रविवार,छुट्टी का दिन था , विमल, घर की बालकनी में बैठा कान्हा और मीनू को खेलते हुए देख रहा था, खेलते -खेलते वे बच्चे दादा दादी के पास आकर उनसे चिपक जाते, और एक दूसरे की शिकायत करते। दादा दादी प्रेम से उन्हें समझाते तो वे फिर से खेलने लगते। निर्मल के आंगन में बच्चों की किलकारी गूंज रही थी, और निर्मल के शीष पर माता पिता के आशीर्वाद की छत्र छाया थी।
विमल सोच रहा था एक निर्मल है जिसके ऑंगन में खुशियों का बसेरा है, और एक मेरा ऑंगन है वीरान सुनसान। पर मैं किसे दोष दूं, मैंने तो अपने हाथों से अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मारी है। उसे सात साल पहले का वाकया स्मरण हो आया, पिताजी कितने खुश थे, जब मेरी बैंक में नौकरी लगी थी, और जब तन्वी का रिश्ता मेरे लिए आया तो उनकी खुशी का ठिकाना नहीं रहा।
उन्होंने बिना मेरी राय जाने रिश्ता पक्का कर दिया। मगर मुझपर तो मेरी सहकर्मी रोमा का रंग चढ़ा हुआ था। मैंने विवाह के लिए मना कर दिया। पिताजी ने और माँ ने बहुत समझाया मगर मैं नहीं माना। विवश होकर उन्होंने निर्मल से कहा – ‘बेटा! मेरी बात पर बट्टा लग जाएगा, तुम्हारा भाई मान नहीं रहा है, मैंने रमाकांत को वादा किया था, अगर तुम्हें कोई आपत्ति नहीं हो तो मैं रमाकांत से तुम्हारे और तन्वी के रिश्ते के बारे में बात करूँ।
शायद मेरे मन का बोझ कुछ हल्का हो जाए।’ निर्मल ने दो माह पूर्व ही उच्च श्रेणी शिक्षक का कार्यभार सम्हाला था। वह चाहता था कि वह कुछ व्यवस्थित हो जाए, मगर पिताजी के सम्मान को ठेस न लगे, इसलिए उसने विवाह के लिए स्वीकृति दे दी और कहा-‘पिताजी आप जैसा उचित समझे करें, आप जो भी करेंगे हमारे भले के लिए ही करेंगे मैं आपके निर्णय के साथ हूँ।’
तन्वी और निर्मल का विवाह हो गया। तन्वी साधारण नैन नक्श की, धीर गम्भीर और समझदार लड़की थी। उसके आचार- विचार, रहन-सहन सभी में शालीनता नजर आती थी। कार्य- कुशल, मृदु भाषी और प्रभावशाली व्यक्तित्व वाली लड़की थी। जल्दी ही उसने सबका मन जीत लिया।
माता-पिता बच्चों को उदास नहीं देख सकते, मेरी इच्छा का मान रखते हुए उन्होंने मेरा विवाह रोमा के साथ करा दिया। रोमा दिखने में बहुत खूबसूरत थी। गौर वर्ण, तीखे नैन नक्श, नीली प्रभावशाली ऑंखें। और भूरे, मुलायम, रेशमी बाल। जो देखता देखता ही रह जाता। मगर उसका स्वभाव और व्यवहार बिल्कुल अच्छा नहीं था, न बोलने का सलीका था,किसी को भी कुछ भी कह देती।
काम की आलसी थी, और विमल के अलावा उसे परिवार में किसी से कोई मतलब नहीं था। हर समय घर में क्लेश करती रहती थी। विवश होकर धनन्जय बाबू ने मकान के दो हिस्से कर दिए। एक हिस्से में तन्वी, निर्मल और उसके माता पिता रहते थे और दूसरे में विमल और रोमा।
वह सोच रहा था, जिस दिन से अपने परिवार से अलग होकर रोमा के साथ रहने आया हूँ, मेरी खुशियाँ जैसे मुझसे रूठ गई है। रोमा को सिर्फ सजना, संवरना, सैर- सपाटे और शापिंग करने से मतलब है, घर का कोई काम ठीक से नहीं करती। घर में सब काम करने के लिए कामवाली बाई लगवा रखी है, फिर भी हर समय क्लेश करती रहती है।
परिवार में था तो परिवार के लोगों से झगड़ती थी और अब तो सारा गुस्सा मेरे ऊपर उतरता है। कभी -कभी लगता है, क्या सोचते होंगे मेरे परिवार के लोग, रोमा कितनी बुरी तरह चिल्लाती है, मेरा जीवन नर्क बना दिया है। निर्मल के बच्चों को देखता हूँ, तो मेरी भी इच्छा होती है कि मेरे भी बच्चे हो, मुझे पापा कहैं, मैं भी उनके साथ खेलूँ, मगर जब भी रोमा से कहता हूँ, भड़क जाती है, कहती है मेरा सौन्दर्य खो जाएगा, और जो मेरा जीवन बिगड़ रहा है, उसकी उसे कोई चिन्ता नहीं है.
सोचते-सोचते उसकी ऑंखें डबडबा गई। वह सोच रहा था, अपने मन की व्यथा वह किसको सुनाएँ। अपने प्यारे परिवार से तो वह पहले ही नाता तोड़ चुका है, और जिसके लिए तोड़ा उसे तो उसके सुख दुःख की परवाह ही नहीं है। कितनी कोशिश करता हूँ,पर यह पछतावा पीछा ही नहीं छोड़ता। हमेशा जीवन में रहेगा कि काश! मैंने अपने माता-पिता की बात मान ली होती तो मेरा जीवन खुशनुमा होता।
वह विचारों में खोया हुआ था और घर के अन्दर से रोमा का कर्कश स्वर गूंज रहा था, जनाब बाहर आराम से बैठे हैं और मैं अकेली काम कर रही हूँ, जैसे पता ही नहीं है कि आज बाई छुट्टी पर गई है। विमल ने एक लम्बी सांस ली, अपने सिर को झटका दिया और घर के अन्दर चल दिया, रोमा के काम में उसकी मदद जो करना था।
#पछतावा
प्रेषक
पुष्पा जोशी
स्वरचित, मौलिक, अप्रकाशित