Moral stories in hindi : सुधीर जी रिटायर होने वाले थे अगले महीने।पत्नी रमा अत्यंत सुलझी हुई और व्यवहारिक महिला थीं। अन्य मांओं की तरह बच्चों पर अतिरिक्त मोह कभी नहीं दिखाया उन्होंने।
रिटायरमेंट के पहले तीनों बेटों की पढ़ाई और शादियों की जिम्मेदारी से निपट चुके सुधीर जी सीना फुलाकर कहते”देखो रमा,बहुत कर ली मैंने नौकरी,और तुमने घर गृहस्थी।अब रिटायर होकर पैर पर पैर धरे दोनो बेटे-बहू का सुख भोगेंगे बस।
तुम अपना पूजा -पाठ संभालना बस।”रमा जी को उनकी यह बात ज़रा भी अच्छी नहीं लगती।हर बार कहतीं थी वह”देखो जी,ये रिटायरमेंट वाला राग ना गाया करो हरदम।जब तक शरीर चल रहा है,क्यों किसी के आसरे रहना।
ज़िंदगी भर दौड़-धूप करते रहे,अब जी खोलकर अपने मन की करेंगे हम बस।बच्चों से मिलने जाएंगे और वो आएंगे हमारे घर,हम हमेशा के लिए कहीं नहीं जाने वाले रहने।”पत्नी की बातों से चिढ़ जाते थे,सुधीर जी।
कह भी दिया था कितनी बार”कैसी मां हो तुम?दुनिया में तुम्हारे जैसी कठोर मां नहीं देखी मैंने।इतनी आसानी से कोई बच्चों का मोह त्याग सकता है भला?”
रमा जी शांत होकर समझातीं”दुनिया में कुछ भी असंभव नहीं।जो चलन चल रहा है ना आजकल,बच्चे बड़ों की जिम्मेदारी नहीं लेना चाहते।उनकी अपनी ज़िंदगी में किसी की दखलअंदाजी पसंद नहीं आजकल के बच्चों को।रहने दीजिए ना उन्हें अपनी ज़िंदगी में खुश। देखिए,साथ रहकर मन से दूर होने से,दूर होकर साथ रहना अच्छा है।”
शर्मा जी कभी जीत पाए थे, शर्माइन से जो अब जीतते।चुपचाप रह जाते खिसियाकर।सोचते कहां तो सोचता था कि जीना हराम कर देगी, बच्चों के पास जाकर रहने के लिए,और कहां यह मन बनाकर बैठी है ना जाने का।
तीनों बेटे अच्छा कमाते थे।बहुएं भी पढ़ी-लिखी संस्कार वान और नौकरी करने वाली मिली थीं। माता-पिता का बहुत आदर करते थे।सुधीर जी को यही बात खलती थी,कि उनके पास जाकर रहने में क्या दिक्कत है श्रीमती जी को?
खैर , देखते-देखते वह दिन भी आ गया जब रिटायरमेंट का भव्य आयोजन किया बच्चों ने। जान-पहचान वालों, रिश्तेदारों और आस-पड़ोस वालों के लिए पार्टी रखी गई।हार पहनाकर श्रीमान और श्रीमती शर्मा का अभिवादन किया गया।
इस कहानी को भी पढ़ें:
यादों का पिटारा – प्रियंका सक्सेना
बच्चों ने अपने उद्बोधन में आदर्श माता-पिता की उपाधि से विभूषित किया।सुधीर जी गद्गगद हो रहे थे।उनकी अपेक्षा के प्रतिकूल रमा जी कोई भी प्रतिक्रिया नहीं दे रही थी।रात में तीनों बेटों और बहुओं ने आदर के साथ अपने माता-पिता के सामने प्रस्ताव रखा कि चार-चार महीने तीनों बेटों के पास रहेंगे वे।किसी के ऊपर अतिरिक्त बोझ नहीं पड़ेगा और बच्चों को भी दादा-दादी का सानिध्य मिल जाएगा।
सुधीर जी को तो मानो बिन मांगी मुराद मिल गई।बिना देर किए बोले”मुझे मंजूर है यह प्रस्ताव। अच्छी-खासी पेंशन मिलेगी मुझे।जिसके पास भी रहेंगे,हम दोनों का खर्च दे देंगे। तुम्हारे ऊपर बोझ नहीं बनेंगे।क्यों रमा?”
