वो हँसने वाली लड़की ……..!अमरपाल सिंह ‘आयुष्कर’ : Moral stories in hindi

Moral stories in hindi : ‘ वह मुझे वाराणसी रेलवे  स्टेशन पर मिली थी | खुली किताब के फड़फड़ाते पन्ने -सी | पढ़ रहा था मैं एक -एक हर्फ़ | जिसे मैं शब्दों और वाक्यों की बंदिशों में गुनगुना रहा था, वह एक रहस्य कथा – थी  …..|

उसे फैजाबाद अपनी बुआ के यहाँ जाना था और मुझे नवाबगंज |मेरे बगल बैठी वह बड़े चिरपरिचित अंदाज में एक – एक कर कितनी बातें पूछे जा रही थी और मैं उसी लय में गुम सब बताता जा रहा था | था ही क्या छुपाने को …?मेरा संकोची स्वभाव खुद के दायरे कैसे तोड़ रहा था ,यह सोचकर  मुझे हँसी  भी आ रही  थी  |

उसने मुझसे कहा -“ आप हँसते हुए बुरे नहीं लगते , फिर इतना कम क्यों हँसते हैं ?”

मैंने कहा-“ मुझे दूसरों को हँसते हुए देखना ज्यादा अच्छा लगता है…..| मेरा ऐसा उत्तर  सुनकर वो  जोर से हँसी ,बोली – “ अरे वाह ! कुछ ज्यादा ही नहीं हो गया  ?”

“ कहाँ से हो ? बनारस के तो नही हो, इतना तो पक्का है !”

सच कहूँ !, जवाब देने का मन तो नही था, पर फिर भी मेरे प्रति उसकी जिज्ञासा अच्छी लग रही थी | जिन्दगी में पहली बार कोई अनजान लड़की इतने अपनापे भरे सवाल कर रही थी कि जवाब  मेरे चिंतन से बगैर इज़ाजत  लिए उछल-उछल कर बाहर आ रहे थे | हाँ ! , बात -बात में उसने ये जरूर बताया था कि  वह एनएसडी के लिए फॉर्म भरना चाहती थी ,एक्ट्रेस बनना चाहती  थी  | ‘’परिवार तो बहुत  रुढ़िवादी है ,फिर भी मैं थोड़ी अलग हूँ

|’’ उसने पूरे आत्मविश्वास के साथ मुझसे कहा , “ यहीं करौंदी  के पास  रहती हूँ |कभी आइयेगा घर ! ” न्योता दे  डाला था |मेरी सहजता ने मुस्कुराकर स्वीकृति भी दे दी थी | “अच्छा लगा ,आप जैसी आज़ाद ख़याल लड़कियों को देखकर ,मैं खुश हो जाता हूँ |” “ क्यों आपको कैसे लगा कि मैं आज़ाद ख्याल की हूँ ?

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फिर हँसते हुए बोली-‘ … अरे ! वो तो बस  ..ऐसा बोलकर सहज  महसूस  करती हूँ, बस इसीलिए बोल दिया | मैंने कहा –‘आपकी हँसी और लड़कियों से बिलकुल अलग है ! झट से बोल पड़ी – ‘पता नहीं ,पर इतना ज़रूर है कि  जब भी मेरा मन उदास होता है ,तो  जोर –जोर से हँसने को जी करता है

| तब  मैं  हँस लेती हूँ ,ठहाके लगाकर | बस…. उदासी की धुंध छूमंतर , वैसे भी ख़ुशी ,शांति ये सब तो मानव मन की मूल प्रवृति है ,एक अपना मन ही तो है, जिसे हम अपने अनुसार चला सकते हैं |”

“लेकिन हर कोई कहाँ चला पाता है मन को  अपने अनुसार ….?” मैं बुदबुदाया |

घर में जब इस तरह खुलकर हँसती होंगी तो सच में,  सारा विषाद , सारी थकान दूर भाग जाती होगी पूरे परिवार की | कितना गुलज़ार होता होगा आपका घर आपकी इस जीवंत हँसी से ?”

