वक्त से डरना चाहिए – प्रतिभा भारद्वाज ‘प्रभा’

“ये रहे घर के कागज, इन्हें आप गिरवी रख लीजिए और मुझे 10 लाख रुपए दे दीजिए…..”प्रशांत ने सेठ दयाल जी से कहा।

“बेटा, मैंने तो तुमसे पहले ही कहा था जब तुमने मुझसे 1 लाख रुपए लिए थे कि ये कैंसर जैसी बीमारी होती ही ऐसी है…. न जाने कितना खर्च करवा दे कोई पता नहीं चलता….अब भी मेरी बात मानो समझदारी इसी में है कि जो तुम्हारे पास जमीन का टुकड़ा है उसे बेच दो वो लगभग 20 लाख में बिक

ही जाएगा जिससे तुम पुराना हिसाब भी कर दोगे और तुम ब्याज के बोझ से भी बच जाओगे …..वैसे मुझे गिरवी रख पैसे देने में कोई परेशानी नहीं है लेकिन तुम मेरे पुराने मित्र जगजीवन के बेटे हो

इसलिए समझा रहा हूं कि जितना तो तुम ब्याज दोगे उतने में फिर कोई प्लॉट खरीद लेना ….और भगवान न करे अगर तुम्हे कुछ हो गया तो तुम्हारे कर्ज का असर बच्चों पर भी पड़ेगा….”

सेठ दयाल जी की बात सुनकर प्रशांत सोच में पड़ गया और फिर कुछ सोचते हुए, “ठीक है तो मैं इस विषय में आज और विचार कर लेता हूं….लेकिन फिलहाल आप हो सके तो 1 लाख रुपए की मदद कर

दीजिए कम से कम कल सुबह तो स्मिता को डॉक्टर को दिखा दूं….फिर आकर जो भी फैसला करना होगा कर लूंगा और फिर आपको बता दूंगा….”

“हां ये मैं कर सकता हूं लेकिन मेरी बात पर विचार जरूर करना….” ऐसा कहकर सेठ दयाल जी ने प्रशांत को रुपए दे दिए।

प्रशांत रुपए लेकर आ तो गया लेकिन उसके मन में अन्तर्द्वंद चल रहा था आज वह अपनी पत्नी की बीमारी पर खुद को कितना असहाय महसूस कर रहा था …स्मिता जिसकी उम्र अभी लगभग 50 की

ही थी, उसे कैंसर था और उसके इलाज के लिए उसे दूसरों के आगे हाथ फैलाने पड़ रहे थे ….वह सेठ दयाल जी के सुझाव को लेकर भी किसी नतीजे पर नहीं पहुंच पा रहा था और इसी अन्तर्द्वंद में वह पुराने ख्यालों में खो गया…आज उसे अपने पापा की बहुत याद आ रही थी कि पापा बचत करने पर

इतना जोर क्यों डालते थे….

उसे याद आया कि जब वह छोटा था तब मम्मी हम तीनों भाई बहन के जन्मदिन पर हमें लेकर मंदिर जाती थीं और शाम को हमारे दोस्तों को घर पर ही बुलाकर घर पर खाना बनाकर खिला देती थीं

मतलब न किसी होटल में कोई पार्टी और न कहीं घूमना…..और कभी किसी महंगी चीज की फरमाइश पापा से करते तो वह भी नकार देते थे कि इसे लेने से क्या फायदा….इन सब बातों पर मुझे कभी कभी बहुत गुस्सा आता था।

एक बार एक जन्मदिन पर प्रशांत ने अपने पापा से कहा, “पापा! अब मैं बड़ा हो गया हूं मुझे नहीं अच्छा लगता ऐसे जन्मदिन मनाना, इस बार क्यों न किसी होटल में पार्टी मनाएं…..”

