राधिका अपने बेटे को झुलाते हुए अतीत में खो जाती है। पार्क,झूला व शाम, सब वही। बस कृष्णम के स्थान पर बेटा दिव्यम। इसी झूले पर एक हुए और बिछड़े भी। बस यही एक सहारा बचा ज़िन्दगी में।
कैसे भुलाए उन लम्हों को। सहकर्मी कृष्णम के साथ उसकी सुहानी शामें यहीं बीतती थी। दोनों घण्टों बिताते जब तक कि चाँद इस मुलाक़ात का साक्षी नहीं बन जाता। अचानक एक दिन उसने बताया कि वृद्धा माँ से मिलने गाँव जाना है। बहन के ससुराल वाले उसे छोड़ गए हैं। क्या मामला है,वहाँ जाने पर ही ज्ञात होगा।
गाँव में जो भी हुआ हो , लेकिन कृष्णम फ़िर नहीं लौटा। कोई आता पता नहीं, मोबाइल भी बंद। राधिका झूले पर बैठने रोज़ पार्क आती। यही सोचती रहती कि ऐसी क्या ख़ता हो गई उससे। एक दिन अपने शरीर में कुछ हलचल का आभास हुआ। मानो कोई दिलासा दे रहा हो- माँ मैं आ रहा हूँ।
कृष्णम का प्रतिरूप दिव्यम गोद में आ जाता है। अब माँ बेटे दोनों का बिना नागा पार्क में आना जारी है। काश ! कृष्णम भी साथ होता। कहीं दूर से गीत की आवाज़ उसकी टीस और भी बढ़ा देती है, ” बैरी पिया बड़ा रे बेदर्दी “।
दिव्यम, दोस्तों के साथ उसी झूले पर झूल रहा है। एक अज़नबी को अपनी ओर देखते पूछ बैठता है, ” कुछ चाहिए अंकल “
विस्मित हतप्रभ वह व्यक्ति सोचता है, ” यह एकदम मेरे जैसा क्यूँ है ? ” बेटे को पुकारती राधिका दूर से ही बोल पड़ती है,” यह मेरा बेटा है। ”
कृष्णम झाड़ियों में छुप जाता है। वह सोचता है, ” मैं पहले ही इतने दर्द दे चुका हूँ इसे। अब सही वक़्त देखकर ही मिलूँगा।
मेरे बस में कुछ नहीं था। माँ ने सेहत का वास्ता देकर मीरा संग बन्धन में बाँध दिया था। “
सरला मेहता
94, गणेशपुरी
इंदौर
स्वरचित