संध्या बेटा मुझे कुछ खाने को दे दो। सुबह तुमने बस दलिया बनाया था, वही खाया था। आज तो तुमने दोपहर का खाना भी नहीं बनाया। मां जी अब मैं दोपहर का खाना नहीं बनाया करूंँगी। सुबह को ही पेट भरकर खा लिया करो। लेकिन बेटा मुझे शुगर है। जिसकी वजह से मैं ज्यादा देर खाली पेट नहीं रह सकती। उंह..शुगर..संध्या मुँह बिचकाकर वहांँ से चली गई।
ये है संध्या। सरला जी की बहू। अब तक तो सब कुछ सही चल रहा था। लेकिन जब से सरला जी के पति की मृत्यु हुई थी। संध्या के तेवर बिल्कुल बदल गए थे। उनका बेटा अजय सुबह दुकान पर जाकर रात को ही वापस लौटता था। दोपहर का खाना वह सुबह अपने साथ ही ले जाता था। संध्या भी दोपहर का खाना नहीं खाती थी। लेकिन अपने आप वह कुछ ना कुछ थोड़ी-थोड़ी देर बाद खाती
रहती थी। लेकिन सरला जी को पूछती भी नहीं थी। अब तक सरला जी के पति दुकान पर पूरा समय देते थे। संध्या को उनकी जरूरत महसूस होती थी। वह अपने सास ससुर का पूरा ख्याल रखती थी। ससुर की मृत्यु के बाद कुछ दिन तो सही रहा। फिर संध्या को अपनी सास बोझ दिखाई देने लगी।
शायद रिश्ते स्वार्थ पर ही टिके होते हैं। जिसकी हमें जितनी जरूरत होती है। वह उतना ही प्यारा होता है। जो हमारे किसी काम का नहीं, उसकी उपस्थिति खटकने लगती है। यही हो रहा था सरला जी के साथ।
अगले दिन समय से समझौता करते हुए सरला जी ने संध्या से कहा, बेटा तुम अजय के साथ ही मेरी दो रोटी बनाकर रख देना। मैं दोपहर को वही खा लूंँगी। ठीक है बना दूंँगी। संध्या ने कहा। लेकिन सुबह की बनी हुई रोटी सरला जी को इस बुढ़ापे में खाने में बड़ी मुश्किल हो रही थी। उस दिन तो उन्होंने वह रोटियांँ दाल में भिगोकर खा ली। लेकिन अगले दिन संध्या ने सूखी सब्जी बनाई थी। उनसे
रोटियांँ नहीं चबाई जा रही थी। तो उन्होंने खाना छोड़ दिया। संध्या ने जब खाने को ऐसे ही रखा हुआ देखा। तो बड़ी बदतमीजी से सरला जी से बोली पैसे पेड़ पर नहीं लगते हैं। दिन-रात खटता है मेरा पति। मैं कल से तुम्हारा खाना नहीं बनाऊंँगी। संध्या वक्त से डरो। तुम्हारा पति होने के साथ वह मेरा बेटा भी है। आज सरला जी का धैर्य जवाब दे गया। रोज-रोज के अपमान से उनका मन इतना बोझिल हो गया कि उन्होंने सोच लिया कि वह किसी वृद्धाश्रम में जाकर रह लेंगी।
वे अभी सोच ही रही थी कि उन्होंने सुना, संध्या फोन पर किसी से बहुत गुस्से में जोर-जोर से बात कर रही थी। शायद दूसरी तरफ फोन पर उसकी भाभी थी। फोन काटने के बाद संध्या ने जोर-जोर से रोना शुरू कर दिया। सरला जी को कुछ अनहोनी की आशंका हुई। उन्होंने संध्या से पूछा क्या हुआ। कुछ नहीं हुआ। तुम्हारी बद्दुआ लग गई मुझे। उसके बाद सरला जी ने कुछ नहीं पूछा। संध्या बार-
बार कभी किसी से तो कभी किसी से फोन पर बात कर रही थी। जब शाम को अजय घर आया। तो उसने बताया कि उसके भैया-भाभी उसकी बीमार मां को वृद्धाश्रम छोड़ आए हैं। भाभी तो परायी है। लेकिन भाई ऐसा कैसे कर सकता है। चलो छोड़ो संध्या। सबके अपने संस्कार होते हैं। कोई बात नहीं
मैं भी तो उनका बेटा हूँ। शुक्र है तुम अपनी भाभी जैसी नहीं हो। जब तुम मेरी मां का ध्यान रखती हो। मैं भी तो तुम्हारी मां का ध्यान रख सकता हूँ। यह सुनकर संध्या की शर्म के मारे सरला जी से नजरे मिलाने की भी हिम्मत नहीं हो रही थी।
अगले दिन अजय संध्या को साथ लेकर उसकी मम्मी को अपने घर ले आया। सरला जी ने भी उनको अपनी जगह रखकर सोचा तो संध्या की मम्मी के लिए उनके मन में आत्मीयता उमड आई। उन्होंने अजय से उनके रहने का इंतजाम अपने कमरे में ही करने के लिए कहा। वे बोली हम दोनों का ही समय एक दूसरे के साथ अच्छी तरह कट जाया करेगा।
अपनी सास के लिए अब संध्या के मन में सम्मान की भावना थी। जिन्होंने उसके व्यवहार को अनदेखा करके उसकी मां को एक बहन की तरह अपना लिया था। मैं कितनी गलत थी। उसका अंतर्मन उसे
धिक्कार रहा था। जब उससे रहा नहीं गया। तो जाकर उसने अपनी सास के पैर पकड़ लिए। और बोली मम्मी मुझे माफ कर दो। मैं ही अपने संस्कार भूल गई थी। कोई बात नहीं बेटा। सब वक्त, वक्त की बात है। तुम्हें अपनी गलती का एहसास है यही बहुत है।
बेटियां विषय – वक्त से डरो नाम: नीलम शर्मा मुजफ्फरनगर उत्तरप्रदेश,