“बेटा, यही तो मैं कह रहा हूं कि अब तुम बड़े हो गए हो इसलिए ये फिजूल की पार्टियों में ध्यान न देकर पढ़ाई पर ध्यान दो…..पार्टियों का क्या है….इनसे अच्छा सुबह सुबह मंदिर जाकर भगवान का

आशीर्वाद लो और फिर अपने काम पर ध्यान दो….एक बार सफल हो गए तो पार्टियां तो होती रहेगी जिंदगी भर…..”

अपने पिता की ये बातें सुन प्रशांत भड़क गया, ” ये क्यों नहीं कहते आप कि आप कुछ खर्च करना ही नहीं चाहते, बस आपसे हर बार कोई न कोई बहाने बनवा लो ……न कहीं बाहर घूमने ले जाते हैं…न

यहां पार्टी करने देते हैं….और तो और अगर किसी सामान की कहो तो उसमें भी ये देखेंगे कि कितना जरूरी है….”

” देखो बेटा, ये सब फिजूल खर्च है यदि ऐसे ही खर्च करते रहे तो तुम्हारी पढ़ाई का खर्चा है, तुम्हारी दोनों बड़ी बहनों की शादी भी करनी है….और फिर वक्त का कुछ पता नहीं कि कब क्या हो

जाए….कब कौन से मोड़ पर लाकर खड़ा कर दे….कम से कम भविष्य को देखते हुए तो चलना चाहिए और इसी में समझदारी है….”

पिता की इन सब नसीहतों से प्रशांत चुपचाप मन मारकर रह जाता।

कुछ सालों में दोनों बड़ी बहनों की शादी के बाद प्रशांत की शादी का समय आया तब तक वह एक अच्छी कंपनी में जॉब भी करने लगा था अतः मनमाने ढंग से खर्च करने लगा था।

उसका खर्च देखकर लगता था कि वो अपनी सारी अधूरी ख्वाहिशों को जल्द ही पूरा करना चाहता है….आधुनिकता की चकाचौंध में वह यह भूल ही गया कि अपनी चादर के अनुसार ही पैर फैलाने

चाहिए और इसी वजह से उसने कंपनी से कुछ कर्ज लेकर अपनी शादी में आवश्यकता से अधिक खर्च कर दिया….यदि उसके पापा कुछ कहते तो समझने के बजाय उल्टा कह देता कि आपने तो

अपनी जिंदगी में कुछ किया नहीं और हमें भी मना कर रहे हो….. इसे सुनकर बेचारे जगजीवन जी भी चुप हो जाते।

ऐसे ही समय व्यतीत हो रहा था कि अचानक विवाह के कुछ समय बाद

“पापा, आजकल ऐसे पुराने मकानों में कौन रहता है और वो भी इस छोटे से कस्बे में….मैं सोच रहा हूं कि क्यों न शहर में एक फ्लैट ले लें….”

जगजीवन जी उसकी मंशा को समझ चुके थे फिर भी उन्होंने कहा, ” बेटा पागल हो गए हो तुम, इन मकानों में तुमको बुराई नजर आ रही है जिनमें जमीन भी अपनी और छत भी ….और वो फ्लैट जिनमें

हवा पानी भी मुश्किल से नसीब होता है उसे अच्छा कह रहे हो…..वैसे तुम अपनी मनमर्जी करने ही लगे हो तो मैं ज्यादा मना भी नहीं करूंगा…..लेना हो तो ले लो ….”

“पापा आप इनमें रह रहे हो इसलिए आपको ये अच्छे लग रहे हैं एक बार शहर में फ्लैट में रहोगे तो वहां आपको अच्छा लगेगा…. मैंने तो फ्लैट लेकर शहर में ही रहने का मन बना लिया है फिर आप और मम्मी यहां अकेले क्या करोगे आप भी हमारे साथ ही रहना …”

उसकी बातें सुन जगजीवन जी के बोलने से पहले ही उसकी मां सुषमा जी भड़क गईं, ” देख बेटा तेरी बातों को हम अच्छी तरह से समझ रहे हैं और ये ध्यान रख कि तू चाहे जहां रहे लेकिन हम तेरे साथ

नहीं जाएंगे….अरे तू क्या जाने कि एक एक पाई जोड़कर अपने सपनों का मंदिर बनाने में कितनी यादें

जुड़ जाती हैं तुझे तो आजकल की चकाचौंध में न तो कुछ दिखाई देता है और न सुनाई…. मैं इस घर को छोड़कर कहीं नहीं जाऊंगी ….”

