मांँ के पास आए हुए रिती को एक महीना पूरा होने को था और उसकी वापसी का समय भी नजदीक था। अगले ही दिन की ट्रेन थी। स्कूल की छुट्टियांँ खत्म हो गई थी तो अब वापस जाना जरूरी था वरना प्राइवेट स्कूल वाले टीचर को छुट्टी कहांँ देते हैं। रिती अपने पिता के समझाने पर बच्चों के बड़ा होते ही घर के पास ही एक प्राइवेट स्कूल में नौकरी करने लगी थी।
मां के पास से जाने का तो मन ही नहीं करता था अब साल में एक बार ही तो आना होता था।
वहीं मांँ के बिस्तर के पास लगी पापा की फोटो निहारते हुए ऐसे लग रहा था जैसे वो फोटो से बाहर निकल उसके पास बैठें हैं।
रिती मांँ से मिलने के लिए अकेले ही आ गई थी जब सुना कि उनकी तबियत खराब है। पहले हर साल गर्मियों की छुट्टी में पापा ही उसे लेने आते थे। तब कहा करती थी कि…
“पापा आप बेकार परेशान होते हैं इतनी दूर आने जाने में खर्च भी चौगुना हो जाता होगा।”
पापा मुस्कुराकर कहते…
” बच्चों के लिए भला कोई बाप परेशान होता है और खर्च की चिंता मत किया कर तू कभी भी। तेरा पापा जिंदा है ना अभी। नहीं रहेगा तब तो सब कुछ तुझे ही संभालना होगा अपनी मां का ध्यान रखना।”
पापा की यादों में खोई हुई थी कि तभी यादों के भवर में पति के वो शब्द गूंज उठे…
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‘बच्चे बेकार में परेशान हो जाएंगे तुम इन्हें यहीं रहने दो। मां संभाल लेंगी सबकुछ। तुम आराम से जाओ और कुछ दिन अपनी मां की सेवा करो।’
रितेश ने जब कहा तो लगा सच पिता की पसंद लाजवाब रही। बहुत पसंद थे उनको अपने जमाई।
रिती की शादी के बाद ही उन्होंने अपनी रिटायरमेंट से पांच साल पहले ही वी. आर. एस. ले लिया था। वो कहते थे…. “बिटिया की शादी करके अपनी सभी जिम्मेदारों से मुक्त हो गया हूं। अब आराम से घर पर रहूंगा।”
आंँसुओं की बूंदे उसका आंँचल भिगो गई। यह आँसू स्वमिश्रित थे पिता की याद, मांँ की फ़िक्र,अपने बच्चों और पति की चिंता के साथ उनका उसकी फिक्र करना।
“मांँ मैं अपने पुराने घर को एक बार बाहर से ही देखना चाहती हूंँ। जहांँ से इतने सालों का नाता रहा है एक बार हो आती हूंँ। वहांँ अपने अड़ोस-पड़ोस के लोगों से भी मिल आऊंगी।”
“क्या करने जाएगी बिटिया? वहांँ जाकर तुझे सिर्फ तकलीफ के सिवाय कुछ नहीं मिलेगा। सुना है हमारा घर तोड़कर वहांँ बहुत बड़ा फ्लैट बन गया है। भाई को पैसों की जरूरत थी इसलिए उसने वो घर बेच दिया। अब वहांँ जाकर क्या करेगी।
मैं जहांँ हूं वही अब तेरा मायका है।”
“हांँ मांँ वो तो है।” रिती मांँ के गले लगकर बोली।
मां को कैसे समझाती कि उस गली मोहल्ले के चप्पे-चप्पे में अभी भी पापा की यादें हैं उनकी खुशबू अभी भी उन हवाओं में होगी। उनका वो मुझे कांधे पर चढ़ाकर घुमाना वो मेरा किसी चीज की ज़िद्द में मचलना और उनका समझाना। पापा की उंगली पकड़कर चलना।गवाह हैं वो गलियांँ जहांँ पापा की उंगली पकड़कर चलने से लेकर स्कूटी पे उन्हें बिठाकर घुमाने तक का सफर तय किया।
एक बार ससुराल वापस जाने से पहले उन गलियों में फिर घूमना चाहती हूंँ। बाबूल का घर भले अब ना रहा फिर भी वो जमीन जिस पर उन्होंने अपने खून पसीने से सपनों का घर बनाया जहां हम पले बढ़े फिर ब्याह कर ससुराल भेजा वो देहरी आज भी मेरा स्वागत करेगी। एक बार वहां की मिट्टी ही अपने माथे लगा आऊंगी।
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रिती को शांत देखकर मांँ ने कहा… ” अच्छा ! जा चली जा… पर वहांँ जाकर उदास मत होना। वहांँ अब तेरा कोई इंतजार नहीं कर रहा होगा। दरवाजे की घंटी मत बजाना बाहर से ही देख लेना। हो सके तो वहांँ के जान पहचान वालों से मिलती आना। मेरी तो हिम्मत ही नहीं होती अब वहाँ जाने की।”
मांँ से इजाजत लेकर रिती अपने बाबुल के घर चल पड़ी… जिस पर अब उसके पिता की नहीं किसी और के नाम की नेमप्लेट लगी होगी। पिता ने मरने से पहले वो जमीन उन्होंने रिती की मांँ के नाम कर दी थी। कुछ समय बाद ही भाई ने मांँ से जमीन के उन कागजों पर हस्ताक्षर करवा कर अपने नाम वो जमीन करवा ली फिर उसे बेच दिया और नई जगह मकान बनवा लिया। इन सबके पीछे भाई का क्या मकसद था सब समझती थी रिती। मांँ कहीं बेटियों के मोह में आकर उनके नाम पर सम्पत्ति में हिस्सा ना दे दे।
पर उसे कुछ नहीं चाहिए था वो तो सिर्फ इतना ही चाहती थी कि वो घर ना बिके जिसे साल दो साल पर जब भी वो मांँ से मिलने आए तो बाबूल का वो घर वो देहरी उसका स्वागत करे।
कविता झा ‘अविका’
रांची,झारखंड