मेरे प्रश्न को सुनकर बोल पड़ी – “ हाँ !घर पर भी, चाहे बाद में कितनी भी डांट पड़े , पर अपनी आत्मा को कष्ट नहीं पहुँचाती,पाप लगता है ना ?” मैंने प्रश्न किया – ‘पाप और पुण्य ,यक़ीन करती हैं ?

अच्छा आपकी नज़र में पाप और पुण्य है क्या ?” वह कहने लगी –“ सम्पूर्ण प्रकृति को जो सुकून दे पुण्य और हाँ, सबसे बड़ा पाप है- आत्महिंसा |”

मैं झट से मुस्कुराते हुए बोल पड़ा –“ दार्शनिक हैं आप तो !”

उसने पहले तो कुछ शरमाते हुए,पर बाद में पूरे आत्मविश्वास के साथ मेरी आँखों से आँखें मिलाते हुए कहने लगी –“ व्यक्ति ताकतवर हो जाये तो परहिंसक हो जाता है और कमजोर हो तो आत्महिंसक और मैं जीवन में कभी कमजोर नही पड़ना चाहती |बार –बार जन्म लेकर मानव जीवन जीना चाहती हूँ |इस प्रकृति- सा मजबूत जन्म क्योंकि कमजोर होना ,आत्महिंसक होना, पाप है |

और मुझे कभी मोक्ष भी नही चाहिए |जीवन संघर्ष की द्यूतक्रीड़ा – सा आनंद और कहाँ  ?”

खूब जोर की हँसी……ठहाकेदार |

मैं बोल पड़ा-‘कितना खुलकर हँसती हैं आप ….अच्छा लगता है ! पूरे  इलाके में गूँजती होगी आपकी हँसी ?’

उसने थोड़ा मुस्कुराते हुए कहा – ‘मैं ही हँसती हूँ पूरे गाँव में ऐसी हँसी |बाकी  सभी लड़कियां ,औरतें डरती हैं, मेरी तरह हँसने में |”

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“ऐसा  क्यों ?” आश्चर्य मिश्रित जिज्ञासा से मैंने उससे पूछा |

“जानना है क्यों ?”अपने रेशमी बालों पर हाथ फेरते हुए उसने कहा |

इतनी  अद्भुत बात  सुनने के लिए मैंने उत्सुकता में सिर हिलाया और बच्चों-सा एकटक उसकी ओर देखने लगा |

उसने बोलना शुरू किया – “ मेरे गाँव की एक बुआ जी थीं ,बड़ी भली थीं ,पर इतना हँसती थीं कि पूरा गाँव उन्हें हँसने वाली डायन बुलाता था , उनके हँसने की शुरुआत भी आरोह –अवरोह के साथ होती ,पहले मुस्कुरातीं ,फिर बच्चो जैसा खिलखिलातीं ,फिर मर्दों -सी धमाकेदार हँसी ,बिलकुल मेरे जैसी |

लोग कहते जिस घर जाएगी, पति चार दिन में निकाल बाहर  करेगा |सुरसा की तरह मुँह फाड़कर हँसती है, ये लच्छन लड़कियों के लिए शोभा नही देते, बिलकुल आवारा हँसी ,ना जाने कितने नामों ने नवाज़ी गयी उनकी हँसी |

और जानते हो ! शादी के बाद एक दिन बुआ की  ससुराल में मनिहार चूड़ी पहनाने आया |चूड़ी पहनते हुए, मनिहार की किसी बात पर बुआ जोर-जोर से हँस रही थीं, न जाने किस बात पर… वैसे भी  उनकी  ससुराल में हँसने जैसी स्थिति पैदा करने सरीखा , कुछ  भी तो नहीं था  |

