लज्जा – पूजा मनोज अग्रवाल

लज्जा का विवाह करीब 17 वर्ष पहले दीनदयाल से हुआ , दीनदयाल पेशे से किसान था , शादी के सत्रह वर्ष बीत गए पर आज तक भी वह औलाद का मुंह ना देख पाया था । लज्जा पिछले कई वर्षों से गांव वालों और अपने घर परिवार वालों से बांझ होने के ताने सुनती आ रही थी । किस्मत में औलाद न थी तो वह घर के ढोर डांगरों पर अपना प्रेम और मातृत्व लुटा देती थी ,

अपने बच्चो की भांति गाय और बैलों की सेवा करती थी । कुछ समय पहले लज्जा की सास सीढ़ियों पर से गिर जाने की वजह से बिस्तर पर आ गई थी । लज्जा घर की अकेली बहू थी , इस कारण अम्मा को अकेले छोड़कर वह अपने मायके भी ना जा पाती थी । खैर लज्जा ने इस सबको नियति मान कर स्वीकार कर लिया था और वह हंसते मुसकुराते अपना जीवन यापन कर रही थी ।

एक दिन सुबह – सुबह लज्जा के पिताजी का फोन आया और वह कुछ परेशान सी हो गई ,,, दीनदयाल के खेत से लौटते ही लज्जा उससे बोली ,” सुनो जी,,, पिता जी का फ़ोन आया है, अभी – अभी जौनपुर वाली चाची जी का स्वर्गवास हो गया है , ना चाहते हुए भी मुझे वहां आना – जाना करने में दो दिन का समय तो लग ही जाएगा ।”

लज्जा के स्वर और चेहरे पर उमड़े भावों से उसकी चिंता स्पष्ट ही झलक रही थी । इधर दीनदयाल अपनी ही मां का खयाल रखने की बात से परेशान हो उठा था । वह खीजते हुए हुआ बोला ” अम्मा की देख रेख तो बहुत मुश्किल काम है , और फिर अम्मा की बेकार की बड़बड़ कौन सुने भई,,, । अरे , तुम्हारी चाची काहे मर गई , इससे तो अम्मा ही चली जाती ,” ।

दीनदयाल की बात सुनकर लज्जा को काटो तो खून नहीं , वह गुस्से से बोली ,”अरे काहे अम्मा को मार रहे हो ,” जानती हूँ अम्मा को इस हालत में छोड़कर जाना बहुत मुश्किल है , परंतु इस बार तो जाना ही पड़ेगा वार त्योहार ,शादी – व्याह तो सब छोड़ सकते हैं,,, पर दुख – दर्द में रिश्ता निभाना ही पड़ता है । जो इस बार में ना गई तो समाज में बहुत बात बन जाएगी ।

और सिर्फ एक ही दिन की तो बात है , तुम क्यों चिंता करते हो , मै अम्मा को नहला धुला कर खाना खिलाकर , जौनपुर की बस पकड़ लूंगी ,,,तुम बस कल का दिन अम्मा को कैसे भी संभाल लेना परसो सबेरे तो मैं वापस लौट ही आऊंगी ।”

परंतु जिस प्रकार लज्जा ने सरलता से दीनदयाल को सब कुछ कह दिया था , वास्तविकता में वह सब दीनदयाल के लिए इतना आसान होने वाला न था ।



लज्जा ने अपने मायके जाने की पूरी तैयारी कर ली थी और अगले दिन सुबह – सुबह उसने जल्दी उठकर अम्मा को नहला कर नाश्ता करा दिया , और फिर उनसे विदा लेकर जौनपुर के लिए रवाना हो गई । बाकी उनके खाने पीने और दवा पानी के बारे में उसने दीन दयाल को सभी बातें समझा दी थी , परन्तु वह मां और बेटा दोनो के व्यवहार से भली भांति परिचित थी और वह यह भी जानती थी कि दीनदयाल भी अम्मा को सहन ना कर पाएंगे ।

लज्जा के जाने के तीन-चार घंटे बाद अम्मा ने बिस्तर गीला कर दिया जब गीले बिस्तर में पड़े – पड़े वह परेशान हुई तो दीनदयाल को बुलाने के लिए उसने जोर-जोर से चीखना शुरू कर दिया ।

अम्मा की चीख पुकार सुनकर दीनदयाल बड़े बुझे मन से आया और बोला ,”अरे अम्मा ,,, काहे पड़ी-पड़ बडबडा रही हो,,,तनिक तो मुंह बंद कर लिया करो अब आखिरी वक्त है तुम्हारा सो काहे ईश्वर को याद न करती हो,,,”।

