जानकी और ओमी के पास सब कुछ था बस कमी थी तो एक औलाद की लोग जानकी को बांझ कहते और ओमी को दूसरे विवाह की सलाह देने से बाज़ नहीं आते आखिर ईश्वर ने 10 वर्ष के लंबे इंतज़ार के बाद कन्या रत्न से नवाजा। घर में खुशियाँ मनाई गई, पूरे गांव में लड्डू बांटे गए, गरीबों को दान दिया गया। सभी कहते बड़ी भाग्यशाली है यह लड़की जिसने माँ के नाम को बांझ के कलंक से बचा लिया। बड़े प्यार से उसका नाम सुभागी रखा गया।
कहाँ तो जानकी एक बच्चे का मुँह देखने को तरस रही थी और कहाँ अब वह चाहती कि कुछ दिनों वह गर्भवती न हो तो थोड़ा आराम मिल जाये पर एक पुत्र की लालसा पति पत्नी को चैन नहीं लेने दे रही थी। पुत्र प्राप्ति की चाह में हर वर्ष बेटियों की संख्या जरूर बढ़ती जा रही थी और धीरे धीरे सुभागी 5 बहनों की दीदी बन गई।
हर वर्ष बच्चे को जन्म देने के कारण जानकी शारीरिक रूप से बहुत कमजोर हो गई थी और यह सही है कि जब तन स्वस्थ न हो तो मन कहाँ से खुश रहेगा। अब वह बहुत चिड़चिड़ी हो गई थी बात बात पर झल्ला जाती और सारा गुस्सा मासूम बच्चों पर निकाल देती ।
सबसे ज्यादा प्रताड़ना सुभागी को सहनी पड़ती एक तो छोटी बहनों की देखभाल की उम्मीद उससे की जाती जबकि अभी उसे खुद ही देखभाल की आवश्यकता थी और दूसरे उनकी गलती की सज़ा भी मासूम सुभागी को ही भुगतनी पड़ती कि तुम समझदार हो तुमने देखा क्यों नहीं इस तरह सुभागी का बचपन डरा सहमा ही गुजरने लगा।
जब बड़ी हुई तो स्वाभाविक रूप से इस प्रताड़ना से मुक्ति का बस एक ही मार्ग दिखाई देता उसे कि कहीं अच्छे घर में विवाह हो जाये तो इस सब से स्वतः ही छुटकारा मिल जायेगा उसे जैसे तैसे करके हाई स्कूल पास कर लिया था उसने।
आखिर वह घड़ी भी आ गई जब वह प्रदीप की दुल्हनियां बनकर उसके घर आ गई इतना प्यार तो जीवन में कभी नहीं मिला था उसे जो ससुराल में मिला सब हाथों में रखते उसे और प्रदीप तो उसकी हर अदा पर कुर्बान ही हुआ जा रहा था । उसके विवाह के 15 दिन बाद ही उसके मामा ससुर के बेटे की शादी थी प्रदीप और वह हमउम्र थे तो दोनों में बहुत प्रेम भी था। सुभागी की सासू माँ बड़े जोर शोर से वहाँ जाने की तैयारी कर रही थी।
अभी उसके विवाह में 4 दिन शेष थे वह प्रदीप की माँ यानि अपनी बुआ को लेने आया और साथ ही पास के देवी मंदिर में भी उसे आमंत्रण देना था तो वह प्रदीप को अपने साथ ले गया। हिंदू धर्म के अनुसार देवी देवताओं को भी विवाह में आमंत्रित करने की परंपरा है अतः दोनों बाइक से मंदिर के लिए रवाना हो गये जाते- जाते प्रदीप सुभागी से तैयार रहने के लिए बोल गया क्योंकि वहाँ से वापस आकर उन्हें विवाह में जाना था।
वह मंदिर नदी के किनारे जंगल में बना हुआ था उसके पहले नदी के पुल से गुजरना पड़ता था। नदी के आसपास का हिस्सा ऊँचा और नदी वाला भाग नीचा था इसलिए घाटी जैसी बन गई थी वहाँ से नीचे उतरते हुए प्रदीप संतुलन कायम नहीं रख सका और बाइक से गिर पड़ा चूंकि उसने हैलमेट नहीं पहन रखा था तो सर पर भयंकर चोट लगी और इंटरनल ब्लीडिंग शुरु हो गई जैसे तैसे उसे हॉस्पिटल पहुंचाया गया जहाँ डॉक्टरों ने बताया कि उसका ब्रेन बुरी तरह डैमेज हो गया था।
