एकादशी में महालक्ष्मी की वापसी – शुभ्रा बनर्जी 

अनुज के साथ पहली बार जब दिल्ली आई थी मैं,आंखों से आंसू रुकने का नाम ही नहीं ले रहे थे।एक भरे पूरे संयुक्त परिवार में पली बढ़ी मैं,कैसे अकेले एक नए शहर में रहूंगी?कौन ध्यान रखेगा मेरा?ताऊजी,ताजी,चाचा,चाची,बुआ,दादा दादी सबकी लाड़ली थी मैं।सबके लाड़ प्यार ने मुझे नकचढ़ी बना दिया था,ऐसा मम्मी का आरोप था मुझ पर।

शादी तो ताऊ जी ने अपने पहचान के घर में पास ही करवाई थी,पर अचानक से इनका ट्रांसफर हो गया दिल्ली।सो सासू मां ने मुझे परिवार चलाने की सारी नसीहतें देकर अनुज के साथ भेज दिया दिल्ली।कहने लगीं नई नई शादी है बहुरिया।अपनी गृहस्थी संभालो,पति के साथ रहो।तीज त्यौहार में हम लिवा लाएंगे तुम्हें।

अनुज पहले ही आकर रहने का मकान देखकर गए थे।पूरे रास्ते अनुज दिल्ली की हलचल का बखान करते रहे।मैं बेमन से सुनती रही।स्टेशन पर टैक्सी में बैठते ही अनुज ने चेतावनी देते हुए कहा”सुनो विभा!घर पहुंचते ही सुलोचना आंटी के पैर छूना।मैंने आंखें बड़ी करके देखा तो उन्होंने समझाते हुए कहा “मकान मालकिन हैं ना वो। ब्राह्मण भी हैं।बहुत पूजा पाठ करती हैं।उन्हें अच्छा लगेगा।

“हम्म”मैंने इतना ही कहा।

टैक्सी एक घंटे में एक बड़े से मकान के बाहर रुकी।अनुज ने कहा लो विभा अपना घर आ गया।मैंने बेमन से जवाब दिया “अपना घर नहीं,किराए का मकान है यह”मैं थोड़ी ना मालकिन हूं”।

टैक्सी से उतरने ही वाले थे हम कि एक सुंदर से हांथ ने दरवाजे को खोला।दूसरे हांथ में पूजा की थाली लिए एक खूबसूरत औरत खड़ी थी।माथे पर गोल बिंदी,गोरा रंग,पहनावा बड़े जतन से किया गया लगता था।”पैर रखो बहुरिया”!लगा जैसे आदेश हो मेरे लिए।

मैं टैकृसी से उतरी तो उन्होंने नजर उतारी हमारी। ड्राइवर को शगुन के कुछ पैसे भी दिए अलग से।फ़िर धीरे धीरे मेरा हांथ पकड़ कर मेरा गृहप्रवेश करवाया।अजीब सा सम्मोहन था उनके रूप में।अजीब सा आकर्षण था उनकी बड़ी बड़ी आंखों में।मैं मंत्रमुग्ध उनके पीछे चलती रही।

घर के अंदर काफी चहल पहल थी।पता चला उन्हों काॅलोनी की सभी महिलाओं को आमंत्रित किया था,मेरी मुंहदिखाई के लिए।




मैं भावविभोर होकर उनका कौतूहल देख रही थी।अनुज ने मुझे इशारे से याद दिलाया पैर छूने की बात।

मैं सर पल्लू लेकर जैसे ही उनके पैर में झुकी,उन्होंने मुझे सीने से लगा लिया।उनकी धड़कनों में जैसे कोई सुप्त ज्वालामुखी धधक रहा था।मेरे सिर पर हांथ रखकर उन्होंने सैकड़ों आशीर्वाद दे दिए। सभी ने कुछ ना कुछ उपहार दिए।सुलोचना आंटी ने अपने हाथों से बुनी एक सुंदर चादर दी मुझे।

