वक्त से डरो – डॉ आभा माहेश्वरी : Moral Stories in Hindi

“एक गाँव में एक बूढ़ा लकड़ी काटनेवाला श्यामू रहता था । उम्र साठ साल थी, लेकिन मेहनत में कोई कमी नहीं आई थी। दिनभर जंगल में लकड़ी काटता, फिर शाम को बाज़ार जाकर बेच आता। लोग उसकी ईमानदारी की मिसाल दिया करते थे।

पर उसकी एक आदत बुरी थी उसकी—वक्त को हल्के में लेना। उसे अपने शरीर पर और अपनी मेहनत पर बड़ा घमंड था।अपने आगे वो किसी को कुछ नही समझता था।कोई उससे कहता कि,” भैया अब उम्र के हिसाब से काम कर करो” तो वो कहता कि,” अरे उम्र मेरा क्या बिगाड़ेगी– मैं नही डरता– और वक्त मेरा क्या ही बिगाड़ लेगा– काम करूंगा और आराम से रोटी खाऊंगा”।

“समय किसका क्या बिगाड़ लेता है?” श्यामू अक्सर हँसते हुए कहता।

 उसका एक बेटा था रवि, जो शहर में पढ़  रहा था। वो बड़ा समझदार था।उसने अपने एक मित्र का वक्त बदलते देखा था। इसलिए जब भी वो आता, पिता को समझाता, “बाबा, समय की कदर करो। समय किसी के लिए नहीं रुकता।

आज जो समय तुम्हारे पास है, कल वो नहीं होगा, अब वक्त के हिसाब से काम किया करो– एकबार  शरीर ढ़ल गया तो कभी ठीक नही होगा।” लेकिन श्यामू को अपने बेटे की बात भी समझ  नही आती और वो दिन रात मेहनत करने में लगा रहता। अपने बेटे से श्यामू हँसते हुए कहता,”अरे बेटा, जब तक साँस है, काम है। मैं रोज जंगल जाता हूँ, लकड़ी लाता हूँ, पेट पालता हूँ। क्या वक्त मुझे हराएगा?”

        समय बीतता गया ।एक दिन उनके गाँव में एक फ़कीर आया। वह लोगों को वक्त का महत्व समझा रहा था। श्यामू ने सुना पर उसने फकीर की बातों को भी हल्के में लिया।फ़कीर ने उसे देखा और कहा, “बुज़ुर्ग, वक्त को मत आज़मा।

वक्त जब पलटता है, तो सब छीन लेता है—सम्मान, काम, शरीर की ताकत… सब– वक्त रहते वक्त की कीमत समझ ले बेटा– वरना समय ऐसा पछाड़ेगा कि तुझे उठने का– संभलने का मौका ही नही मिलेगा– सिर्फ पछतावा ही हाथ लगेगा तेरे बेटा।”

पर श्यामू मुस्कराया और कहने लगा कि “मेरा वक्त बहुत अच्छा है बाबा, रोज़ी रोटी चल रही है– वक्त मेरा क्या कर लेगा।”

फ़कीर ने कहा, “ठीक है– जैसी तेरी मरजी बेटा– मैने तो बस बताया है वक्त की  कीमत समझो– वक्त बदलते देर नही लगती– मेरी बात याद करना। वक्त से डरो।”

     कुछ ही महीनों बाद श्यामू बीमार पड़ गया। पहले हल्का बुखार, फिर कमज़ोरी, फिर हाथ-पाँव जवाब देने लगे और अब तो उसका उठना बैठना मुश्किल हो गया– अपने रोज के काम भी नही कर पाता–बिस्तर से लग गया। अब जंगल जाना तो बहुत  दूर की बात थी ।

जो थोड़ी बचत थी, वो दवाइयों में खत्म हो गई– ना पैसे रहे ना शरीर–बाज़ार वाले भी अब उधार देना बंद कर चुके थे। श्यामू की हालत दिन-ब-दिन बिगड़ती गई। बेटा शहर में नौकरी की तलाश में था, और मदद के लिए तुरंत नहीं आ सका।

   एक दिन अकेले घर में बैठा श्यामू पुराने दिनों को याद कर रहा था। उसकी आँखों में आँसू थे। उसे फ़कीर की बात याद आई—”वक्त से डरो…”

अब न शरीर में ताकत थी, न जेब में पैसे, न कोई सहारा।

       उसका बेटा सूरज जब नौकरी लगने के बाद गाँव लौटा, तो पिता को इतनी बुरी हालत में देखा। उसने तुरंत अपने बाबा का इलाज करवाया,डाक्टर को दिखाया — डाक्टर ने पूरे आराम की सलाह  दी क्योंकि ज्यादा काम करने  की वजह से शरीर जर्जर हो चुका था।घर बिल्कुल टूट गया था ।बेटे ने मरम्मत करवाई और पिता को आराम करने को कहा।

अब श्यामू धीरे-धीरे ठीक होने लगा, लेकिन अब काम करने लायक वो बचा ही नही था।वक्त ने सब शरीर की ताकत खींच ली थी।पर अब उसकी सोच बदल चुकी थी। वो वक्त की कीमत समझ चुका था। श्यामू गाँव के बच्चों को अब एक ही बात सिखाता:

“वक्त बहुत बलवान होता है। अगर वक्त की इज़्ज़त नहीं की, तो वक्त भी तुम्हारी इज़्ज़त नहीं करेगा।”

   “वक्त से डरो” चेतावनी है कि समय को हल्के में मत लो। वक्त हमेशा एक जैसा नहीं रहता। जो आज है, वो कल नहीं रहेगा। इसलिए हर पल की कदर करो, समय का आदर करो– कभी अहंकार ना करो कि कोई कुछ नही बिगाड सकतक—क्योंकि वक्त जब पलटता है, तो सब कुछ बदल सकता है। 

” वक्त तो अच्छे अच्छे शहंशाहों को भी खाक में मिला देता है।”

लेखिका:

डॉ आभा माहेश्वरी अलीगढ 

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