गीला बिस्तर देखकर दीनदयाल ने मुंह नाक चढ़ाकर अम्मा के नीचे का बिस्तर बदल दिया । बिस्तर बदलते हुए दीनदयाल ने लज्जा के बारे में पहली बार यह सोचा की वह कैसे इतना सब कुछ आराम से करती आई है , न ही कभी दीन दयाल और ना ही कभी किसी अन्य से उसने इस सबकी की शिकायत की थी ।



कुछ देर बाद अम्मा के खाने का समय हुआ तो दीनदयाल ने अम्मा को सुबह की बनी हुई खिचड़ी दही के साथ परोस दी ,,। अम्मा को दही हजम ना होता था , दीनदयाल को यह बात पता न थी ,और अम्मा का बुढ़ापे का शरीर खिचड़ी दही हजम ना कर पाया और उनका पेट खराब हो गया । ,,,बस अब क्या था अब मिनट मिनट अम्मा अपने कपड़े खराब कर देती ,,।

दीनदयाल परेशान हो उठा और अम्मा पर खीजने लगा ,,,” जीवन मे कम परेसानी है काये अम्मा,,,,जो तू और बढ़ाये रही है ,,अपनी उमर का लिहाज कर थोड़ा कम खाय ले ना ,,,” पर अम्मा तो इस उम्र में उसी नादान और भोले बच्चे जैसी हैं जिसे हर थोड़ी देर में कुछ न कुछ खाने को चाहिए ,,,शायद किसी ने सही ही कहा है कि बुढ़ापे में व्यक्ति एक बालक समान हो जाता है जिसे मां जैसा प्रेम दुलार और सहायता की जरूरत होती है ,,।

अम्मा की श्रवण शक्ति कुछ कम हो गई थी तो वह कुछ कम सुन पाती थी ,,,परंतु बेटे के हाथों के स्पर्श से ही वह समझ गई कि अपने ही बेटे और ने उसे बोझ मान लिया है । आज अम्मा को अपनी बहू लज्जा पर बहुत प्यार और तरस आ रहा था , कैसे वह हर पल अच्छे से उनकी तीमारदारी करती रही है ।

कभी लज्जा ने अम्मा की सेवादारी में कोई कमी नहीं की थी ,,, बल्कि किसी काम में देर – सवेर हो जाने पर अम्मा उस पर बुरी तरह बरस पड़ती थी । इस पर भी लज्जा अम्मा की बातों का कुछ बुरा ना मानती थी ,,।



आज अपने ही बेटे के कर्कश स्वर का प्रहार अम्मा को एहसास दिला रहा था ,,, कि बहू का दर्जा खुद के बेटे और बेटी से भी बड़ा है ,,,, दोनो बेटियां भी अपने- अपने घर में मस्त रहा करती ,,, कभी महीनों में वह उनसे एकाध बार उनसे मिलने आई होंगी ।

दीनदयाल ने डॉक्टर को बुलवा कर अम्मा को दवा दी परंतु अम्मा ने वह दवा नहीं खाई ,,,ना ही रात में उन्होंने खाना खाया । उनका मन खुद के बेटे के अप्रत्याशित व्यवहार से ऐसा खिन्न हुआ कि मानो वह अपनी जीवन गति को यही समाप्त कर देना चाहती थी ।

अगले दिन सुबह जब दीनदयाल ने अम्मा की जब कोई चीखो पुकार ना सुनी तो उसने अम्मा को जगाने के लिए हाथ बढ़ाया , पर यह क्या उनका शरीर तो अकड़ चुका था,,, उनके दोनो हाथ जुड़े हुए थे , ,,,मानो वे अपनी बहू से हाथ जोड़कर माफी मांग रही हो । आज वह अपनी चिरकालिक परेशानियों से मुक्त हो गई थी और लज्जा को भी अपने बन्धन से मुक्त कर गई थी।

दीनदयाल ने तुरंत लज्जा और अपनी दोनों बहनों को अम्मा के स्वर्ग सिधारने की सूचना दे दी थी। घंटे दो घंटे के अंतराल से सभी दीनदयाल के घर पहुंच गये। दोनों ननदो ने अपनी माँ के इस हालात का ठीकरा लज्जा के सिर पर फोड़ दिया । ननदो के कटु वचन सहन करने की हिम्मत उसमे ना थी । वह चुपचाप अपने आंसुओं को नियंत्रित करके बैठी रही ,,, वह जानती थी की उसकी आँख से आँसू गिरते ही ,,, तीखे तानों का प्रहार उसे सहन करना होगा ।

बेजान तन – मन से अम्मा के अंतिम संस्कार के रीति-रिवाजों को निभाती रही,,,, अम्मा के अनायास चले जाने से और आखिरी वक्त में उनसे न मिल पाने से वह बहुत दुखी थी ,,,,पर वहां ऐसा कोई न था जो उसकी व्यथा समझ सकता था ,,,।

पूजा मनोज अग्रवाल 

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