Moral stories in hindi : “इसका बाप तो वैसे भी दूसरी के चक्कर में इसको छोड़कर जा चुका है!अब तू भी इसे मां के प्यार से मरहूम रखना चाहती है?”
छह साल की अबोध बच्ची लतिका दीवार से छिपती घबराई अपनी नानी सुमित्रा को अपनी माँ सुधा से झुनझुना कर पूछते सुनती रही जिसे महसूस था कि माँ की इन सब मुश्किलों का कारण किसी हद्द तक वो थी.
“तो क्या करूं मैं? सिवाए तुम्हारे पास आने के अलावा कोई और रास्ता था मेरे पास? इसका भूखा पैट प्यार से कैसे भरा जा सकता है बताओ? यहा एक वक़्त की रोटी नसीब नहीं हो रही हैं और तुम प्यार लुटाने की बात करती हो!”
” जब संभलते नहीं है तो क्यों कर लेते हो बच्चा?” सुमित्रा ने पल्ला झाड़ते हुए झल्लाहट में कहा.
“यही बात तो मुझे तुमसे पूछना चाहिए, क्यु किया मुझे पैदा? मेरी और मेरी बच्ची की हालत में तुम्हे कोई अंतर दिखता है?”
“लतिका को मैं देखूंगी तो सब्जी कौन बेचने जाएगा? पेट की भूख क्या बस तेरी है? मेरी नहीं? और तेरे को पहले से ही पता है कि मेरे सर पर छत नहीं है फिर क्या सोचकर उसे यहां ले आई? मैं खुद इनके यहां रात की चौकीदारी करती हूं, इसलिए यहां रहती हूं अब इसे कहां रखूंगी?”
जब कभी ऐसी तनाव वाली परिस्थितियां आन पड़ती तो लतिका को उसके पैदा होने पर गम होता, जो वो इस निर्दयी दुनिया में ना आती तो माँ को दर दर की ठोकर खाने मजबूर ना होना पड़ता, वो निर्दोष सहमी सोचती सुनती रही.
” तो मैं किसके पास जाऊं?अभी कुछ दिन तुम्हारी जगह मैं सब्जियां बेची आऊंगी, इस बीच हम अपने रहने का बंदोबस्त कर लेंगे, पर कुछ दिन इसे तुम्हें देखना ही पड़ेगा मां!” वक्त की मारी बेबस सुधा ने तेज आवाज और हताशा से भरी अपनी अंगारे सी लाल आंखे चौड़ी करते कहा.
इस कहानी को भी पढ़ें:
वो करती भी तो क्या? गरीबी पहले से ही इतनी थी, ऊपर से एक रात पति दूसरी औरत को ब्याह कर ले आया और सुधा को रातोंरात घर से धक्कामुक्की कर भगा दिया गया. उनके पास ना सर पर छत थी ना भूखे पेट को खिलाने खाने का एक दाना,जैसे तैसे राह चलते लोगों से गिड़गिड़ाते पैसे मांगकर अपनी मां तक पहुंच पाई थी वो.
“ठीक है मगर कुछ दिन उससे ज्यादा नहीं” सुमित्रा उसके आगे कुछ ना कह पाई और लतिका को लेकर अंदर चली गई.
सुधा और सुमित्रा की जिंदगी जब से शुरू हुई थी वे बस एक के बाद एक दुखों का पहाड़ तय करने मजबूर थे.
जब सुधा छोटी थी तो उसके बाबा दारु पी पी कर मर गये, सुमित्रा तब बहुत जवान थी, एक साथ सर पर इतनी जिम्मेदारियों का पहाड़ का वजन ढोढो कर, उसके अंदर जीवन के प्रति कड़वाहट और अपनी बंजर किस्मत पाकर निराशा भरने लगी थी, उसकी जैसी भी किस्मत थी मगर बदकिस्मती से बेटी सुधा का भाग्य भी खुशियों से दूर भागता देख उसे निराशा चारों तरफ से घेरने लगी.
अपनी इकलौती जिम्मेदारी सुधा की शादी के लिए दिनरात मेहनत कर बड़े जतन से सालों पैसे जोड़ती रही पर मिला भी तो एक बिगड़ा दामाद जिसने उसकी बची खुची उम्मीद ताश के पत्तों की तरह बिखेर दी. उनकी परिस्थिति तो सुधरने से रही, इन सबके बीच अब क्या लतिका का भविष्य भी उनके जैसा निराशापूर्ण बना रहा तो? यही सवाल उन दोनों को रह रहकर सताता.
“आज सुमित्रा सब्जी बेचने नहीं आई? उसकी तबीयत तो ठीक है?”
” वो ठीक है, मैं उनकी बेटी सुधा हूं”
“क्या हुआ इतनी परेशान क्यों दिख रही हो? मैं किरण दीदी हूं तुम्हारी मां से अक्सर मुलाकात होती रहती है” उन्होंने विनम्रता से कहा
” किरण दीदी! आपका नाम अक्सर सुनती रहती हूं, माँ आपको बहुत मानती है. उनकी ये चौकीदारी वाली नौकरी भी आपने ही लगवाई थी. “
” मैं अपनी तरफ से कोशिश करती हूं कि किसी के लिए अच्छा कर पाऊँ. तुम कुछ परेशान मालूम पड़ती हो सब ठीक तो हैं ना?” किरण उससे सब्जी खरीदते पूछती हैं.
