यह अंत नहीं जीवन का”-तृप्ति उप्रेती

“पापा, आज बिजली का बिल भर दीजिएगा”। विहान ऑफिस जाते हुए सुरेश जी से बोला। सुरेश जी लाॅन में बैठकर चाय पी रहे थे। तभी सुहानी बाहर आई और उन्हें एक कागज देते हुए बोली, “पापा जी, जब आप बिल भरने जाएंगे ही तो यह राशन के सामान की लिस्ट भी किराने वाले को दे दीजिएगा और थोड़ी सब्जी भी ले आइएगा।” ” सुहाना जल्दी करो देर हो रही है”। विहान ने पुकारा। विहान अपने ऑफिस जाते हुए सुहानी को उसके स्कूल छोड़ देता था।

सुरेश जी अभी चार महीने पहले ही बैंक मैनेजर के पद से रिटायर हुए थे। उनके परिवार में उनकी पत्नी सुमित्रा, बेटा विहान और बहू सुहानी थे। विहान की शादी तीन  साल पहले हुई थी। जब सुरेश जी रिटायर हुए तो शुरू में तो उन्हें अपनी दिनचर्या में आया बदलाव सुखद लगा। सुबह-सुबह की दौड़ भाग, ऑफिस का तनाव इत्यादि अब नहीं था। अब तो सुकून से उठते, इत्मीनान से लॉन में बैठकर चाय पीते। पर धीरे-धीरे उन्हें बोरियत होने लगी। सुहानी के स्कूल जाने की वजह से सुमित्रा भी कुछ ना कुछ घर के काम में लगी रहती थी। बच्चे उन्हें घर के छोटे-मोटे कामों के लिए कहने लगे थे जैसे दूध सब्जियां आदि लाना, कभी मोटर या फ्रिज की मरम्मत करवाना आदि।

हालांकि बच्चे सोचते थे कि कुछ ना कुछ करते रहेंगे तो पापा का मन लगा रहेगा। लेकिन धीरे-धीरे सुरेश जी के दृष्टिकोण में फर्क आने लगा। कभी जब जाने का मन नहीं होता तो सुमित्रा जी भी कह देती कि चले जाओ खाली तो बैठे हो। उन्हें लगने लगा कि अब मैं फालतू हो गया हूं। वह इस बात को स्वीकार नहीं कर पा रहे थे कि कल तक तो उनके इर्द-गिर्द सब सब लोग घूमते थे। उन पर इतनी जिम्मेदारियां थी। आज अचानक से जैसे लोगों ने उनकी उपस्थिति को दरकिनार कर दिया। सारा दिन घर में रहते रहते धीरे-धीरे वह चिङचिङे होने लगे और उनकी तबीयत भी ढीली रहने लगी।

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सुमित्राजी  कई बार समझाती कि थोड़ा बाहर निकलो तो मन बहल जाएगा। किंतु  वे तो जैसे  अपने आप में ही सिमटते जा रहे थे। बात-बात पर पत्नी और बेटे को झिङक देते। बच्चे भी उनमें  आए इस बदलाव से परेशान थे। किंतु वे सभी अपने अपने कामों में व्यस्त थे।

फिर एक दिन सुरेश जी के बचपन के मित्र महेश के छोटे बेटे की शादी का निमंत्रण आया। शादी दूसरे शहर में थी। सुरेशजी शादी में जाने को लेकर बहुत  उत्साहित थे क्योंकि महेश ने बहुत सारे बचपन के मित्रों को आमंत्रित किया था। वहां जाकर और अपने पुराने सहपाठियों और मित्रों से मिलकर सुरेश जी का उत्साह  देखते ही बनता था। वे तीन-चार दिन बहुत खुश रहे। यह देखकर बार-बार सुमित्रा की आंखें भर आती।

महेश की पत्नी गीता ने सुमित्रा से इसका कारण पूछा तो सुमित्रा ने सुरेश जी की मनस्थिति उसे सुनाई। इस पर गीता ने सुमित्रा जी के कान में कुछ कहा और जब वे लोग वहां से जाने लगे तो गीता ने सुमित्रा से कहा कि मेरी बात पर जरूर अमल करना। वापस आकर कुछ दिन शादी की बातें करके सुरेश जी का मूड अच्छा रहा परंतु धीरे-धीरे वापस उसी दिनचर्या में आ गए। सुमित्रा ने चुपचाप विहान और सुहानी से सारी बातें की और उन्हें कुछ समझाया। वे दोनों भी तुरंत तैयार हो गए।

इसके बाद सुमित्राजी ने उसी शहर में रह रहे सुरेश जी के कुछ पुराने मित्रों को फोन किया और उन्हें अगले रविवार अपने घर आमंत्रित किया।  सुरेश जी को इस बारे में कुछ नहीं बताया। रविवार के दिन सुबह सुमित्रा जी ने सुरेशजी ने कहा कि चलो आज हफ्ते भर की सब्जी ले आते हैं। यह कहकर दोनों घर से निकल गए। पीछे से विहान और सुहानी ने उनके मित्रों का स्वागत किया। सब लाॅन में बैठे। सर्दियों के दिन थे और धूप में बैठना सबको अच्छा लग रहा था। वे सब भी बहुत दिनों बाद आपस में मिले थे तो सभी बहुत खुश थे। 10:30 बजे करीब जब सुरेश जी वापस पहुंचे तो लाॅन से आती हंसी ठहाकों  की आवाज सुनकर चौंक गए।

