यादों की पोटली – डाॅ उर्मिला सिन्हा : Moral stories in hindi

कई वर्षों पश्चात मामा के गाँव आना हुआ। मेरे बचपन का ज्यादा हिस्सा इसी गाँव में बीता है। यहाँ का ताल-तलैया, बडा़ सा… कुमुदिनी कमल ककडी़ …बडी़ छोटी मछलियों से भरा हुआ तालाब… उसमें छलांग लगाकर घंटों अपने हम उम्र बच्चों के साथ जल क्रीड़ा करना… आम महुआ जामुन लीची बेर करौंदे  गुल्लर के बागीचे में उसके मोंजर को निहारना! 

  छोटे-बडे टिकोरे को भर-भर बांस की चंगेली में बीछना… नमक लाल मिर्च के साथ घुमौवा बनाकर दोस्तों के साथ खाकर मुँह चटपटाना। केलों के बाग में घवद में कितने केले हैं गिनती करना… सामने गाय, बैल, भैंस का  बथान, मूंछेदार हलवाहा… दालान में रखा हुआ हल, जोत सब याद आ गया …ऊंचे  तख्त पर मसनद के सहारे बैठे सफेद बालों वाले नानाजी… उनके एक इशारे पर गाँव के बडे़-बड़े फैसले होते थे …इसमें आश्चर्य कैसा आखिर वे इलाके के प्रतिष्ठित  रोबदार व्यक्ति थे। उनके समक्ष मामा लोग भींगी बिल्ली बने रहते… क्या मजाल कोई उनकी हुकुम उदीली कर दे । जनानखाने में  जेवरों चटकीली साडी़ में लिपटी नानी और परिवार की महिलायें … सेवक सेविकायें… ऐसा लगता संपूर्ण संसार की समृद्धि और खुशियां इसी मामा की हवेली में विराजमान है। एक एक दृश्य सामने आने लगा। गोईठा पाथती… लोकगीत गाती ग्रामीण महिलाएं… एक साथ आंखों के समक्ष जीवंत हो गया। 

 बताते हैं जब मैं नौ महीने का था उसी समय मेरी मां दो दिनों की मामूली बीमारी में चल बसी। मृत्यु के पहले उन्होंने मेरा मुख चूमा था… मुझे दीर्घजीवी होने का आशीर्वाद दे स्वयं अनंतलोक में विलीन हो गई थी, “एक से इक्कीस  एवं दीर्घायु होना बाबू”यह उनके अंतिम शब्द थे। पिता जी जो परदेश में किसी व्यापारी के मातहत थे इस दुखद घड़ी में उपस्थित नहीं थे। 

   मेरे मामा अपनी प्यारी बहन के अंतिम संस्कार में आये थे और मुझे सीने से लगा लिया था। मैं अपने दुर्भाग्य से बेखबर मामा के गोद में उनका मुँह निहारने लगा था। 

   श्राद्ध कर्म समाप्त होने के पश्चात जब मामा अपने गाँव वापस जाने लगे तब दबी जुबान से उन्होंने मुझे भी साथ ले जाने की इजाजत दादा जी से मांगी, “आपकी अनुमति हो तो मैं मुन्ने को अपने साथ ले जाऊं। “

दादा जी ने मेरे पिता की ओर इशारा किया… पिताजी ने उचटती निगाहों से मेरी ओर देखा और पैरों में चप्पल डाल बाहर निकल गये। मामा को यह नागवार गुजरा लेकिन मौके की नजाकत देख खून का घूँट पीकर रह गये। उतने दिनों में मामा समझ गये थे किसी को भी मुझमें दिलचस्पी नहीं है… अपनी सगी प्यारी बहन की आखिरी निशानी… मामा का दिल भर आया। 

“अब जैसा आपलोगों की राय हो  …मैं पका हुआ फल हूं कब टपक पडूंगा ….कोई भरोसा नहीं है। दूधमुंहे बच्चे का देखभाल इतना आसान नहीं है “दादा जी ने पीछा छुडाने वाले अंदाज में कहा। 

  “इतने बड़े परिवार में एक छोटे मातृविहीन बच्चे को पालना कोई असंभव कार्य नहीं है… जिसकी मां नहीं होती उसे इसप्रकार  छोड़ तो नहीं दिया जाता “रिश्तेदारों में से किसी ने अपना विचार रखा। 

   “छोड़ने की बात कौन कर रहा है “मेरे बड़े ताऊ जी इस आक्षेप को  सहन नहीं कर पाये। 

“अब इस बालक के पिता यहाँ रहते नहीं हैं… अगर साथ ले भी जायेंगे तब रखेंगे कहाँ… जबतक दुसरा विवाह कर नहीं लेते”कोई बोला। 

“हां दुसरा विवाह, अभी इनकी उम्र ही कितनी है… दूसरा विवाह करना ही पडेगा। “

“मेरी नजरों में कई रिश्ते हैं …जरा सा हां करके देखिये… रिश्तों का ढेर लगा दूँगा”  बूढा नाई धीरे से बोला। 

मामा का हृदय छलनी हो गया। मन ही मन बोले, “अब दूसरा विवाह करें या तीसरा… जब व्याहता को सुख नहीं दे पाये… पति के उपेक्षा का दंश ही मेरे बहन के अकाल मृत्यु का कारण बना। “

   मामा की खामोशी…हृदय का आक्रोश चेहरे पर देख वहाँ उपस्थित जनसमूह बात घुमाने की निर्रथक चेष्टा करने लगे। 

