Moral stories in hindi: सरलाजी को दो घ॔टे हो चुके थे। यहाँ आये हुए किन्तु उनके आँसु थे कि रूकने का नाम ही नहीं ले रहे थे। वो वृद्धाश्रम के कमरे में पलंग पर लेटी एक टक खिडकी से बाहर देख रही थी और आँसू अविरल उनकी आँखों से बहे जा रहे थे। बाहर नीम के पेड पर एक चिडिया निरन्तर तिनके ले जाकर घोंसला बनाने का प्रयास कर रही थी। उनकी स्मृति के पन्ने फड फडा कर उनके सामने उनका अतीत खोल रहे थे।
शादी के बाद सरलाजी विजय जी के साथ इन्दौर आगई। किराये के मकान उन्हें पसंद नहीं थे कारण वे बचपन से ही बड़े-बड़े क्वार्टर में रही थी उनके पिताजी एक बड़े सरकारी अधिकारी थे। उनकी इसी इच्छा का सम्मान करते हुए विजयजी जो कि बैंक में मैनेजर थे लोन लेकर मकान बनाने की प्रक्रिया शुरू कर दी। उन्होंने बडे चाव से मकान बनवाया एक एक ईंट को लगते देखा ।
वे स्वयं खडे हो कर काम देखती थीं। विजयजी ने एक-एक चीज सरीता जी की इच्छानुसार लगवाई। उनके सपनों का घरौंदा बन कर तैयार हो गया। जब वे इस मकान मे रहने आए तब यश मात्र तीन साल था। वह भी बडा खुला खुला घर देखकर प्रसन्न था।कारण दो कमरे के मकान मे वह ढंग से खेल भी नहीं पाता था ।
चारों तरफ खुशियाँ ही खुशियाँ बिखरी पड़ी थी। बड़े ही सुखचैन से यश के बाल्यकाल के क्रिया कलापों के देखते दिन गुजर रहे थे ।किन्तु नियति को शायद सरला जी की खुशी नही सुहाई। एक दिन शाम को घर आते समय विजय जी की एक सड़क दुर्घटना में आन दी स्पाट मृत्यु हो गई। सरला जी तो खबर सुनकर संज्ञाहीन हो गई।
यश दस साल का था कुछ समझ नहीं पा रहा था कि क्या हो गया । वह कभी माँ को रोते देखता तो कभी घर में आए लोगों को। जो होना था वो तो हो गया। अब सरला की के सामने अपने साथ साथ यश की जिन्दगी भी थी जिसे उन्हें सवाॅरना था। कुछ दिन बाद सब क्रिया कर्म होने के बाद एक एक कर सब रवाना हो गए।
अब उनके साथ सास ससुर और मातापिता ही रूके थे। समस्या थी कि इतने छोटे बच्चे के साथ वे अकेली कैसे रहेगीं। वे लोग उन्हे अपने साथ लेजाना चाहते थे कुछ दिन सुसराल में कुछ दिन मायके में रहकर समय निकल जाएगा। किन्तु सरला जी ने दृढ़ता से मना कर दिया कि में अपना घर छोड़कर कहीं नही जाऊँगी।
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इस घर में मेरे विजय की यादें बसी हैं। में उन यादों के सहारे रह लूगीं, किन्तु घर कदापि नहीं छोडूगीं । माता-पिता चले गए सास ससुर कुछ दिनों के लिए रूक गए।
अब उन्होंने नौकरी के लिए प्रयास किया विजय जी के बैंक मै ही उनहें नौकरी मिल गई और इस तरह उन्होंने अपना पूरा जीवन यश के नाम समर्पित कर दिया उनके जीवन का उद्देश्य केवल यश को पढ़ा लिखा कर एक अच्छा इंसान बनाना था।सास ससुर एवम मातापिता दोनों ने ही उन पर दूसरी शादी करने का दबाव बनाया,किन्तु वेअपने बेटे और पति की यादों से दूर नहों जाना चाहती थी सो राजी नहीं हुई।
यश जब तब उन्हे परेशान, रोते देखता तो उनके ऑसू पोंछते हुए कहता माॅ आप मत रोओ मै बड़ा होकर आपकी बहुत सेवा करूँगा? आपको हर खुशीदूंगा। क्षण भर रूकी,सोचा बेटे ने मुझे क्या दिया -ये ऑसू। यश पढलिख कर एक कम्पनी में उच्च पद पर कार्यरत हो गया।
उसने अपने साथ ही काम करने वाली एक सहयोगी से शादी की बात की जिसे सरला जी ने सहज ही स्वीकृति देदी क्योकि ‘बेटे की खुशी ही उनकी खुशी थी ।दो साल में वे एक प्यारे से पोते की एक दादी भी बन गई। अब तो उनका दिन पार्थ के साथ कब बीत जाता पता ही नहीं चलता। बेटा बहू तो सुबह ही निकल जाते काम पर पिछे वह और पार्थ रह जाते। गृहस्थी का सारा काम उन्होंने अपने कंधो, पर सम्हाल रखा था। अब बच्चे का कार्य भी।
वे थकान महसूस करने लगी थीं। दवी जबान दो-चार बार उन्होंने बेटे बहू से कहा भी उन्हें बहुत कमजोरी लग रही है। तबियत ठीक नह रहती। किसी डाक्टर को दिखा दे। किन्तु उन्होंने कोई ध्यान नहीं दिया। अब वे पार्थ को उतने अच्छे से नहीं सम्हाल पा रही थीं। शायद यही बात वहू को नागवार लग रही थी। सो उसने धीरे-धीरे उनका घर में
घूमना बन्द करवाया। मम्मी जी अब आप अपने कमरे में ही रहा कीजिए। पता नही कब इन्फेक्शन दूसरों को भी लग जाए पार्थ से तो अब आप दूर ही रहे कहीं वह बीमार न पड जाए। उन्हें समझ नहीं आ रहा था ऐसा क्या हो गया। यश भी खींचा खींचा सा रहता। अभी इन बातों को एक माह ही हुआ होगा कि यह घर निकाला।
जिस बेटे के लिए उन्होंने अपने सुख – दुःख की परवाह नहीं की, रात-दिन एक करके जिसकी परवरिश की, अपना पूरा जीवन जिसको समर्पित कर दिया उसी बेटे ने उस समर्पण का कर्ज चुकाया मुझे मेरे ही घरोंदे से निकाल कर।
कहते है मूल से व्याज प्यारा होता है। तो क्या मैं अपने ही पोता को बीमार करना चाहूँगी। क्या मैं बेटे बहू का बुरा चाहूँगी। फिर उन्होंने मुझे ये सजा किस बात की दी।
सरला जी अपने आपको स्थिर करने की कोशिश कर रहीं थी किन्तु मन यादों के झरोखों से अतीत में ही झाॅक रहा था।
शिव कुमारी शुक्ला
स्व रचित मोलिक अप्रकाशित