हँसी का भरा कलश अवसर पाकर  छलक पड़ा , फिर क्या – सास ने ना आव देखा ना ताव ,बेटे को पुकारते हुए बोलीं- “ निकाल इस हँसोड़ की जुबान ,परेतिन- सा  हँसती रहती है | जान –अनजान , आस -पड़ोस सांझ- सबेरे मुँह बिचकाता है | ना  जाने कहाँ से उठा लाये बेशरम बहुरिया ? माँ-बाप ने हँसने का भी तरीका ना सिखाया लड़की को ! भक्क –भक्क कर हँसती है |’

बुआ बाँह भर –भर चूड़ियाँ खनकाती उठी ही थी कि, तभी एक तेज धक्का उनकी पीठ पर  पड़ा …..बेटे ने जैसे मातृऋण उतार दिया |बुआ के मुँह से पाँच दाँत  बाहर निकल पड़े ! हँसी का सोता तो भीतर था , वह कैसे सूखता | वह तो आत्मा का गान था |हँसना तो प्रकृति से एकाकार होना था |बाकी उमर बुआ ने उन्ही टूटे दाँतों  को श्रद्धांजलि देने में बिताया | हँसीं खूब हँसीं | पहले जहाँ दाँत  दिखते थे ,

वहाँ अब कभी-कभी सौन्दर्य लोभ से आँचल का कोना मुँह पर होता था |वैसे पूरी उमर जीकर शरीर नहीं त्यागा ,असमय चली गयीं वो …….कितने अधूरे ख्व़ाब लिए …..| पीछे पाँच बेटियाँ ,पाँच दाँतों की निशानी | बेटा जनने की आस लिए काया कंकाल में तब्दील हो गयी ….या पति ने ही मुक्ति दे दी …जितने मुँह, उतनी बातें |सच किसे पता ….? बेटियाँ भी विरासत में माँ की हँसी पा गयी थीं | ”

फिर…? मेरे अशांत मन ने शांतिपूर्वक पूछा  |

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उसने कुछ उदास होते हुए कहा-“ फिर क्या, तबसे जब भी गाँव में कोई लड़की तारा बुआ- सा हँसती , तो लोग यही ताने देते ,कि  कोई सिरफिरा मरद मिल गया तो, भरी जवानी में मुँह पोपला कर देगा !”

मैं उसे एकटक देख रहा था -जोरदार हँसी …झरनों की तरह ,वेग से उतरती हँसी ,चलकर ना जाने किस रेगिस्तानी शून्य में समा जाती है ,और कभी झुंडों में सिमटी हँसी बिखर कर लुप्त हो जाती …फिर एक सन्नाटा ……..आगत  भय का इतना भयानक बखान ,वो भी हँसी की पतंगे उड़ाकर |

तभी वह बोल पड़ी-“ जानते हो ! ये सब मैंने तुम्हे क्यों बताया …क्योंकि जब भी मेरे भीतर कोई दुःख होता है , मैं बाँट देती हूँ, किसी से भी कह देती हूँ, मुझे आत्मा में यकीन है, सभी आत्माएं हैं, कभी -कभी जब कोई नहीं सुनने को तैयार नही होता तो अपने कुत्ते, गैया,पेड़ ,नदी और तालाब से भी बातें कर लेती हूँ |ये  बेजुबान सही ,पर उनकी आत्मा तक तो मेरी आवाज पहुँच ही जाती है ना ! और तो और कभी – कभी खुद से भी बतिया लेती हूँ

……तुम करते हो ऐसा ?” मैंने संक्षिप्त उत्तर दिया – “ करूँगा ” , अब कोशिश करूँगा “….उसने बात को आगे बढ़ाते हुए कहा – “ और हाँ ! ये पशु ,पक्षी, पेड़ -पौधे तुम्हारे मन की किसी से कहेंगे भी नहीं ..इन्सानों -से नहीं होते ये ! कुछ पल रुककर, गहरी साँसें लेते हुए बोल पड़ी- ‘काश ! इंसानों के भी जुबान न होती ..कितना अच्छा होता ! तारा बुआ के दाँत ना टूटते ! मैं भी क्या पागलों – सा सोचती हूँ ! बोर हो रहे होंगे ना आप भी ?” मैंने कहा –“नही तो ! मैं तो सोचना शुरु करना चाहता हूँ |’’

फिर चेहरे के भाव को संयत करते हुए कहने लगी –“तुम मिले तो मन ने कहा, कह डालो …कह दिया ……| दो पल में सदियों का दर्द तो नही कहा जायेगा ना !”