किसी राजमहल की राजमाता की तरह चलती हुई वो हमें ऊपर वाले हिस्से में लेकर गईं और बोलीं बहुरिया ये है तुम्हारा कमरा,किचन,बालकनी।नीचे के हिस्से में मैं रहती हूं।

काफी थकान होने के कारण हम जल्दी सो गए।सुबह की गुनगुनी धूप खिड़की पर आते ही मेरी नींद खुली।नीचे देखा तो राजमाता बगीचे में से फूल चुन रही थीं।गीले बाल तौलिए में लपेटे हुए,माथे पर बड़ी सी बिंदी।गीले चेहरे पर धूप ऐसी चमक रही थी मानो कुंदन ।

हमारे नाश्ते खाने की व्यवस्था उन्हीं की तरफ से थी कई दिनों तक।

सुलोचना आंटी मेरी ऐसी देखभाल करतीं कि मुझे ना ससुराल याद आया और ना मायका।

हर शाम अपने बगीचे के मोगरे तोड़कर गजरा बनाकर देती मुझे,और कहीं साड़ी के साथ ढीला सा जूड़ा करना ।फ़िर गजरा लगाना।पति को बहुत प्यार आता है,इस रुप पर।मैं शर्मा जातीय तो वो हंस देतीं।

सारा दिन वो ऐसे व्यस्त रहतीं जैसे किसी नौकरी में लगीं हों।अपनी दिनचर्या से कभी समझौता नहीं करती थीं वो।उनके कमरे में कहानियों की किताब,नाॅवल,शायरी की किताबें डायरी भरी पड़ी थीं शैल्फ में।बहुत सारी डायरियां भी बुक मार्क लगाकर रखीं हुईं थीं।मुझे समझने में देरी नहीं लगी कि आंटी को साहित्य में भी रुचि है।शायद लिखतीं भी हैं।ओ माय गॉड!इस उम्र में भी इतनी जागरूक हैं वो।अपडेट हर तरह से।पर सभ्य और शालीन।

धीरे धीरे दिन गुजारने लगे।मेरा भी एक बेटा हो गया था।मैं कुछ दिन मायके और ससुराल होकर आई थी।

मेरे बेटे की मालिश ,नहलाने का जिम्मा उन्होंने अपने ऊपर ले लिया।चार साल का होक्षगया मेरा अवि।ये नाम आंटी ने ही दिया था।क्योंकि उनके बेटे का नाम अविनाश था।जो आस्ट्रेलिया में अपनी पत्नी “मारथी और बेटे के साथ रहता था।पिछले साल से सुन रही थी ,इस दीवाली आएगा भारत।

दीवाली को अब कुछ दिन ही रह गए ।आंटी ने पूरे घर की कायापलट करवा दी।ऊंची ऊंची झालरों से छत ढंक गया।अविनाश का कमरा किसी होटल के कमरे की तरह सजाया था उन्होंने।

ढेरों पकवान,अचार ,बड़ी,पापड़ और भी ना जाने क्या क्या बनाकर रख रहीं थीं।बेटा पांच साल बाद जो आ रहा है।पोते के जन्म के समय गई थीं वो आस्ट्रेलिया।बस तब से फोन पर ही मुलाकात होती रही।

आज सुबह से आंटी के किचन से ऐसी खुशबू आ रही थी कि पास पड़ोस वाले भी चिढ़ा रहे थें उनको।




दोपहर टैक्सी आकर रुकी।अविनाश उसकी पत्नी और पोता उतरे ।आंटी ने स्वागत किया ,नज़र उतारी और उन्हें अंदर लेकर आईं।मैं पीछे पीछे पानी का लोटा पकड़े चल रही थी।आंटी ने अविनाश से मेरा परिचय करवाया।अनुज को तो अविनाश जानता था।फोन पर घर से संबंधित बातें होती रहतीं थीं।शाम होते ही आंटी का चेहरा बुझा बुझा दिखने लगा।मैंने पूछा तो बोलीं “क्या मैं इतनी बूढ़ी हो गईं हूं कि खुद की देखभाल नहीं कर सकती?”