नौ माह के बालक  की जिम्मेदारी से मुक्ति पाकर घर के लोग मन ही मन प्रसन्न हो रहे थे! एकसाथ ही मां बेटे दोनों से छुट्टी मिल गई। 

    वहीं मेरी वृद्धा दादी अपने बेटे की निशानी कुल के दीपक को अपने से जुदा कर मामा के साथ भेजने के निर्णय पर हृदय से रो पड़ी। संपूर्ण परिवार में दादी ही थी जिन्हें मेरी मां से सहानुभूति थी। वे अपने बेटे के भ्रमर स्वभाव से परिचित थी। अपने बेटे के दुर्गुणों को जानती थी अपनी बहू की व्यथा पहचानती थी। 

मेरे पिता का उजड्ड रसिक मनोवृति कभी भी मेरी मां को वह आश्वस्तता नहीं  दे पाया जो एक सुखी दाम्पत्य की आधारशिला होती है। 

“मेरे हाथों में ताकत होती तो आज अपने जिगर के टुकड़े को आपके हवाले न करती “दादी ने मुझे प्यार किया आशीषों की झड़ी लगा दी। मुझे विदा करते जार-बेजार रोती बीमार कमजोर मेरी दादी … मेरे पिता तमाम दुर्गुणों के बाद भी अपनी माँ के लाडले थे। 

“कहाँ हो नारायण, अपने बेटे का मुँह देखो… बिना मां का बच्चा उसे पिता के साये से दूर मत करो “!नारायण मेरे पिता का नाम था। दादी की करुण गुहार उनके कानों तक गई या नहीं… कौन जाने।

परंतु  मामा के इस आश्वासन के साथ कि, “थोड़े दिनों के बाद में बबुआ को आपसे मिलाने ले आऊंगा “मैं मामा के साथ नानी घर आ गया। 

दादी मेरी जुदाई बर्दाश्त न कर पाई और चंद दिनों के पश्चात ही स्वर्ग सिधार गई। वे दुबारा मेरा मुँह नहीं देख पाई। ये सारे किस्से  मौका दर मौका होने वाली चर्चाओं से  मुझमें आत्मसात हो गई है। 

  जहाँ अन्य बच्चों की देखरेख पढाई लिखाई उनके माता-पिता कराते वहीं मेरी सारी जिम्मेदारी मामा की थी। मैं जानता ही नहीं था कि मामा के अतिरिक्त मेरे लिए कौन है। स्कूल में माता-पिता या अभिभावक के रूप  में मामा जाते। कुछ मुझसे सहानुभूति जताते बिना मां-बाप का टुअर टापर है वहीं मैं मामा का राजदुलारा था। 

  दो-तीन वर्षों के पश्चात मेरे पिता का निधन हो गया… दादा जी चल बसे अर्थात मेरी मां की अकाल मृत्यु के पश्चात वहाँ सबकुछ तहस-नहस हो गया… इन अप्रिय घटनाओं से अनभिज्ञ मैं मामा के संरक्षण में पलने-बढने  लगा। मामा ने अपनी शादी नहीं की… अपनी समस्त ऊर्जा मुझे लायक बनाने में लगा दिया। फुरसत में  वे बांसुरी बजाते… गीत गाते जिसे मैं भी सीखता चला गया। मैं मेधावी अनुशासित लड़का था। अपने मामा की आकंक्षाओं पर खरा उतरा…जब मैने पहली बार में प्रशासनिक सेवा में सफल हुआ… मामा खुशी से रो पड़े, “दिदिया तेरा बेटा आज हमारा नाम ऊंचा कर दिया। “

   मैंने मामा को पहली बार रोते देखा था अतः द्रवित हो उनके छाती से जा लगा। मेरे लिये मेरे मामा ही सबकुछ थे। उन्होंने मेरी पसंद की लडकी से बिना किसी सवाल-जबाब  के मेरी विवाह कराई… दो बच्चे हैं। हमारे लिये मामा ही सबकुछ हैं। 

   आज मामा की बीमारी सुनकर उनसे मिलने सपरिवार मामा के गाँव आया हूँ और अपने व्यस्ततम दिनचर्या से अलग यहाँ के हवा पानी में अपना बचपन ढूंढ रहा हूँ। 

   कृशकाय मामा ने मुझे देखते ही गले लगा लिया। पत्नी और बच्चों को आशीष दिया। 

“मामा मेरे साथ चलिये, मैं आपको अच्छे से अच्छे डाक्टर से दिखलाउंगा”मैं आतुर हो उठा। 

   “ना बबुआ… अब मेरे पास समय कम है… बस तुम्हें देखने के लिये आंखें तरस रही थी… खुश रहो। “

रात में ही मामा ने अंतिम सांस ली। मैं पहली बार कलेजा फाड़कर रोया… मेरे हृदयविदारक सिसकी पर अगल-बगल वाले भी रो पडे़,”ऐसा मामा और भांजा… विरले ही मिलेंगे। “

    आज पहली बार लगा कि मैं अनाथ हो गया हूं… मातृ-पितृ-विहीन …मेरे लिये मेरे माता-पिता, गुरु, सखा मेरे मामा ही थे। 

पंद्रह दिनों के  बाद शहर वापस जा रहा हूँ पत्नी बच्चों के संग… यादों की पोटली साथ लिये। 

सर्वाधिकार सुरक्षित मौलिक रचना डाॅ उर्मिला सिन्हा

 

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