सुभागी रो -रो कर बेहोश हो जाती थी बार- बार उसकी सास उसे संभालती पर वह भी क्या करें वह उनका भी तो बेटा था वह खुद अंदर से टूट चुकी थी। सारे रिश्तेदार सहानुभूति जताने आ रहे थे पर वह किसी को भी सुभागी से नहीं मिलने देती वह नहीं चाहती थी कि पहले से ही परेशान सुभागी दूसरों की जली कटी बातों से और अधिक आहत हो। लोगों का क्या है वे सहानुभूति जताने के नाम पर किसी को भी इस सबके लिए दोषी करार देने से नहीं चूकते और फिर यहाँ तो उसकी नई- नई शादी हुई थी।
दूसरे दिन डॉक्टर ने बताया कि अभी कुछ नहीं कहा जा सकता हालत बहुत नाज़ुक है दोनों सास बहू भूखी प्यासी ईश्वर के सामने उसकी जिंदगी की दुआ मांगती बैठी रहती। फिर खबर आई कि उसकी दृष्टि चली गई है वह देख नहीं सकता।
सुभागी उस घड़ी को कोस रही थी जब उसके माँ बाप ने उसका नाम सुभागी रखा था पर उसके जीवन में दुर्भाग्य ही हमेशा प्रमुख रहा वह रोती जाती और अपने सुहाग की भीख मांगती ।
आखिर ईश्वर को भी दया आ गई और आठ दिन बाद डॉक्टरों ने उसे खतरे से बाहर घोषित कर दिया और घर ले जाने की अनुमति दे दी लेकिन अब वह एक लाचार युवक था जिसका न तो अपने दिमाग पर वश था और न ही इंद्रियाँ उसके काबू में थी कब पेशाब कपड़ों में निकल जाता उसे पता ही नहीं चलता। बिना सहारे के एक कदम चलना भी दूभर था उसके लिए, वह क्या कर रहा है, क्या कह रहा है कोई होश नहीं था सिर्फ एक तसल्ली थी कि सुभागी की मांग का सिंदूर सलामत था। डॉक्टरों ने कहा था कि उसको नॉर्मल होने में लंबा वक्त लगेगा और जरूरी नहीं कि वह पहले जैसा हो ही जाये।
अब आगे का जीवन सुभागी के लिए किसी परीक्षा से कम नहीं था वह प्रदीप के लिए सारी सारी रात जागकर छोटे बच्चे की तरह देखभाल करती, उसे योगा कराती, मालिश करती और दवाई के साथ न जाने कितने तरह के काढ़े बना कर पिलाती अब उसके जीवन का एक ही लक्ष्य था अपने पति को पूर्व रूप में लाना इस कार्य में उसकी सास पूरी तरह से उसका सहयोग करती।
धीरे धीरे प्रदीप की दृष्टि वापस आने लगी और वह कुछ बातों को समझने भी लगा तब उसकी माँ ने सुभागी को आगे की पढाई के लिए फॉर्म भरवा दिया और साथ ही उसके ट्यूशन भी लगवा दिये। सुभागी उसके भविष्य के लिए सासू माँ की चिंता को भली भाँति समझ रही थी उसने मन लगाकर पढाई की और प्रथम श्रेणी में इंटर पास कर लिया।
प्रदीप की हालत में अब बहुत कुछ सुधार था और सबसे बड़ी बात यह थी कि रात दिन सुभागी की सेवा और साथ रहने के कारण वह उसे बेहद प्यार करता था उसके खिलाफ एक शब्द भी नहीं सुन सकता था वह,इधर सुभागी ने ग्रेजुएशन कंप्लीट किया और साथ ही एक बेटे की माँ भी बन गई जिंदगी धीरे धीरे पटरी पर आने लगी थी।
सासू माँ के सहयोग से वह कई जगह फॉर्म डालती रहती थी वे खुद तो नहीं पढ़ी थी लेकिन अपने अनुभव से इसके महत्व को जरूर जानती थी एक दिन उसको आंगनबाड़ी में महिला सुपर वाइजर की नौकरी मिल गई अब उसके जीवन में कोई कमी नहीं थी।
आज जो कोई भी उसे देखता उसके सुभागी नाम की सार्थक झलक उसमें दिखाई देती पर इसके लिए उसने कितने पापड़ बेले यह वह ही जानती है परिस्थितियों से हार मान कर बैठ जाना जिंदगी नहीं है उनसे लड़ना और विजय प्राप्त करके दिखाना ही असली योद्धा की पहचान है।
#संघर्ष
स्वरचित एवं अप्रकाशित
कमलेश राणा
ग्वालियर