Moral stories in hindi: न्यूजीलैंड के ऑकलैंड शहर का अगस्त महीना ठिठुरन भरा था… सूर्य देव के दर्शन दुर्लभ हो रहे थे… पूरे दिन घर में रहने के कारण थोड़ी देर खुली हवा में सांस लेने के लिए निवेदिता चाय का कप हाथ में ले फ्लैट की बालकनी में जाकर बैठ गई.. इतनी ठण्ड में कप के पदार्थ की गर्माहट भी कम हो गई थी..
समुद्र में बनती बिगड़ती लहरों को देखकर अतीत के उताव चढावों में खो गई… आज उसे माँ की बहुत याद आ रही थी… मां के मुख से उसने कई बार उनके जीवन के उतार चढ़ाव की कहानी सुनी थी । आज मां का अतीत उसके मन को बहुत उद्वेलित कर रहा था… वह मां के जीवन के सुख दुःख़ को शब्दों में पिरोना चाहती थी.. और फिर लिखने बैठ गई मां के अतीत का यथार्थ….
उसकी माँ उर्मिला देवी अपने माता पिता की तीन संतानों में सबसे बड़ी थी। दो छोटे भाई माता पिता पांच लोगों का मध्यम वर्गीय सुखी परिवार था 18 साल की उर्मिला देवी, 12 साल का भाई ओमकार और 8 साल का भाई स्वीकार.. पता नहीं विधि का विधान कब क्रूर मोड़ ले.. एक दिन दुर्घटना में बच्चों ने अपने माता पिता को खो दिया.. उर्मिला देवी सबसे बड़ी थी। सब रिश्तेदारों ने
सहायता करने के लिए हाथ खड़े कर दिए अब घर और दो छोटे भाइयों की जिम्मेदारी उनके कंधों पर आ गई। उर्मिला देवी पढ़ने में तेज थीं। बारहवीं में अच्छे अंक लाकर B. Sc के प्रथम वर्ष में प्रवेश लिया था। B. Sc के बाद B. Ed करके वह टीचिंग लाइन में जाना चाहती थी.. नियति ने उनके सब ख्वाबों को बिखेर दिया… घर चलाने और छोटे भाइयों को पढ़ाने के लिए उन्होंने एक लैब में रिशेप्सनिस्ट की नौकरी शुरू कर दी…
भाइयों का अच्छा भविष्य बनाने के लिए अपना विवाह न करने का निश्चय किया… भाइयों को अच्छा पढ़ाया लिखाया और पढीं लिखी लड़कियों से विवाह करा कर वह अपने दायित्व से निवृत हो गईं … अब दोनों भाई अपने परिवार के साथ मस्त थे.. बहन के त्याग की किसी को परवाह न थी.. पिता के बनाए बड़े घर में दोनों भाइयों ऩे कब्जा कर लिया।
कुछ दिनों बाद ही उर्मिला देवी अपने ही घर में अपने आप को नितांत अकेला और उपेक्षित महसूस करने लगीं… उन्होंने अलग रहने का फैसला कर लिया… एक कमरे को मकान किराए पर लेकर रहने लगीं। नियति ने फिर रास्ते को मोड़ दिया… हुआ यूँ… उसके ऑफिस में काम करने वाली गर्भवती राधिका के पति का अचानक देहांत हो गया ..
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दूसरी बार जुड़वां बेटियों की मां बनी। एक बेटा पहले से ही था। पति की मृत्यु के बाद अब वह तीन बच्चों की परवरिश करने में असमर्थ थी। उर्मिला देवी का ममत्व जाग उठा और उन्होंने कानूनी तौर पर अपनी सखी की एक बच्ची को गोद ले लिया.. नाम रखा “निवेदिता”… नवजात बच्ची के साथ नौकरी करना असम्भव था…
नौकरी छोड़कर जमा पूंजी से एक साल घर चलाया.. सामाजिक, आर्थिक, मानसिक अनेक कठिनाइयों का सामना करना पड़ा..बच्ची के देखरेख के साथ घर चलाने के लिए कुछ काम करना जरूरी था। घर एक कॉलेज के पास था। घर से टिफिन बनाने का काम शुरू किया.. शुचिता पूर्ण घर जैसा खाना कॉलेज के बच्चों को पसंद आने लगा..