“और बेटा, ये जो तुम सोच रहे हो न कि हम इस मकान को बेच दें तो ये तो असंभव है क्योंकि ये जमीन मेरे पूर्वजों की है इसमें उनका आशीर्वाद सम्मिलित है इसलिए जीते जी तो मैं इसे बेचने से रहा …..”जगजीवन जी ने कहा

” पता नहीं आप कब तक रूढ़िवादी सोच में रहकर पुरानी जिंदगी जीएंगे…..अरे निकल कर देखो यहां से कि दुनिया कहां से कहां तक पहुंच गई और आप हो कि यहीं की यहीं अटके हुए हो….और हमें भी यहीं पिछड़ी हुई जिंदगी जीने की सलाह दे रहे हो…..”

“प्रशांत! जिसे तुम पिछड़ी हुई जिंदगी कह रहे हो न…. इसी की वजह से तुम यहां तक पहुंचे हो अगर हम चाहते तो हम भी अपने शौक पूरे कर सकते थे….और तुम आज कहीं छोटी मोटी नौकरी कर जिंदगी में धक्के खा रहे होते….” जगजीवन ने गुस्से में कहा

“तो कौन सा अहसान कर दिया आपने….सभी मां बाप अपने बच्चों के लिए करते हैं …..और रही बात धक्के खाने की तो अब भी हम किराए के मकान बदलते बदलते परेशान हो गए हैं और अगर मैं यहां

से अप डाउन करता हूं तब भी बहुत परेशानी होती है तभी सोचा कि क्यों न एक फ्लैट ले लें लेकिन

नहीं आपको तो जैसे हमारी कुछ पड़ी ही नहीं है…..हमारी परेशानी से आपको कोई फर्क नहीं पड़ता……..”प्रशांत ने भी गुस्से में आकर कह दिया 

फिर थोड़ा संयम बरतते हुए,”ठीक है अगर आप घर बेचकर हमारे साथ नहीं चलना चाहते तो कम से कम जो खाली पड़ा प्लॉट है जिसे आपने खरीदा था उसी को बेच दीजिए तो कुछ तो मदद हो जाएगी

कुछ मेरी सेविंग्स है ही अगर फिर भी कम पड़ा तो लॉन ले लूंगा…..वैसे भी तो जो आपका है वो मेरा ही है तो खाली प्लॉट बेचने में तो कोई परेशानी नहीं है…..”

“बेटा, मै अब भी कह रहा हूं कि वक्त से डरना सीखो, ये कब कौन सा गुल खिला दे कोई पता नहीं….खैर जब तुमने इतना कह दिया है तो मुझे सोचने के लिए कुछ समय दो….”

कुछ दिन बाद दुखी मन से जगजीवन जी ने वो प्लॉट बेच दिया उनके इस दुख को प्रशांत ने महसूस करके भी अनदेखा कर दिया और कुछ दिन बाद ही खुशी खुशी शहर में एक फ्लैट ले लिया और

आलीशान पार्टी दी जिसमें जगजीवन जी और सुषमा जी भी अपने दुख भूल बेटे की खुशी में खुशी शामिल हुए थे। 

पहले प्रशांत अपने परिवार के साथ जब कभी घर चला जाता था और समय होता तो उसकी पत्नी स्मिता और बच्चे कुछ दिन रह भी जाते थे लेकिन अब प्रशांत और उसका परिवार अपने माता पिता के पास केवल जरूरी त्यौहार या किसी कार्यक्रम आदि में ही जाते जिसे जगजीवन जी और सुषमा जी ने

