उत्तर प्रदेश के एक छोटे से गाँव ‘माधोपुर’ की सुबह कुछ अलग होती है — खेतों में ओस की बूँदें, मंदिर से आती घंटियों की आवाज़ और एक बूढ़ी औरत की खाँसी। वो औरत है रामदुलारी, जो हर सुबह अकेले ही आँगन में झाड़ू लगाती है, फिर चूल्हे पर चाय बनाती है और भगवान के सामने बैठकर घंटों कुछ बुदबुदाती रहती है। कोई समझे या न समझे, पर वो जानती है कि उसका भगवान भी अब उतना पास नहीं रहा।
रामदुलारी की दुनिया कभी यूँ सूनी नहीं थी। उसका एक इकलौती बेटी थी – मीनू, जिसे वह प्यार से गुड़िया बुलाती थी।
पति की मृत्यु जब गुड़िया सिर्फ 5 साल की थी, तब हुई थी। सबने रामदुलारी को समझाया – “दूसरी शादी कर लो, ज़िंदगी लंबी है।” लेकिन उसने साफ़ मना कर दिया। “मेरी बेटी ही मेरा संसार है,” यही कहकर उसने सिलाई का काम शुरू किया, खेत में मजदूरी की, दूसरों के घर बर्तन तक मांजे।
गुड़िया पढ़ने में होशियार थी। माँ की मेहनत और उसका समर्पण रंग लाया। दसवीं में गाँव में टॉपर बनी। फिर इंटर और फिर शहर जाकर ग्रेजुएशन। वहीं एक मल्टीनेशनल कंपनी में जॉब मिल गई। माँ ने ढेर सारा सोना बनवाया, बेटी के लिए। कहा – “जब तेरी शादी होगी, सब कुछ दूँगी।”
शहर की रफ्तार ने मीनू को बदल दिया। वहाँ की चाल, वहाँ की सोच और वहाँ का जीवन उसके अंदर घर कर गया। माँ के साथ बातें अब कम होती गईं। पहले हर रविवार फोन आता था, फिर पंद्रह दिन में, और अब महीने भर में एक बार – वो भी बस “मैं बहुत बिज़ी हूँ माँ।”
एक दिन अचानक मीनू का फ़ोन आया – “माँ, मैं शादी कर रही हूँ। अर्जुन नाम है उसका। हम लिव-इन में थे। अब शादी करना चाह रहे हैं।”
रामदुलारी को कुछ समझ न आया, पर फिर धीरे से बोली, “जो तुझे सुखी रखे, वही ठीक है बेटा।”
शादी शहर में एक होटल में हुई। माँ को बुलाया तो गया, पर एक कोने में बैठी रही — उसके गले का हार, बाँह के कड़े, सब बेटी ने पहन लिए थे, लेकिन माँ की आँखों में जो इंतज़ार था, उसे कोई नहीं पहना सका।
अब सालों बीत चुके हैं। रामदुलारी की आँखों की रोशनी धुंधली हो रही है, शरीर पहले जैसा नहीं रहा। वो अब ठीक से चल भी नहीं पाती। गाँव में हर कोई कहता, “बहन जी, अब तो आपकी बेटी बहुत बड़ी अफ़सर बन गई होगी? क्यों नहीं आती?”
रामदुलारी हँसकर कहती, “काम में बहुत बिज़ी है बेटा… बस अगले महीने आएगी।”
मीनू अब विदेश में थी । उसने माँ के लिए एक मेड रखवा दी थी, हर महीने पैसे भेज देती थी। लेकिन माँ को पैसे नहीं चाहिए थे – उसे बेटी की गोद में सिर रखकर बस एक बार सोना था।
एक दिन मीनू को फ़ोन आया – “मैडम, आपकी माँ अस्पताल में हैं। हालत गंभीर है।”
वो तुरंत फ्लाइट लेकर पहुँची, आँखों में आँसू थे लेकिन दिल में हल्की घबराहट – “मैंने बहुत देर कर दी क्या?”
अस्पताल पहुँची तो माँ ICU में थीं। डॉक्टर बोले – “इनकी हालत बहुत नाज़ुक है। शायद बहुत देर हो चुकी है।”
मीनू माँ के पास बैठी, उसका हाथ थामा — वही झुर्रीदार हाथ, जिसमें कभी उसकी उंगलियाँ जकड़ी रहती थीं।
रामदुलारी ने आँखें खोलीं — मीनू का चेहरा देखा। हौले से मुस्कराई और बोली —
“तू आ गई गुड़िया… अच्छा किया… वक़्त बहुत बदल गया है ना बेटा… पर याद रख…
वक़्त से डरो… क्योंकि जब वो छिनता है ना… तो रिश्ते बस यादों में रह जाते हैं।”
“रिश्ते तब तक ही जीवित होते हैं जब तक समय और भावनाएँ उनमें बहती हैं। जब हम यह सोचते हैं कि “अभी समय नहीं है”, तो शायद वो समय ही चला जाता है — और फिर पछतावे के आँसू भी माँ की झुर्रियों को नहीं सींच सकते।
जो लोग हमारे लिए अपनी ज़िंदगी लगा देते हैं, उनके बुढ़ापे में सिर्फ़ पैसा नहीं, अपना समय और प्रेम देना ज़रूरी होता है।
मीनू फूट-फूटकर रोने लगी। लेकिन अब बहुत कुछ बीत चुका था।
सुबोध प्राण