अविनाश जिद कर रहा है बहुरिया मुझे साथ ले जाने की।मुझे नहीं जाना अभी।मेरे बगीचे के पेड़ों पर फल आने वालें हैं।गिलहरी का घर बर्बाद हो जाएगा।चिड़ियों के घोंसलों में से बच्चे का जाएगा कौआ।

मैं तुम्हारे अंकल की यादों को छोड़कर कहीं नहीं जाऊंगी।बड़े चाव से बनवाया था उन्होंने इस घर को।घर के कागजात मेरे नाम से बनवाएं थे।मेरे हांथ में कागजात देते हुए कहा था उन्होंने।”अब हुईं तुम असली महारानी।मेरे घर की महालक्ष्मी हो तुम।”

आंटी का गला भर आया।मैंने उन्हें समझाया आंटी अपने बेटे के पास ही तो था रहीं हैं ना आप।उसे भी तो आपकी चिंता रहती है।आपका पोता आपको मिस करता होगा ना।कुछ दिनों के लिए जाइए घूम कर आइये।

आंटी ने बड़ी बड़ी आंखें उठाकर मुझे देखा और बोलीं”हां ये बहुरिया मैं कितनी स्वार्थी हो गई थी।मेरे बच्चे को भी तो मेरी जरूरत है।”अच्छा अच्छा कह देती हूं अविनाश से,बना ले मेरा भी टिकट।”

पूरे काॅलोनी में आग की तरह फ़ैल गई खबर कि सुलोचना आंटी बेटे के साथ जा रहीं हैं।सुबह से ही लोगों का तांता लगा था।कोई कुछ लेकर आया था कोई कुछ।आंटी हंसते हुए बोलीं “अरे क्या मैं हमेशा के लिए जा रहीं हूं,जो इतना मातम मना रहे हो?मैं जल्दी आ जाऊंगी वापस।तुम लोगों का पिंड नहीं छोड़ने वाली मैं।और हां मनोहर बगीचे की देखभाल अच्छे से करना।चिड़ियों को दाना समय पर देना।एक भी पल अगर चोरी हुआ मेरे बगीचे का,मैं आकर जेल भिजवा दूंगी सबको।मेरे पीछे मेरी विभा बहुरिया ही मालकिन रहेगी ।समझ गए ना।”

विभा हंसते हुए सोच रही थी यह जो राजसी ठाठ है आंटी का ,यही उन्हें हिम्मत देता है। ऐश्वर्य उनकी रग रग में छलकता है।

अंदर आकर विभा ने देखा,अनुज काफी परेशान हैं‌

“क्या हुआ अनुज?”

“विभा !मेरी समझ में नहीं आ रहा ,क्या करूं?”

अरे हुआ क्या बताओ तो”?




“विभा ये जो अविनाश है ना,आंटी का बेटा।इस घर को मुझे बेचना चाहता है।मेरे अलावा आंटी और किसी को ये घर लेने नहीं देंगी न।साइन ही नहीं करेंगी पेपर में। अविनाश कल आया था मेरे पास बैंक में।बड़ी मिन्नतें कर रहा था।इस घर को बेचकर वो हमेशा के लिए आंटी को ले जाने वाला है।उसकी हिम्मत नहीं हो रही आंटी को बताने की।मुझे भी मना किया है उन्हें बताने के लिए।मैं इतने पैसे एक साथ तो नहीं दे पाऊंगा।वो राजी हो गया है‌।अभी दस लाख देना होगा।फ़िर मैं लोन लेकर अगले महीने तक ही दे पाऊंगा।तुम क्या कहती हो विभा?हमें खरीद लेना चाहिए ये घर या नहीं?