और फिर एक जोरदार हँसी ….वह अच्छी लग रही थी |

                फैज़ाबाद आ गया था |हम स्टेशन से बाहर आ चुके थे | रिक्शा लेकर वो जाने लगी तो बोली – ‘लीजिये ! मेरा पता है इसमें’

और फिर वह जाने लगी |

जाते हुए उसको आवाज़ दी मैंने ..वह मुड़ी ,मैं जोर से चिल्लाया ‘….मेराSS…….मेंSSरा नाम- मानव भार्गव है …तुम्हाराSSS…|’

मैंने देखा- उसके हाथ आश्वस्त भाव से हवा में  हिल रहे थे | मुझे लगा शायद सुन लिया होगा उसने  … |’

          उससे मिलने के बाद, दो वर्ष और जुड़ गए थे मेरी जिन्दगी में | नौकरी मिल गयी थी और प्रशिक्षण भी पूरा कर लिया  था | आज बनारस छूट रहा था | इतने दिन बनारस  में बिताने के बाद उसकी यादें ,मन को भारी  कर रही थीं |

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 वक़्त का ख़ेल – बेला पुनिवाला 

रद्दी इकट्ठी की ,पेपर वाले को बुलाया | वो तराजू -बाँट लेकर बैठ गया | मैं हँसा और उसका मुँह लड्डू से मीठा कराते हुए बोला – “नहीं भैया ! आज तोलकर नही, ऐसे ही ले जाओ |” उसने प्रसन्न मुद्रा में हाथ जोड़े और रद्दी को भरने लगा ,तभी एक कागज का टुकड़ा गिरा ,समय की ठहरी यादें ….वो हँसने वाली लड़की का पता था |मैंने देखा ,मेरा उदास मन हँसने की वजह पा गया|

मैंने सोचा, मिलने चलता हूँ आज ,पर क्या वो दो  वर्षों बाद पहचान पायेगी ? इतना संक्षिप्त – सा परिचय था उस दिन,पता नहीं मेरा नाम भी सुन पायी थी कि  नहीं ?उसका नाम भी तो नही पूछ  सका था उस दिन …अरे हाँ ! वो हँसने वाली डायन बुआ वाली बात याद दिला दूँगा | पर ना जाने कितनों को बता चुकी हो अपनी बात? छोड़ो भी , जाने दो …पता नही कैसी लड़की हो या फिर अब तक

शादी हो गयी हो ….पर, एक बात तो पक्की है , कुछ बन जरूर गयी होगी | गजब का आत्मविश्वास और साहस था |जीने का एक अपना ढंग |बहुत कम लड़कियाँ जी पाती हैं ऐसा , कपास – जैसा |यहीं बनारस  का पता था – करौंदी ,बी.एच.यू. के पास |सोचा, दोबारा ना जाने कब आऊँगा |मिल लेता हूँ एक बार , शायद अभी यहीं हो ? वो बिलकुल मेरे वैचारिक  खाके में समाने  वाली लड़की थी |उसकी निश्छल हँसी …!

सोचते -सोचते मैं उस पते के सामने था |

मैंने उस जर्जर होते मकान की कुण्डी खटकाई ऐसा लगा , कुण्डी निकलकर हाथ में आ जाएगी  | ईंटों से झाँकते मोरंग , बेबस धूलों ने, बेतरतीब उगी जिद्दी घासों ने ,यहाँ –वहाँ  लटके जालों ने मुझे आगाह किया हो जैसे ! तभी एक जर्जर काया  ने दरवाज़ा खोला | अनुभवी रंग लिए बाल, विजन सरीखी आँखें ,पपड़ाये होंठ और एक प्रश्नवाचक दृष्टि !