रमा जी इस प्रत्याशित प्रस्ताव के लिए मानो पहले ही प्रस्तुत थीं।अपनी आवाज ज़रा दुखी कर के बोलीं”देखो बेटा,मेरा क्या है?ना मेरे कोई अतिरिक्त शौक हैं और ना ही मित्र मंडली का जमावड़ा।दो वक्त की रोटी और कपड़ों के अलावा मेरी कोई जरूरत ही नहीं।
पर ये जो तुम लोगों के पापा हैं ना,हिटलर से कम नहीं हैं।कभी भी खाने में समझौता नहीं करते। छः बजे चाय में देरी हो जाए तो महाभारत शुरू कर देतें हैं।बहुएं नौकरी वाली हैं,उन्हें क्या यह सब पसंद आएगा?रोज़ नए-नए पकवानों की फरमाइश तुम्हारी मां पूरी करती आई है,अब क्या बहुओं के बस में होगा यह सब,इतनी मंहगाई में??
वो भी तो थक-हार कर आने से आराम करना चाहेंगी,और इनको तो दोपहर में औरतों का सोना पसंद नहीं।”रमा जी और भी बहुत कुछ बोलीं उस दिन।सुधीर जी को लगा उनके कानों में कोई पिघला सीसा डाल रहा है।इतनी बुराइयां हैं मुझ में।इतना जहर भर कर रखा था,सालों से।बहू-बेटों के सामने गुनाहगार बना दिया मुझे।
चालीस साल साथ रहकर भी औरत का त्रियाचरित्र नहीं समझ पाया मैं।हद है, धिक्कार है मुझ पर।सारी ज़िंदगी जान से ज्यादा जिस जीवनसंगिनी को प्रेम किया,उसने भरे बाजार मेरी धज्जियां उड़ा दी।इस रमा को तो मैं नहीं जानता।
मेरी रमा तो पूजती थी मुझे, रिटायर होते ही असली रूप दिखा दिया इसने।रात को चुपचाप कमरे में मुंह फैलाए रमा की तरफ पीठ करके सो गए सुधीर।रमा ने चुटकी लेते हुए पूछा”सौंफ नहीं लेंगे शर्मा जी आज मिश्री के साथ?”
दूसरी तरफ मुंह किए जवाब दिया उन्होंने”ज़हर है तो दे दो तुम मुझे।अच्छी बेइज्जती करवाई तुमने मेरी।ख़ुद सती सावित्री बन गईं और मुझे हिटलर बना दिया।कब मैंने तुम्हें परेशान किया है,सोने या पकवान बनवाने के लिए?”
रमा जी जोर से हंसते हुए बोलीं”लड़ ही रहे हो जब,मेरी तरफ मुंह करके लड़ो।तुम्हारा तमतमाया चेहरा देखने का बहुत मन कर रहा है जी।”
इस कहानी को भी पढ़ें:
“रिश्तों का तड़का” – अनिता गुप्ता
“क्या,पागल समझा है मुझे?इतना बैर अपने मन में कहां छिपा कर रखा था आज तक।मुझे तुम्हारा यह कैकेयी वाला रूप पहले तो नहीं दिखा।रिटायर जब तक नहीं हुआ था, कौशल्या बनी हुई थी तुम तो।”
दोनों की आवाजें बच्चों के कमरे में भी जरूर पहुंच रही होगी,सोचकर रमा जी मुस्कुराए बिना नहीं रह सकीं।जैसा उन्होंने सोचा था ठीक वही हुआ।सुबह रसोई में बड़ी बहू चाय बनाते हुए पूछने लगी”मम्मी जी,कल रात पापा जी इतना गुस्सा क्यों हो रहें थे?पहले तो आप दोनों के बीच ऐसी बाराबाती नहीं देखी हमने।”
मंझली बहू भी पास आकर बोली”,हां , मम्मी जी आपने कल रात ठीक ही कहा था,पुरुष को समझना बड़ा कठिन है।दिखाएं सीधे होतें हैं पर होते कुछ और हैं”।
छोटी बहू ने कुछ नहीं पूछा।रमा को आश्चर्य हुआ।नज़रें मिलते ही छोटी बहू शालिनी चल दी वहां से।रमा को यह बड़ा अजीब लगा।शालिनी बहुत समझदार थी तीनों में।दोपहर के खाने में फिर से माता-पिता को साथ चलने की समझाइश देने लगे बेटे।
बहुएं ख़ामोश थीं,शायद रात को ससुर का रौद्र रूप देखकर डर गईं थीं।सुधीर जी काफी उखड़े हुए तो थे ही रमा के व्यवहार से,बच्चों से कहा”,अभी मुझे बहुत सारे काम करने हैं।पी एफ, ग्रैच्युटी का पैसा आना है।पोस्ट ऑफिस,बीमा के भी चक्कर लगाने हैं।पता नहीं कितने महीने लग जाएं?