कुछ सालों बाद इन्कम बढ़ गई, काम अच्छे से चल पड़ा, बुद्धिमान निवेदिता( मैं ) अच्छे स्कूल में पढ़ने लगी… जब मैं बड़ी हुई मां को दिनरात कठिन मेहनत करते देखती तो सोचती बड़े होकर मैं मां का बहुत ध्यान रखूंगी.. उन्हें कुछ काम नहीं करने दूंगी। मां कहती – “तू पढ़ लिखकर काम करेगी तब मैं महारानी की तरह बैठकर राज करूंगी।”
भविष्य में गोते लगाक़र निवेदिता वर्तमान में आकर लिखती है…
मुझे क्रिएटिव वर्क करने का बहुत शौक था। बारहवीं कक्षा अच्छे नंबरों से उत्तीर्ण करने के बाद मैं स्कॉलरशिप लेकर स्नातक करने ऑकलैंड आ गई । ऑकलैंड आने से पहले मैं हमेशा माँ से कहती थी माँ! मैं जल्दी से पढ़ाई पूरी करके नौकरी करूँगी फिर तुम हमेशा ही मेरे साथ रहोगी… मैं तुम्हें वह सब सुख देना चाहती हूँ जिसकी तुम अधिकारी हो..
बस थोड़े ही दिन की बात है। दो साल पढ़ाई पूरी करने के बाद मुझे एक अच्छी नौकरी का ऑफर लेटर मिला.. ज्वाइन करने में अभी एक महीने का समय था.. पार्ट टाइम काम से बचाए पैसों से मैंने जानें आने की तीन टिकट खरीदीं.. तीन दिन बाद अपने देश भारत जाने के लिए रवाना हो गई फ्लाइट में बैठक़र सोचने लगी..
जल्दी ही मां को ऑकलैंड अपने साथ ले जाऊंगी अब मां मेरे साथ रहेगी टूरिस्ट वीजा पर आती जाती रहेंगी। मैं सारे सुख उनके दामन में डाल दूंगी…कुछ साल विदेश में काम का अनुभव लेकर फिर भारत में शिफ्ट हो जाऊंगी..फिर तो मां हमेशा मेरे साथ रहेगी ।
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फ्लाइट से उतरकर टैक्सी लेकर सीधे घर के लिए रवाना हुई , वहाँ जाकर देखा दरवाजे पर भीड़ लगी थी किसी की अंतिम यात्रा की तैयारी की जा रही थीं … वह कोई और नहीं मेरी माँ थी… हृदयगति रुक जाने के कारण कल रात को उन्होंने अंतिम सांस ली.. आस पड़ोस के लोगों क़ो मेरे आने की खबर मां ने पहले ही दे दी थी.. सब मेरा ही इंतजार कर रहे थे.. मां के पार्थिव शरीर को देखकर मैं शून्य में खो गई… आंखें पत्थर बन गई..
लिखते लिखते निवेदिता सिसक सिसक कर रोने लगी… मेरी माँ के जीवन में सुख के इंतजार में दुःख़ की एक लम्बी कहानी थी.. और अब मैं इस दुनियाँ में अकेली हूं.. आज मेरे पास सब कुछ है पर माँ नहीं… अपनों के बिना ये सुख किस के साथ साझा करूँं ? यह सुख भी निरर्थक लगता है… यही दुःख़ मन को बैचेन कर देता है…आज इस सुख दुःख के संगम से मेरा मन अशांत है कहते हुए निवेदिता बुत बनी देर तक लहरों के शोर में खो गई …
स्व रचित मौलिक रचना
सरोज माहेश्वरी पुणे ( महाराष्ट्र)
#सुख दुःख़ ” साप्ताहिक प्रतियोगिता हेतु