महसूस किया था और इसी वजह से दुखी रहने लगे थे…..सुषमा जी इस दुख को सहन नहीं कर पाईं और 1 साल बाद ही परलोक गमन कर गईं उनके जाने के कुछ समय बाद जगजीवन जी का स्वास्थ्य भी खराब रहने लगा जिसकी वजह से प्रशांत ने बहुत समझाकर उनका वह मकान भी बिकवा दिया

और उन्हें अपने साथ शहर ले आया और मकान के पैसों से जगजीवन जी की शर्त के अनुसार शहर में ही एक छोटा सा प्लॉट ले लिया क्योंकि जगजीवन जी ने मकान बेचने पर यही शर्त रखी थी कि जिस दिन मकान बिकेगा उसी दिन वह उन रुपयों से कोई प्लॉट खरीद लेगा ….उनके अनुसार जमीन के

बदले जमीन लेने में ही समझदारी थी वरना तो कितना भी धन हो पता ही नहीं चलता कि कब व्यर्थ खर्च हो गया। इस घटना के कुछ सालों बाद जगजीवन जी की भी बीमारी के चलते मृत्यु हो गई…उनके इलाज में भी बहुत पैसा लग गया था ….फिर अब प्रशांत के दोनों बच्चे भी बड़े हो गए थे उनकी पढ़ाई

का खर्च…..फ्लैट की ईएम आई, कार की ई एम आई और घर की बाकी जरूरतें पूरा करते करते प्रशांत को अपना वेतन जिसे वह बहुत समझता था अब पता ही नहीं चलता था और इस पर अब

उनकी पत्नी की बीमारी ने उसे चारों तरफ से तोड़कर रख दिया…..आज उसे अपने पिता की नसीहतों की रह रहकर याद आने लगी कि दिखावे में कुछ नहीं रखा है, व्यक्ति को अपनी हैसियत के अनुसार असल जिंदगी जीनी चाहिए और वक्त को ध्यान में रखते हुए चलना चाहिए

तभी फोन की रिंग से प्रशांत अपनी सोच से बाहर आया

“हैलो पापा! डॉक्टर ने क्या कहा, मम्मी कब तक ठीक हो जाएगी…..”बेटे ने पूछा जो कि इस समय दूसरे शहर हॉस्टल में रह रहा था और छुट्टियों में घर आता था।

“बेटा, जल्दी ही हो जाएंगी तुम अपनी पढ़ाई पर ध्यान दो, ये तुम्हारा अंतिम साल है….और हां अपना ख्याल रखना यहां मैं हूं सब संभाल लूंगा…..” प्रशांत ने बेटे को झूठा आश्वासन देते हुए कहा क्योंकि वह नहीं चाहता था कि वो ज्यादा परेशान हो जाए।

फोन रखने के बाद उसने उस प्लॉट के कागज निकाले और बेचने का निर्णय किया जिससे अब तक लिया सभी कर्ज चुकाने के बाद पत्नी का इलाज भी करा सके…..वह नहीं चाहता था कि अगर उसे कुछ हो गया तो उसके कर्ज का असर उसके बच्चों पर पड़े…..आज उसे महसूस हुआ कि जिस ऐशो आराम के लिए वह कर्ज ले चुका था अगर नहीं लिया होता तो आज ये स्थिति नहीं आती जिस कार की वह

जितनी कीमत वह चुका चुका था उतना तो उसे बेचकर भी नहीं मिलती और जिस प्लॉट को उसने बिना मन के पिता की शर्त की वजह से खरीदा था वह आज इतनी कीमत दे रहा है कि कर्जमुक्त

करके इलाज भी हो जाएगा….आज उसे अहसास हो गया था कि वक्त पर किसी का वश नहीं चलता, इसे पलटते देर नहीं लगती इसलिए वक्त से डरना ही चाहिए वरना बाद में पछताने के अलावा कुछ नहीं बचता।।

प्रतिभा भारद्वाज ‘प्रभा’

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