Moral stories in hindi : बचपन से गुड्डे गुड़ियों के साथ खेलते हुए अपराजिता का मन इतना समझ चुका था कि बड़े होने के बाद घर छोड़कर ससुराल जाना पड़ता है और उसे ही अपना समझना पड़ता है।
अपने घर में अपने मम्मी,ताई जी, चाची और दादी सभी को देखकर समझती गई कि यह उनका ससुराल है और इसे ही अपना मानना पड़ता है।
समय के साथ अपराजिता बड़ी होती गई।
उसके शारीरिक हारमोंस बदलते गए, उसकी चाहत जवान होती गई और उसे विवाह का मकसद समझ में आने लगा।
अन्य लड़कियों की तरह वह भी अपने मन में सपने देखने लगी कि उसका भी एक ससुराल होगा,जहां उससे सबसे ज्यादा प्यार करने वाला उसका पति होगा और उसके माता पिता और परिवार होंगे जो उसे उसके हर सुख दुख में उसके साथ खड़े होंगे।
यह सपना कोई गलत नहीं था। सपनों के साथ अपराजिता बड़ी होती गई। देखते-देखते उसके कजिन्स, दोस्त सभी की शादी होती चली गई।
सभी अपने ससुराल से आकर शादी के चटपटे किस्से सुनाया करती तो अपराजिता का मन सपने बुनने लगता था।
अपराजिता की भी शादी हुई।शादी के बाद जब वह ससुराल पहुंची तो उसके मन में भी हजारों उमंगे थे।हजारों सपने थे।
शादी की गहमागहमी के बाद जब सारे रिश्तेदार धीरे धीरे चले गए।
तब उसकी सासु मां ने उसे बुलाकर कहा
” बहू यह तुम्हारा ससुराल है, यहां तुम्हारी अपनी इज्जत, तुम्हारे मां बाप की इज्जत और हमारी इज्जत तीनों की जिम्मेदारी तुम्हारे ऊपर है।
न हम लोगों का मान झुकने ना पाए और न ही तुम्हारे माता पिता का।”
” ठीक है मां!, ऐसा ही होगा।” अपराजिता ने कहा।
अपराजिता के मां माता-पिता ने भी उसे विदा करते भी यही कहा था
“बेटी,अब से तुम्हारा घर ससुराल है ।तुम्हारे पास दो घर है एक यहां एक वहां, दोनों की इज्जत मिट्टी में ना मिल पाए।”
अपराजिता आश्चर्यचकित और हैरान रह गई। उसे समझ में नहीं आया कि वह ऐसा क्या नहीं करे या क्या करें जिससे दोनों घरों का सम्मान बना रहे!
धीरे-धीरे घर के सारी जिम्मेदारी अपराजिता के कंधे पर आती चली गई।घर, बाहर, रसोई,
सभी का आना-जाना, स्वागत सत्कार सब उसी के ऊपर आ गया।
संयुक्त परिवार था इसलिए अपने पति के साथ खुलकर उसे बात करने का भी अधिकार नहीं था। न ही ज्यादा घूमने फिरने का।
उसके सारे सपने बिखरते चले गए और वह एक मशीन की तरह अपनी जिम्मेदारी निभाती चली गई।
सिर्फ इसलिए कि उसके मायके की इज्जत ना जाए और ससुराल की बेइज्जती ना हो, इसी चक्कर में वह पिसती चली गई।
शादी के बहुत दिनों बाद अपराजिता अपने मायके आई इस बार वह 15 दिन रुकने का सोच कर आई थी।
उसी समय उसके बचपन के दोस्त गुंजन भी वहां आई हुई थी।
दोनों सखियां बचपन के दोस्त थीं। दोनों अपने दुख सुख जी खोलकर बतियाया करती थी।
गुंजन का चेहरा दूर से ही चमक रहा था, बताने की जरूरत नहीं थी कि वह अपने ससुराल में कितनी खुश थी।
वह भी संयुक्त परिवार में रहती थी। सभी लोग मिलजुल कर उसका साथ देते थे।अकेले उसके ऊपर कोई जिम्मेदारी नहीं थी।
गुंजन ने उससे कहा
” जब भी मेरा जन्मदिन होता है या शादी की सालगिरह मनाती हूं, मेरे पास इतने सारे गिफ्ट आ जाते हैं कि मैं क्या बताऊं. मुझे कोई टेंशन ही नहीं होती। मैं साल भर ना तो अपने लिए कोई कपड़ा खरीद ती हूं ना अपने लिए मुझे कुछ सोचना पड़ता है।”
अपराजिता की आंखों में आंसू आ गए।वह चाहकर भी अपनी तकलीफ उससे नहीं बता पाई, आखिर वह उसका अपना ससुराल था! अपने ससुराल की शिकायत वह कैसे कर सकती थी।
वह भी तो एक संयुक्त परिवार में रहती थी पर घर की सारी जिम्मेदारी उसके ऊपर थी।
घर के सारे मेहमानों की आवभगत, देन लेन सब की जिम्मेदारी उसके और उसके पति की थी क्योंकि उसके ससुर अब रिटायर कर चुके थे और सासू मां अपनी सारी जिम्मेदारियां अपने बेटे और बहू के कंधे पर डालकर निश्चिंत हो गई थी।
अपराजिता को याद आया एक बार उससे अपने पति से जिद किया था महाकाल उज्जैन मंदिर के दर्शन के लिए।
सासू मां बीच में कूद पड़ी थी उन्होंने कहा था “अगर मंदिर जाओगे तो पूरे परिवार को लेकर जाना होगा.. यह कौन से संस्कार इसके मां-बाप ने दिए हैं जो तुम इसे लेकर अकेले घूमने जाओगे..?”
अपराजिता और उसके पति दोनों ने बहुत समझाया कि यदि पूरे परिवार को लेकर जाएंगे तो बहुत ज्यादा खर्च आएगा।
इसी गुस्से में उन्होंने अपराजिता को उसके भाई की सगाई में मायके आने नहीं दिया था, जबकि ससुर के रिटायरमेंट के बाद पूरे परिवार का खर्च अपराजिता के पति ही उठा रहे थे।
इसके बावजूद सासु मां ने अपनी तानाशाही जारी कर दिया था।
अपराजिता और उसके पति की हिम्मत नहीं थी कि वह अपने हिस्से की सुख के लिए भी सोच सकें!
” यह कैसा ससुराल! जिस शब्द से तरुणाई का कोमल मन सुगंध से लवरेज हो जाता है उसकी असलियत कितनी कठोर होती है!”
अपराजिता की आंखें भर आईं…।
उसने अपने मन में कहा
“अपनी-अपनी किस्मत… अपना अपना ससुराल!!”
प्रेषिका– सीमा प्रियदर्शिनी सहाय
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