तिजोरी – अरुण कुमार अविनाश

पत्नी के देवलोक गमन करने के बाद – एक दिन पत्नी के गहनें बेचकर – एक भारी – मज़बूत – अभेद – तिजोरी खरीद लाया।

अपने कमरे की दीवार में फिक्स करवाने के बाद – घण्टों दरवाज़ा बन्द कर आराम से सोता रहा।

शाम हुई तो ज़ेवर के खाली डिब्बे तिजोरी में जमाया। कुछ पुराने अखबार भरें फिर, अच्छी तरह से तिजोरी बन्द कर – चाभियाँ सम्भालता हुआ घर से बाहर निकल गया।

सत्तर साल की उम्र है मेरी।

सड़सठ बसन्त देखने के बाद पिछले ही माह पत्नी मुझसे जुदा हो गयी।



उसकी तेरहवीं तक तो कुछ पता न चला – चूंकि घर भरा- भरा था – नाते रिश्तेदारों का आना-जाना लगा हुआ था। मुझें न एकाकीपन लगा – न सहचर के जाने पर उत्तपन हुई शून्यता का बोध हुआ।

उसके कारण ज़िन्दगी का मेला था– जाकर भी एक आखिरी बार मेला लगा गयी थी वह।

कहने को तो भरा पूरा परिवार है मेरा–दो बेटे और दो बेटियां – बेटे बेटियों का भी अपना परिवार है–बड़ा नवासा तो खुद एक बच्चे का बाप है।

जीवन में आजीविका का साधन व्यपार रहा था। बहुत लाभ कमाया – बहुत नुकसान सहा। कुल मिला कर सुख का हिंडोला भी झूला और दुख की चटनी में रोटी भी डुबो कर खायी।

बच्चें बड़े हो गए तो धीरे-धीरे उन्हें ज़िम्मेदारी सौंपता गया – जीतने वे दक्ष होते गए मैं उतना ही व्यपार से मुक्त होता गया।

पिछले दस सालों से मैंने ऑफिस जाना छोड़ दिया है –

पर जब कभी बच्चों को व्यवसायिक सलाह या सहायता की ज़रूरत होती है तो उनकी पहली पसंद मैं ही होता हूँ।

आखिर अनुभव बोलता है।

दोनों दामाद भी वेल सेटल है।

किसी को किसी चीज़ की कमी नहीं है।

पत्नी के गुजरने के पन्द्रह दिन बाद से ही मुझें अनुभव होने लगा कि मेरी तरफ किसी की तवज़्ज़ो ही नहीं है।



रुपये से खरीदी जाने वाली वस्तु की कमी नहीं थी परन्तु बहुओं में सेवा की भावना नहीं है।

समय पर खाना नहीं। दवाई की याद कोई दिलाता नहीं। हाथ-पांव टूट रहे हो तो कोई दबाता नहीं।

जो काम पत्नी सहज भाव से करती थी और मैं उसका उपकार तक नहीं मानता था–उसका हर समर्पण मुझें याद आने लगा था – चूंकि याद आने लगा तो उसकी कमी भी मुझें कल्पाने रुलाने लगा।

विधवा स्त्री को इन बातों का अहसास नहीं होता।

बहुवे किचन में, अपने बच्चों में ही सास को उलझाए रखती है और जीवन गुज़र जाता है।

वैसे भी, कभी कोई कमी  – कोई बात चुभी भी तो स्त्री सोचती है कि पहले पति की उदण्डता बर्दास्त करती ही थी – अब बच्चों की अवहेलना बर्दास्त कर लेती हूँ।

विधुर पत्नी के जाने के बाद एकांतवास में चला जाता है।बेटे कमरे में आते भी है तो डयूटी समझ कर। आखिर वे भी थके हारे होते है। उनकी अपनी मज़बूरियां होती है।

आज महीना भर हो गया है पत्नी से जुदाई का। ऐसी जुदाई कि वह वापस नहीं आ सकती। उससे मिलने की एक ही सूरत है कि मुझें खुद ही उसके पास जाना होगा।

अभी और जीने की अभिलाषा नहीं पर पलायनवादी की तरह मृत्यु को अंगीकार करना – ये भी तो उचित नहीं।

घर से निकल कर मैं दरिया के पास पहुँचा।

जेब से तिजोरी की चाभियाँ निकाली।

अंतिम बार – नयी तिजोरी की नयी चमचमाती चाभियों को गौर से देखा – मेरे ओंठो से एक आह सी निकली फिर मैंने अपने सुखद भविष्य के लिये उन चाभियों को दरिया में उछाल दिया।

मन उदास था।

काश !

मौत – पत्नी को नहीं पहले मुझें ले जाती – पर अफसोस– ऐसा हो न सका।

बेवजह दीवानों की तरह– बिना सोचे-समझें सड़कों पर  भटकता रहा – अपनी टांगे तोड़ता रहा।

कितनी ही दूर चला आया था मैं।

रात के अँधेरे में मैं वापस अपने घर लौटा।

अंतिम परिणाम आना अभी बाकी है परंतु आसार दिखने लगे है।

नयी तिजोरी ने परिजनों में उत्सुकता जगा दी है।

आज मुझें मेरा कमरा साफ सुथरा मिला है।

मेरी कपड़ों की आलमारी तक साफ की गयी है।

ज़रूर तिजोरी की चाबी की तलाश में पूरा कमरा खंगाला गया था।

चाबी न मिली तो कमरा दुरुस्त कर शराफत दिखायी गयी थी।

उनकी उम्मीद ज़िंदा रहे इसलिये ही तो – चाभियाँ मैंने दरिया के हवाले की थी।

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