मैंने उसके मुखाभाव को मूक प्रश्न मान, उत्तर दिया – “ मैं मानव भार्गव ….वो खूब हँसनेवाली लड़की यहीं रहती है ? मुझे भी अपने प्रश्न पर लज्जा ,संकोच और हँसी मिश्रित भाव आ रहे थे |कहीं ये मुझे पागल ना समझ ले |मैं उन शून्य में खोयी आँखों से, किसी उत्तर की उम्मीद ना पाकर लौटने लगा | मैं मुड़ा ही था कि एक भर्रायी आवाज़ ने मेरे क़दमों को रोक दिया – “ हाँ ….हाँ ! यहीं रहती है ..आइये !” उसने मुझे बैठाया, पानी को गिलास में उड़ेलते हुए उसने  दीवार पर लगी तस्वीर की तरफ इशारा करके पूछा !

‘’इसी  लड़की की खोज में आये हैं ना आप ?’’

मेरे हाथ से पानी का गिलास छूट गया | मेरे पूरे शरीर में एक सिहरन दौड़ गयी | बिलकुल वही चेहरा आँखों के सामने घूम गया , कानों में वही हँसी पिघलने लगी |

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तभी उसकी भर्रायी आवाज़ ने मुझे झकझोर दिया – “ करीब पंद्रह साल हुए वो हँसने वाली लड़की को गए |” मैं लगभग उसे डाँटते हुए बोल पड़ा – “ पर ये  तो मुझे दो साल पहले मिली थी ! मैं मिला था उससे ट्रेन में !

यकीन  नहीं होता मुझे ! आप मज़ाक तो नही कर रहे ..!

ऐसा भी हो सकता है ? मैंने खुद से प्रश्न किया |उसकी बातें सुनकर मुझे पसीना आ गया,मेरे पैर काँप रहे थे|

     तभी उसने बात आगे बढ़ाई – “ पत्नी थी वो मेरी | कब मिली थी आपको ?”

मेरी  आँखों को , इस रूह सिहरा  देने वाले सच पर यकीन करना नामुमकिन था |फिर भी मैं सुनना चाहता था |

वह मेरे जिज्ञासु, अशांत बालमन सरीखे प्रश्नों को पहचान, उत्तर देने के लिए अपनी पथरायी स्मृतियों को घिसने लगा -“ वो आज भी आती है | तारा , नाम था उसका ….|’’

‘ओह्ह्ह……. !’- मैं सिहर  उठा |मैंने  अपने हाथों को आपस में भींच, दोनों अंगूठों को दाँतों  तले दबा लिया- “ तो वो तारा बुआ थीं ….खुद की कहानी दोहरा रही थीं ….!” बस इतना आत्मप्रलाप कर सका |

   “ हाँ ! पाँच बेटियाँSSS थीं ना उनके ?”  मैंने उत्सुकतावश और सच को पैना करने के लिए पूछा |

उसने वहाँ बैठी एक बुत सरीखी काया की तरफ इशारा करते हुए कहा -“ हाँ ..पाँच बेटियाँ थीं, ….पाँचवीं बेटी यहीं है, मेरे साथ ” फिर उसने एक  गहरी साँस ली, बोला – “ये जो पथरायी काया देख रहे हो ना, खूब हँसती थी यह पहले|

फिर एक दिन किसी से अपने माँ की कहानी सुन, इसने हँसना ही छोड़ दिया |

बाकी चार खूब हँसती थी | इसके  भीतर एक अनागत भय ने घर कर लिया है, इसे लगता है  ,यूँ जोर – जोर हँसेगी,तितलियों – सा उड़ेगी  , झरनों -सा बहेगी,सपने सजायेगी, तो कहीं ऐसा ना हो कि इसकी ज़िन्दगी भी, इसके माँ के जैसी हो जाये | बस, अब तो यह हँसना भी भूल गयी है !