तुम लोग अभी जाओ, फुर्सत होते ही हम बता देंगे अपने आने की खबर तुम लोगों को।”,रमा की तरफ नफरत से देखकर बोले।रमा ने आंख बंद कर ईश्वर का धन्यवाद किया,और तभी शालिनी से उनकी आंखें मिलीं।शालिनी हतप्रभ होकर निहार रही थी ,रमा को।रमा को संदेह तो पहले ही था उस पर,अब तो पूरा विश्वास है गया कि शालिनी को बेवकूफ बनाना आसान नहीं।
जल्दी से अपनी नजरें फेरकर उठ गईं वह।शाम को चाय के साथ पकौड़ों की फरमाइश की थी बच्चों ने।रमा जी ने सुधीर जी से टमाटर लाने को कहा तो बड़ी बहू बोली”,रहने दीजिए ना मम्मी जी,अचार के साथ खा देंगें हम।बहुत मंहगें हैं टमाटर।
“,तब तक सुधीर जी बाज़ार जा चुके थे।रमा जी ने एक और तीर फेंका”,अरे बेटा,मैंने क्या कहा था कल?खाने में कोई भी समझौता नहीं करेंगे तुम्हारे पापा जी।चाहे पांच सौ रुपए किलो भाव हो जाए,चटनी तो रोज ही चाहिए उन्हें दोनों टाइम।”
बड़ी बहू आंख फैलाकर बोली”बाप रे! मम्मी जी,इतने मंहगें टमाटर की चटनी और वो भी दोनों टाइम?”
इस कहानी को भी पढ़ें:
कोई भी परिवार परफेक्ट नहीं होता – गीतू महाजन
“हां बेटा,अब तो रिटायर हो गएं हैं। फुर्सत ही फुर्सत है उन्हें।जीभ बड़ी चटकारी है उनकी।खाने का मन जाए जो चीज एक बार फिर क्या दाम और क्या बाजार।जैसे भी हो,ख़ुद ही लेकर आएंगे।
“रमा जी का काम हो चुका था।अब रात की प्रतीक्षा थी उन्हें।शाम को पकौड़े और चटनी खायें हुए खुद सुधीर जी भी अनभिज्ञ थे कि इस टमाटर ने उनकी खराब छवि को और प्रमाणित कर दिया है।
तीनों बेटे एक -एक कर बोले”ठीक है , मम्मी -पापा ,हम लोग और यहां रुक नहीं सकते, छुट्टियों की कमी के कारण।आप अपने काम निपटा कर जब मर्जी हो बता दीजियेगा।हम टिकट भिजवा देंगे।कल हम लोग निकल रहें हैं।
“सुधीर जी को लगा मानो कलेजा मुंह को आ जाएगा।कितनी आस लगाई थी, बच्चों के साथ रहने की।इस औरत ने सब मटियामेट कर दिया।बोले भविष्य में कभी ले चलने के लिए साथ में उनके यहां,छोड़कर नहीं चला गया तो देखना।
खाने के बाद रसोई में बर्तन साफ करवाती हुई शालिनी ,रमा जी के पीछे आकर खड़ी हुई और बोली”, मम्मी जी, आपने थैंक यू बोल दिया?”
