कान्ती के पैर मानो हवा में उछाल भर रहे हों। वह एक बच्चे को गोद में और दूसरे बच्चे का हाथ पकड़े बदहवासी मेंं रेलवे स्टेशन की ओर जा रही थी। आज से कोई एक साल पहले गोविन्द जब परदेश जाने लगा था तो बेटी पुन्नी ने उसके शरीर से लिपटते हुए कहा था, बापू! अपने साथे हमहूँ का लै चला। “नाहीं बिटिया, तो का कहाँ लै चली हुंआ न रहै के ठेकाना, न खाय के ठेकाना औरु जब कमाय जाब तब तू कहाँ रहबी?” तौ बापू जब दिवाली मां घरे आऊ तौ हमरे खातिर नवा कपड़ा हमार लाल वाली फ्राक लेते आऊ। “हाँ, हाँ हम आपन बिटिया के खातिर खूब ढेर सारे खिलौना औरु कपड़ा लै के आइब तब तक तू आपन माई के लगे रहा।” इतना कहकर गोविन्द कमाने परदेश चला गया था। रोज एक-एक दिन किस तरह परिवार का कटा यह तो वही जाने।
कभी-कभी चिट्ठी और पैसा भेजता रहता था गोविन्द। घर में बूढ़े माँ-बाप और गोविन्द का परिवार ही रहता था। अकेला कमाने वाला और घर में छ:लोग खाने वाले थे।
आज चौदह महीना बाद जब परदेश से कमाकर गोविन्द खुशी-खुशी अपने घर वापस आ रहा था तो स्टेशन पर छूटती हुई ट्रेन पर चढ़ने लगा। अचानक उसके हाथ से ट्रेन का हैंडिल छूट गया और वह प्लेटफार्म पर गिरकर बेहोश हो गया था। जी आर पी पुलिस व रेलवे के डाक्टरों ने जांच पड़ताल कर मृत घोषित कर दिया था। अगली ट्रेन से उसका मृत शरीर आ रहा था,और परिवार को सूचित कर दिया गया था।
दधीचि रेलवे स्टेशन पर ज्यों ही ट्रेन रुकी और उससे गोविन्द का शरीर उतारकर नीचे लाया गया, कान्ती उसके ऊपर पछाड़े खाकर गिर पड़ी और बिलखने लगी। हे पुन्नी के बापू, हमरी ओर देखा हमका कहिके सहारे छोड़ गये। वह दृश्य बड़ा ही ह्रदय विदारक था। आस-पास खड़े लोग भी रो पड़े।
अभी कान्ती विलाप कर ही रही थी कि अचानक! पाँच साल की पुन्नी पिता के कानों में चीखकर बोली, उठा बापू उठा, तू हमरे खातिर नये कपड़ा दिवाली मां लावे के कहे रहा,औरु पटाखा अब के देई बापू अपने नन्हें-नन्हें हाथों से पिता के सीने पर जोर-जोर से थाप देने लगी। आर पी एफ वाले बच्ची को उठाकर मुंह पर कपड़ा ढकने ही वाले थे कि गोविन्द के शरीर में हरकत आ गयी तो रेलवे स्टेशन पर मौजूद डॉ. को बुलाया गया उसने चेकअप कर बताया कि अब ये खतरे से बाहर हैं।
स्वरचित एवं मौलिक
विजय कुमारी मौर्य “विजय”लखनऊ,