पर नही, इसका  सोचना गलत था |लोगों को हँसना अच्छा लगता है ….ज़िन्दा लोग तो हँसते हुए ही अच्छे लगते हैं ! इसने  एक सहमे भविष्य की आशा में, वर्तमान को नही जिया |इसका कोई छोर भी है, नही पता ….!

थोड़ा रुककर वह फिर बोलने लगा- “ पर इसकी माँ, आज भी आती हैं इससे मिलने, मुझसे नही मिलती ,नाराज़ है अभी तक|

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मैंने कोई भी वचन नहीं निभाया ना ! सब कुछ त्याग मेरे पास आई थी | कहाँ  समझ सका एक नारी मन को, मेरे भीतर का दंभी, अज्ञानीपुरुष ! हम एक-दूसरे के पूरक बन सकते थे ,पर नही ! मेरे भीतर उपजे पुरुष अहं ने आत्मा की आवाज़ को अनसुना कर दिया था | मैंने प्रकृति की सहजता को उसकी कमजोरी ,उसकी विवशता माना | स्वप्नपंख ही काट दिए मैंने उसके ,यथार्थता पर पिघले मोम उड़ेल दिए , ओह्ह्ह …..भयानक भूल थी मेरी ,अक्षम्य अपराध है मेरा … अक्षम्य अपराध ….”

यह कहते हुए उसकी आँखों से रक्तवर्णी अश्रु प्रवाहित हो रहे थे,वह बोलता जा रहा था – “ जानता हूँ मैं ,तारा चाहती  है – एक बार अपनी बेटी को अपने जैसा हँसता हुआ देख ले, उसे आत्मिक शान्ति प्राप्त हो जाएगी |

और तब से आज तक मैं तारा की इस पीड़ा को परिशान्त करने में लगा हूँ ,क्योंकि मेरे लिए अब प्रायश्चित का एक यही जरिया है | रोज तरह –तरह से इसकी मुस्कान,इसकी हँसी,इसकी  खिलखिलाहट लौटाने का भागीरथ प्रयत्न करता रहता हूँ | ताकि इसके भीतर जमी हँसी की हिमानियां पिघल कर,कल –कल करती हुई , जीवन-सरिता  से मिल सकें | बिलकुल तारा-सा हँसते हुए देखना चाहता हूँ इसे, फिर से !

तारा हर लड़कियों की रूह में है, जो हँसना जानती हैं | तारा का लक्ष्य  …कोख़ में असुरक्षित होती हुई ,आग में जलती हुई ,सड़कों पर गिद्ध भरी नज़रों से निहारी जाती हुई ,बेंची और खरीदी जाती ,मर्दित की जाती हुई आस्थाओं,पवित्रताओं का आत्मबल बनना चाहती है | इसीलिए मुक्त नही होना चाहती, इस नश्वर जगत से | ना जाने पीड़ा की कितनी कहानियों में वो चीखतीं हैं ,चिल्लाती हैं ……जीने के अंदाज़ बताती है, वह हर हारे मन की आवाज़ बनना चाहती है | ….जानते हो ! तारा उस दिन बहुत खुश दिखती हैं ,

जब कोई बेटी जन्म लेती है ,जब कोई बेटी अपने तरह उकेरी गयी जिन्दगी जीती दिखाई देती है ,आसमान को छूती है , अपने सपने सच करती है और खुल कर हँसती है | खुलकर हँसने को वो आत्मा का संगीत ,एक अनहद नाद ….चिर शांति का महाद्वीप मानती है |”

उसकी बातों को सुनते हुए मेरी आँखें सुर्ख और पनीली हो गयी थीं| मैंने तस्वीर के पास रखे लाल कपड़े बंधे लोटे की तरफ इशारा किया- “ ये क्या हैं ?…वह बिना एक पल रुके कातर स्वर में बोल पड़ा –‘अस्थियाँ हैं तारा की ….ले जाओगे आप ? गंगा में प्रवाहित कर देना ,मुक्त हो जायेगी तारा ………बेटियों पर अत्याचार नही देखा जाता उससे ना ……….नहीं तो ना जाने कब तक आती रहेगी बार –बार, इस पीड़ायुक्त पथ पर पाँवों में छाले उगाने  , सदियों –सदियों सहती रहेगी परपीड़ा ….नहीं ….नहीं मुक्त कर दीजिये उसे आप |

मैंने जो  परहिंसा की है, उसी का प्रायश्चित कर रहा हूँ ,पापहस्त हूँ मैं,कोई नही आता यहाँ अब !