तुमने पहली बार इस घर की ड्योढ़ी पर खड़े होकर कहा था मुझे “अपना घर नहीं अनुज,यह किराए का मकान है”।अब मैं तुम्हें इस घर की मालकिन बनते हुए देखना चाहता हुं।बोलो!चुप क्यों हो?कैसा है अविनाश का आफर‌?

वो सब तो ठीक है अनुज,पर आंटी को धोखे में रखकर घर बेचना क्या सही है?कितनी यादें जुड़ी हैं उनकी इस घर से,वो सच कभी बर्दाश्त भी न कर पाएं शायद।मुझे तो कुछ अच्छा नहीं लग रहा।”.हम क्या कर सकतें हैं,उनका घर,उनका बेटा।अब अगर वो खुद ही नहीं बताना चाहता उन्हें,तो हम कैसे बताएं?

अनुज की बात पर मैं सहमत थी।

अगले दिन ही तो एकादशी है।आंटी की टिकट भी तो कल की ही है।पूरी रात मैं अपने कमरे की खिड़की से पोर्च में लगे झूले को देखती रही।आंटी मुझे झूले प्रश्र बैठकर किताब पढ़तीं हुई दिखीं,कभी कुछ लिखतीं हुईं दिखीं।

सुबह से ही घर पर काफी भीड़ आ गई।आंटी की विदाई जो थी।टैक्सी आ गई।आंटी ने आज सफेद और पीली कांजीवरम की साड़ी पहनी थी।माथे पर वही कत्थई बड़ी बिंदी। महालक्ष्मी मानो साक्षात मेरे सामने खड़ी थीं।जैसे ही मेरी नज़र उनसे मिली,मैं जोर जोर से रोने लगीं।”अरे!ये क्या बहुरिया!मैं हमेशा के लिए थोड़े जा रहीं हूं।मुझे वापस आकर ओपन वाला एग्जाम भी तो देना है दिसंबर में।तेरे भरोसे छोड़ा है सब।संभालना सब।रो मत।मैं आ जाऊंगी ना जल्दी।”मुझे उनसे लिपटने का मन हुआ,मन किया कि उन्हें जोर से पकड़कर कहूं नहीं आंटी अब आप कभी नहीं आ पाएंगी।आपका अविनाश धोखे से आपको हमेशा के लिए लेकर जा रहा है।पर अनुज की आंखों ने मुझे ऐसा कुछ भी करने से रोका।मैंने कहा दिया अनुज से मैं नहीं आ रही एयरपोर्ट।वो अकेले ही जाए और आंटी को विदा कर आए।

टैक्सी जाने के काफी समय तक धूल उड़ती रही मेरी आंखों के सामने।हमारी संवेदनाएं कितनी भावशून्य हो जाती हैं।हम कैसे इतने स्वार्थी हो जातें हैं।?

कब मेरी आंख लग गई रोते रोते पता भी नहीं चला।

अरे शाम होने को आई।अनुज नहीं लौटे अब तक।आंटी की फ्लाइट तो कब की चली गई होगी।तो फिर अनुज कहां रह गए?उफ्फ।फोन भी नहीं उठा रहे।क्या हुआ होगा?हे भगवान!क्या करूं?मैं जानें क्या बाहर?

पर जाऊंगी कहां? एयरपोर्ट जाकर क्या करूंगी?

अनुज ने तो आज छुट्टी भी ले रखी है।

किससे पूछूं,उफ्फ!ऐसा तो कभी नहीं करते अनुज।आज क्या हुआ ऐसा।

रोते हुए कवि को गोद में उठाकर मैं झूले पर जा बैठी।चिंता के कारण मेरा दिल जोरों से धड़क रहा था।एक तो आंटी के जाने का दुख और अनुज की कोई खबर नहीं।

सूरज डूब चुका था। गोधुलि बेला की लालिमा छत से होकर पोर्च तक आने लगी।तभी टैक्सी के रुकने की आवाज से मैं चौंक गई।अरे इस वक्त कौन आया होगा।मायके या ससुराल‌से तो किसी के आने की बात नहीं थी।फ़िर




मैं खड़ी होकर संभल ही रही थी कि अनुज के साथ पीली कांजीवरम साड़ी में लिपटी सुलोचना आंटी महालक्ष्मी की तरह गृहप्रवेश कर रहीं थीं।

“आंटी आप!अरे आप की तो फ्लाइट थी ना आज ?”