“किसे थैंक यू बोलना था मुझे,बेटा?”रमा भौंचक्की रह गई।”टमाटरों को मम्मी जी,टमाटरों को।”
“अरे!टमाटरों को क्यों?”रमा ने फिर पूछा तो शालिनी बोली”,आप अपने स्वभाव के उलट व्यवहार कर रहीं हैं इस बार मम्मी जी।मुझे आए बहुत कम समय ही हुआ है,पर आपके निश्छल प्रेम को समझने की बुद्धि है मुझमें।
पापा के साथ आपकी झूठी लड़ाई खूब समझती हूं मैं।आप कभी शिकायत ना करने वालों में से हैं,और अब अपने पति की बुराई हम लोगों के सामने।आप नहीं आना चाहतीं ना अपने बेटे-बहू के घर रहने?”
शालिनी जिसे रमा जी ने जन्म नहीं दिया,कितनी अच्छी तरह समझा उसने उन्हें।ख़ुद की औलाद भी जिस मन को ना पढ़ पाई,कल की आई इस लड़की ने वे सारे अवाचित शब्द कैसे पढ़ डाले?गले से लगा कर शालिनी के माथे पर चूमते हुए बोली”,ठीक कहा तुमने बेटा,मैं नहीं जाना चाहती हमेशा के लिए अपना घर छोड़कर।
इतने साल एक-एक रिश्तों को प्रेम के धागे में पिरोकर यह घोंसला बनाया।बच्चों को जितना हो सकता था सब कुछ दिया। तुम्हारे पापा जी आंधी-तूफान,दिन -रात देखें बिना नौकरी करते रहे।हमने ज्यादा कुछ संचय नहीं किया,पर अफसोस नहीं।
इस कहानी को भी पढ़ें:
उम्मीद – विनय कुमार मिश्रा
तुम्हारे पापा के आत्मसम्मान की लाज मैंने ही संभाली है अब तक,तो आगे भी मुझे ही संभालना है।मैं जानतीं हूं बेटा ,समय बदल रहा है।समय के साथ रिश्तों की परिभाषा,अपेक्षा, दायित्व सभी बदल रहें हैं।हमारे सर पर ज़िंदगी भर जो जिम्मेदारियों का बोझ था,उसने हमारा यौवन छीन लिया हमसे।कभी साथ बैठकर दो बातें नहीं कर पाए हम।
कहीं दूर घूमने नहीं जा पाए, सास-ससुर को अकेला छोड़कर।सटे हुए कमरे में डर के चूड़ी उतार कर सोई हूं ,ससुर ना सुन लें।अपने बच्चों को दूध में पानी मिलाकर पिलाया है ननदों की शादी के कर्ज के बोझ में।मैं नहीं चाहती वही सब तुम लोगों को सहना पड़े।हमारा शरीर तो चल रहा है अभी।
कब तुम लोगों की किसी बात पर तुम्हारे पापा को ठेस पहुंचे,कब हम तुम्हारी लाचारी बन जाएं,कब देर तक सोने की वजह से तुम लोगों का पारा चढ़ जाए,कब हमारी पुरानी सोच तुम्हारी गृहस्थी में दीमक बन जाए?इसी बात से डर-डर कर नहीं जीना चाहती मैं बेटा।
तुम लोगों से ज्यादा अपेक्षा करने लग जाएंगे तो तुम्हारी उपेक्षा का दंश सहन नहीं कर पाएंगे।हर जगह बहू और सास के बीच झगड़ों की कहानियों में मैं अपना और तुम लोगों का नाम भी शामिल नहीं करवाना चाहती।जब नहीं चलेगा जी,तुम्हारे पास ही आऊंगी पापा जी के साथ।तब खूब खातिरदारी कर लेना।”दूर रहकर आपस प्रेम बना रहे ,ना कि पास रहकर मजबूरी में हम एक दूसरे को झेले।
टमाटर के बढ़े भाव ने बेटे-बहुओं को अपने पिता के मंहगे शौक से डरा दिया था।रमा ने शालिनी के सामने टमाटरों की तरफ देखा और हंसकर बोली”थैंक यू टमाटर।अब हमें अपने साथ ले जाने की जिद कोई नहीं करेगा।
शुभ्रा बैनर्जी