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और मैं तारा की इन अस्थियों को छूकर उसको अपवित्र,अपमानित नही करना चाहता,इसीलिए अब तक रखीं हैं ! शायद तुम्हारे हाथों ये पुण्य कार्य लिखा था,तभी उसने तुम्हे यहाँ भेजा है !” यह कहते हुए उसने अस्थिकलश मेरी ओर बढ़ाया, मैंने भारी  मन से , हलके अस्थिकलश को कांपते हाँथों  उठाया | एक बार तो मन में आया की बोल दूँ, मेरा विश्वास नही है ऐसी बातों में! पर मैं किसी की आस्था को ठेस भी नही पहुँचाना चाहता था और उस हँसने वाली लड़की की आत्मा को तो बिलकुल नही|

तारा बुआ के पति का पश्चाताप कितना सार्थक था ? सोचता हुआ मेरा उद्दिग्न मन दहाड़े मार – मार कर रोना चाहता था |

और अब मेरे भीतर एक अंतर्द्वंद था | तारा बुआ की मुक्ति ज़रूरी है या उनका रहना | तारा की भटकती आत्मा तो  बेटियों , औरतों , अजन्मी – जन्मी काया की शक्ति है,संबल है| उसकी आत्मा को मुक्त करना, प्रकृति को पीड़ा देना ,हतोत्साहित करना और अनाथ कर देने जैसा नही होगा ? और फिर तारा ने कहा भी तो था, उसे मोक्ष नही चाहिए ! प्रश्नों के अनंत ज्वालामुखी मेरे अन्तर्मन में फूट रहे थे | 

आज मैं फूट- फूट कर रोना चाहता था | मैं प्रार्थना   कर रहा था कि तारा बुआ के पति का परहिंसक रूप किसी भी पुरुषमन को अपना ठौर ना बना पाये| 

     मैं अपरचित समय से, परिचय की माँग  कर रहा था, चारों ओर पसरे प्रश्नों के कंकाल  , मुझे हँसने वाली डायन बुआ के पाँच टूटे हुए दाँत सरीखे भयावह लग रहे  थे |

तारा समय के बंधन से मुक्त  हो चुकी थी ….  मृत्यु तो मात्र उस शरीर का अंत है जो प्रकृति के पञ्च तत्वों से निर्मित होता है। आत्मा तो अमर है |

तारा की मृत्यु पर शोक करके मैं उसकी पवित्र आत्मा को कष्ट नही देना चाहता था |लेकिन ना  जाने क्यों मेरा  दृढ़  विश्वास  है कि वो हँसने वाली लड़की फिर मिलेगी मुझे ! और हाँ ! हर मन-द्वार पर आज भी खड़ी है वो, मूकव्यथाओं का प्रचंड अंतर्नाद और आत्मबल बनकर ! खटखटाती है, हर आत्मा की सांकल, सुन सको तो खोल देना द्वार, कर लेना आत्मसात, उस हँसने वाली लड़की की पीड़ा को |

जब  रोप लोगे मन की जमीनों पर उसका आना ,उसकी खिलखिलाहट,उसकी पहचान,उसकी उड़ान ,उसके स्वप्न,उसकी साँझ,उसका विहान |

तब तुम्हारा हर पल उस हँसने वाली लड़की की अन्तरिक्ष सरीखी खिलखिलाहट लिए,अनंत विस्तार पा जायेगा और तुम्हे हर तरफ सुनाई देगी उस हँसने वाली लड़की की उन्मुक्त हँसी ………………!

लेखक:अमरपाल सिंह ‘आयुष्कर’

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