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जैसे ही उन्होंने गेट के अंदर कदम रखा तो सामने अपने मित्रों को पाकर अवाक् रह गए। सभी मित्रों ने लपक कर उन्हें गले लगाया और कहा “क्यों भाई, हमें यहां बुला कर खुद ही गायब हो गए”। सुरेश जी हैरान थे। तभी बच्चों ने उन्हें बताया कि यह मां और हमारा सरप्राइज था आपके लिए। बहुत खुश हुए सुरेश जी। दोस्तों के साथ बातें करते हुए यादों के गलियारों में खो गए। इस बीच मां और बहू ने मिलकर खाना तैयार किया। खाना खाने के बाद जब सभी मित्र जाने लगे तो उन्होंने आपस में यह वायदा किया कि वह अब से हर महीने दो या तीन बार जरूर मिलेंगे। मिलने के लिए उन्होंने शहर के एक प्रतिष्ठित क्लब को चुना जहां वे बेरोक टोक मित्रों के साथ सुखद समय बिता सकें।

सभी दोस्त हंसी खुशी विदा हुए और सुरेश जी ने अंदर आकर अपनी पत्नी और बच्चों को बहुत-बहुत धन्यवाद दिया। इस पर सुमित्रा जी बोली कि बस धन्यवाद से ही काम नहीं चलेगा, आपको अपनी दिनचर्या में कुछ और बदलाव भी लाने पड़ेंगे। विहान ने कहा,”हां पापा, अब बढ़ती उम्र में आपको अपने स्वास्थ्य का ध्यान रखने की बहुत जरूरत है तो इसलिए आप और माँ रोज सुबह और शाम वाॅक के लिए जाएंगे। इसके अलावा मैंने यहां के एक कोचिंग सेंटर में बात की है।

जहां यदि आप चाहें तो बच्चों को गणित पढ़ा सकते हैं क्योंकि गणित में आपकी हमेशा से ही बहुत रुचि रही है। इस के बाद सुमित्राजी बोलीं कि हम तो भाग्यशाली हैं कि हमारे बेटा बहू हमारे साथ हैं किंतु ऐसे बहुत से माता-पिता है जो वृद्ध आश्रम में रहते हैं और बहुत अकेलापन महसूस करते हैं।  मैंने यह निश्चय किया है कि आप और मैं हफ्ते में 3 दिन वृद्धाश्रम जाकर उनके साथ समय बिताएंगे और उनके सुख-दुख साझा करेंगे।

आज सुरेश जी अपनी इस दिनचर्या से बहुत खुश हैं। उन्हें अपने जीवन में अभी भी सार्थकता महसूस होती है कि वह अब भी किसी ना किसी रूप में किसी के काम आ सकते हैं। सभी मित्र महीने में दो बार जरूर मिलते हैं। दोस्तों का साथ उन्हें पुनः ऊर्जा से  भर देता है। वे अपने दोस्तों को भी इसी प्रकार समय का सदुपयोग करने के लिए प्रेरित करते हैं। परिवार के आपसी सहयोग और सूझबूझ से आज न सिर्फ माता-पिता अपितु बच्चे भी बहुत प्रसन्न हैं।

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दोस्तों, रिटायरमेंट के बाद की जिंदगी सरल नहीं होती। एक व्यक्ति जिस पर अभी तक बहुत जिम्मेदारियां थी अचानक से अपने आप को निरर्थक और नाकारा महसूस करने लगता है। कल तक जो सोचता था कि उसके बिना यह काम नहीं हो सकता, अचानक यह भावना मन में घर कर जाती है कि उसका कोई महत्व ही नहीं। वर्षों तक व्यस्त जीवन बिताने के बाद मन में अचानक एक खालीपन भर जाता है। बहुत मुश्किल होता है अपने आप को ऐसे समय में पॉजिटिव बनाए रखना।

जीवन में आए इस अहम्  बदलाव के समय में उन्हें अपने बच्चों और परिवार के साथ की बहुत जरूरत होती है नहीं तो बहुत बार ऐसा देखा गया है कि रिटायरमेंट के बाद कई लोग मानसिक अवसाद की स्थिति में चले जाते हैं। इसीलिए आपसी सामंजस्य और सहयोग से उन्हें यह विश्वास दिलाएं कि आज भी उनका जीवन किसी न किसी रूप में उतना ही सार्थक है जितना पहले था ताकि वह अपने जीवन का यह स्वर्णिम समय खुश रहकर व्यतीत कर सकें।

            मेरी यह रचना सर्वथा मौलिक एवं स्वरचित है। आशा करती हूं सभी पाठकों को अवश्य पसंद आएगी। आपकी प्रतिक्रियाओं का इंतजार रहेगा।

     तृप्ति उप्रेती

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