आंटी ने आकर मुझे गले लगा लिया और कवि को मेरी गोद से लेकर अपनी गोद में लेकर झूले पर बैठ गईं।

मैं कुछ समझ ही नहीं पा रही थी।तभी अनुज ने कहा अरे विभा खड़ी ही रहोगी या अदरक वाली चाय भी बनाओगी।आज एकादशी की पूजा भी तो है।चाय दो जल्दी मैं बाज़ार से सामान खरीद लाता हूं।”

मैं किचन में जाकर चाय बनाते हुए सोचने लगी क्या हुआ ?आंटी गईं क्यों नहीं?

तभी अनुज ने बताया”विभा आंटी की फ्लाइट समय पर ही थी।तभी मेरे एक दोस्त का फोन आया था।उसकी मम्मी को इमरजेंसी में बाॅम्बे लेकर जाना है।घर पर उसकी वाइफ थी बस।तो मैं चला गया उनको लाने एयरपोर्ट।मैं आंटी से माफी मांगकर गया था।मेरे दोस्त की वाइफ और मम्मी को फ्लाइट में पहुंचाने में काफी वक्त हो गया।एन्टरेन्स गेट अलग अलग था ना।

पर पता है विभा एयरपोर्ट से लौटते समय पता नहीं क्यों मुझे आंटी का चेहरा अपनी आंखों के आगे दिखने लगा।मैं वापस उसी जगह गया जहां आंटी से मिला था।तुम विश्वास नहीं करोगी विभा,आंटी उसी कुर्सी पर बैठी न मिली जैसी मैं छोड़कर आया था।मैंने दौड़कर उन्हें झिंझोड़कर जब पूछा आप गईं नहीं अविनाश के साथ?उन्होंने बड़ी मासूमियत से जवाब दिया। फ्लाइट बहुत लेट है ना बेटा अनुज।तो अविनाश बहुत और पोते को लेकर खरीददारी करने गएं हैं,यहीं एयरपोर्ट पर।साथ में अपना सामान भी ले आएं हैं,कि मैं अकेली कैसे देखूंगी इतना सामान।बस मैं अपने सामान को रखकर यहीं बैठी न हूं।हिंदी भी नहीं ज़रा सा।अब तू आ गया है ना बेटा।मुझे वाशरूम लेकर चलेगा क्या?मैं समझ ही नहीं पा रही थी ,सामान छोड़कर कैसे जानें।

बोलते बोलते अनुज फूट फूटकर रोने लगे।रोते रोते बताया “विभा जब मैंने पता किया तो जाना अविनाश की फ्लाइट सही समय पर रवाना हो चुकी थी।पैसेंजर लिस्ट में आंटी का नाम था ही‌नहीं।

तब तक आंटी वापस आ गईं।तो मैंने उनसे झूठ कहा कि तुम्हारी तबीयत खराब हो गई है,आंटी के जाने से।आंटी को वापस आना पड़ेगा।और वो मान भी गईं कि मैंने अविनाश को वापस भेज दिया है।”

मैंने ठीक किया ना विभा?

“बिल्कुल ठीक किया अनुज।वैसे भी “सुलोचना सदन”सुलोचना आंटी के बिना सूना हो जाता।”

तुमने एकादशी के दिन महालक्ष्मी को घर में लाकर बहुत अच्छा उपहार दिया है मुझे।आंटी को कभी पता न चलना चाहिए कि उनका बेटा घर बेचकर उन्हें छोड़कर हमेशा के लिए चला गया है।”

हां !विभा एकदम सही बोला तुमने।

मैं चली महालक्ष्मी की पूजा की तैयारी करने।

शुभ्रा बनर्जी 

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