इस कहानी को भी पढ़ें:
“आपको क्या बताऊं, हम गरीबों का कभी दुख खत्म हुआ है भला! दीदी इस जिंदगी ने रोज इतने नए क्लेश और आंसुओं से भर दिए हैं कि अब जिंदगी से नफरत होने लगी है.”
” सुधा हर मुश्किलों का हल निकलता है शांत दिमाग से सोचोगी तो जरूर राह मिलेगी” और सुधा ने अपनी पूरी व्यथा सुना दी.
“तुम परेशान मत हो! मैं एक संस्था को जानती हूं जो गरीब अनाथ बच्चों की परवरिश करते हैं, बच्ची को उनके सहारे छोड़कर अपनी जिंदगी पर ध्यान दे सकती हो! जब सब ठीक हो जाए तो उसे अपने पास वापस रख लेना!”
” दीदी ये गरीबी तो मुझसे मेरी मासूम बची तक छीन लेगी, मैं अपने कलेजे के टुकड़े को कैसे खुद से अलग कर पाऊँगी. “
“मैं समझ सकती हूं, तुम हिम्मत रखो और शाम को बेटी को लेकर इस पते पर पहुंच जाना. “
” ठीक हैं दीदी” शाम हुई और लतिका बताये पते पहुंच गई.
“आओ यहां बैठो बेटा!! वहां दीवार के पीछे कबतक छुपी रहोगी? ” किरण दीदी ने उसे पुकारती है.
लतिका को दीवार से अपना कवच बनाने अब आदत हो गई थी, जब माँ को बाप बेल्ट से चाहे जब मारा करता था वो दूर सहमी खड़ी हो बेबसी से माँ को कहरते देखती रहती. अपनी माँ की गैरमौजूदगी में अपने पिता द्वारा दी गई अनेकों बार शारीरिक यातनाओं से बचने कभी ये कवच उसे बचा तो लेता था पर कभी कभी,,,
अब हाल ऐसा हो गया था की किसी को भी देखती उसके भीतर हर किसी से असुरक्षित होने की भावना लिये आती, इसलिए वो जहा भी जाती सबसे खुद को कही छुपाकर चलती थी.
“आ लतिका ये हमारी मदद करेंगी” और वो दौड़ती अपनी माँ के आँचल में दौड़कर चुप गई.
” तो सुधा अपना घर आश्रम एक ऐसी संस्था जो तुम्हारी तरह हालात से मजबूर असक्षम परिवारों के बच्चों की सहायता करती है. उनकी अच्छी पढ़ाई, रहन-सहन, खाना-पीना और उनकी जिम्मेदारी तबतक उठाती हैं जब तक वे अपने पैरों में खुद खड़े ना हो जाए. मैं तुम्हें विश्वास दिलाती हूं इससे बेहतर लतिका के अच्छे भविष्य के लिए मैं तुम्हें कोई और जगह नहीं सुझा सकती.”
इस कहानी को भी पढ़ें:
सुधा शांत पड़ गई,,दुनिया की कौन सी माँ होगी जो अपनी आंख के तारे को खुद से दूर कर सके? लाचारी एक माँ की ममता को भी अग्निपरीक्षा से गुजरने मजबूर कर जाती है. शायद ईश्वर ने लतिका की किस्मत उनके जैसी दयनीय ना लिखी हो, ये सोच उसने उसे वहां भेजने मन बनाया और पूरी तसल्ली के साथ उस फाउंडेशन का संज्ञान लेकर लतिका का दाखिला करवा आई.
वो हमेशा साथ रहने वाली माँ बेटी के बीच अब आ गई थी बहुत दूरियां
ना आँसु पोछने वाला था कोई, ना सुन सकता था उनकी कोई सिसकियाँ
एक तरफ सुधा रोज जीती लतिका को याद कर,पर ले नई पाई सुध उसकी
काम कहो,गरीब की किस्मत या मजबूरी रोज भूखे पेट को पालने की
दूसरी ओर,,
लतिका को साक्षरता मिलती गई और वो मेहनत कर निखरने लगी
उसके खुसहाल जीवन की शुरुआत ने अखिरकार अब दस्तक दी
अनेकों बार कुछ समर्पित गैर सरकारी व सरकारी संस्थाएं जरूरतमंद लोगो के कवच बन सहायता करते हैं. ऐसे असंख्य गरीब,अनाथ, हैंडिकैप, बेसहारा बच्चे, बेघर किए वृद्ध जन व घायल जानवरों की सेवा कर औरों को मानवता का पाठ पढ़ाते है. उनके सही मार्गदर्शन मिलने के कारण ऐसे अनेक बच्चे जो दरदर की ठोकर खा गलत रास्तो पर जाने मजबूर हो सकते थे उनका जीवन ऐसे कुछ समर्पित समाजसेवियों के कारण सम्भल जरूर जाता है.
आपकी
रुचि पंत