पत्थर रखकर किसी तरह पत्नी और बेटे को सँभाला।ठाकुर रंजीत सिंह बहुत ही रसूखवाले थे,इस कारण उन्होंने नाबालिग शमशेर को तो किसी तरह पुलिस की चंगुल से बचा लिया था,परन्तु शमशेर के मस्तिष्क में माँ की गोद में छोटू का खून से लथपथ शरीर अंकित हो गया था,उससे छुटकारा दिलाना परिवार के लिए बड़ी चुनौती थी।परिवार दिनभर शमशेर को अपने पास घेरे रहता था।परिवार के लिए बड़ी कठिन परीक्षा की घड़ी थी।एक छोटा बच्चा असमय ही काल-कवलित हो चुका था और दूसरा बेटा अर्द्धविक्षिप्त अवस्था में पहुँच गया था।रात में उठ-उठकर शमशेर उस घटना का दोषी खुद को मानकर सिसकियाँ भरने लगता था।आँसुओं के सैलाब से उसका तकिया भींग उठता।वह पसीने से लथपथ होकर बदहवास रोने लगता।”मैंने छोटू को नहीं मारा”कहते चिल्लाकर नींद से उठ बैठता।माँ उसे सीने से चिपकाकर सांत्वना देती हुई कहती -” हाँ बेटा!तुमने जान-बूझकर छोटू को नहीं मारा!”
परन्तु किशोर शमशेर के दिमाग से छोटू की मौत की बात निकल ही नहीं रही थी।
शमशेर के चेहरे पर मुस्कराहट लाने के लिए उसके माता-पिता हरसंभव कोशिश करते।उन्हें भय था कि कहीं वे इस बेटे को भी न खो दें!शमशेर की मनःस्थिति नहीं ठीक होने पर उसके माता-पिता ने उसे शहर के बड़े मनोचिकित्सकों से दिखलाया।मनोचिकित्सक ने उन्हें घटनावाली जगह छोड़ने की सलाह दी और शमशेर की नजरों से सदा के लिए बंदूक को ओझल करने को कहा।घर से सारी बंदूकें फेंक दी गईं।माता-पिता शमशेर को लेकर शहर आ गए। धीरे-धीरे शमशेर की यादों पर धूल की परतें जमने लगीं।उसकी पढ़ाई-लिखाई शुरु हो गई। पढ़ाई खत्म होने पर माता-पिता ने शादी के लिए उसपर दबाव बनाया,परन्तु शादी से इंकार करते हुए शमशेर ने साफ शब्दों में कहा -“पिताजी!मेरी यादें जरुर धूमिल हो गईं हैं,परन्तु विस्मृत नहीं हुईं हैं।आपलोगों के प्रति मेरा कर्तव्य और जिम्मेदारियाँ हैं,जिन्हें मैं अपनी सेवा-भावना से पूर्ण करुँगा।मैं कभी भी शादी नहीं करुँगा।”
माता-पिता लाख कोशिशों के बावजूद उसे शादी के लिए नहीं मना सकें।उस समय से प्रायश्चितस्वरुप उसने माता-पिता की सेवा में अपना जीवन होम कर दिया।कुछ वर्ष माताजी का देहांत हो गया था और अब पिताजी भी उसे अकेला छोड़कर चले गए। अतीत की घटनाओं का पुनर्मूल्यांकन करते-करते शमशेर सिंह नींद की आगोश में समा गए।
सुबह-सुबह उनके चाचा उदय सिंह आवाज देते हुए कहते हैं-” बेटा शमशेर!उठो,तुम्हें अपने पिताजी का क्रिया-कर्म विधिवत् संपन्न करना है!”
शमशेर सिंह आँखें मलते हुए चाचा के पास आकर बैठती हैं।चाचा से सारी बातों की जानकारी लेते हैं और चाचा के सहयोग से पिता का क्रिया-कर्म विधिवत् संपन्न करते हैं।सबकुछ अच्छे से निबट जाने के बाद शमशेर सिंह अकेले चिन्तामग्न बैठे हुए हैं।उसी समय चाचा उदयसिंह उनके पास आकर बैठती हैं और पूछते हैं -” बेटा!आगे क्या करना है?कुछ सोचा है?”
शमशेर सिंह -“काका!कुछ-कुछ तो अवश्य सोच रहा हूँ।”
उदय सिंह -” बेटा!अब तुम्हारा प्रायश्चित पूरा हो गया।शादी कर घर बसा लो।”
शमशेर-“नहीं काका!जबतक मैं जिन्दा रहूँगा,तबतक मेरा प्रायश्चित पूरा नहीं होगा।कृपया आप मुझे छोटे और गरीब बच्चों के लिए अनाथाश्रम खोलने में मदद करें।मेरे बाद मेरी सारी सम्पत्ति अनाथाश्रम के बच्चों की परवरिश और शिक्षा में दे दी जाएगी।”
चाचा उदय सिंह उठकर भतीजे शमशेर को गले लगा लेते हैं।एक-दूसरे को देखकर चाचा-भतीजे की आँखें नम हो जाती हैं।प्रायश्चित करने का इससे खुबसूरत अन्य उदाहरण नहीं हो सकता है!
उपरोक्त लिखी कहानी सत्य-घटना से प्रेरित है।
समाप्त।
लेखिका-डाॅ संजु झा(स्वरचित)