वादा … – अर्चना सिंह : Moral Stories in Hindi

अक्सर लोगों के मुँह से सुना है कि रूप से ज्यादा गुण का महत्व है । पर मैं नहीं मानती, मेरे साथ तो हर कदम हर मोड़ पर मेरे अपनों ने ही मुझे रूप की वजह से अनदेखा किया है ।

मैं पूर्णिमा ! सिर्फ नाम ही अच्छा रखा माँ – बाप ने , ज़िन्दगी में मेरे हमेशा ग्रहण ही रहा । हम दो बहनें गरिमा दीदी बड़ी और मैं पूर्णिमा छोटी बहन । हमारा एक भाई दीपक जो हम दोनों बहनों से छोटा । आज तक समझ नहीं पाई मेरा कसूर क्या था । रंग से थोड़ी साँवली ही तो थी, दाँत हल्के से बाहर की ओर निकले हुए थे ।

मेरे हाथ में तो कुछ नहीं था न । गरिमा दीदी रंग से गोरी और रूप से भी सुंदर थी इसलिए वो सबकी चहेती थी । कोई भी रिश्तेदार या परिवार आता तो मम्मी मुझे लगाती हाथ बंटाने के लिए और गरिमा दीदी को सिर्फ आराम करने की सलाह दी जाती । शायद ही कोई ऐसा दिन रहा हो जब मुझे बगैर काम किये पेट भर खाना मिला हो । रिश्तेदार उन्हें पैसे और उपहार भी ज्यादा देकर जाते ।

पूजा वाले दिन विन्नी आंटी ने मम्मी से खुल कर कह भी दिया था…”रश्मि ! पूर्णिमा को देखकर कोई कहेगा नहीं कि इस घर की बेटी है । दीपक और गरिमा जैसी ये बिल्कुल नहीं है । मम्मी चाहतीं तो विन्नी आंटी का विरोध करके उनका मुँह बंद करा सकती थीं पर उन्होंने जरूरी नहीं समझा । मम्मी का कहना था कि मैं पापा के खानदान पर गयी हूँ और उनके यहाँ कोई अच्छा नहीं दिखता । 

हरि अंकल के यहां जब एक दिन जन्मदिन पार्टी में गयी तो मम्मी- पापा ने गरिमा दीदी की पहनी हुई सफेद फ्रॉक दिखाकर उसके  बारे में बताया कि वो बहुत शौकीन है और मेरे बारे में इतना ही बताया कि इसके ऊपर कोई रंग नहीं जमता । रोज टूटती और रोज जुड़ती थी मैं । दीदी को भी मुझ पर शासन करने की आदत हो गयी थी जैसे ।

धीरे- धीरे बड़ी होती गयी । मामा – मौसी भी हमारे घर आते तो लाड़ दीदी से लगाते और मुझे कामों में उलझा देते । हर जगह दीदी के रूप की बखान चलती थी । धीरे – धीरे हम बड़े हुए । 

स्नातकोत्तर करने के बाद दीदी ने अपने पसन्द के लड़के से शादी कर ली । तरुण जीजा जी बहुत अच्छे पद पर रेलवे में अधिकारी थे । मन को बहुत खुशी मिली कि शायद दीदी की सोच बदल जाए और मेरे प्रति कड़वाहट कम हो जाए इतने धनी सम्पन्न और अच्छे लोगों के घर गयी है तब । अब मम्मी और भाई का स्नेह भी मेरे लिए बढ़ जाएगा । 

पर सोची हुई बात कब सही होती है  ।  ससुराल में भी दीदी की अच्छे से नहीं निभ सकी ।रिश्तेदारों में भी ये खबर अंदर अंदर फैल गयी कि दीदी सिर्फ अपनी मनमानी करती रहती हैं । ससुराल में किसी को वो नहीं समझती इसलिए उनकी किसी से नहीं बनती ।

सारे काम से निश्चिंत होकर बैठना चाहती तो दीपक कुछ न कुछ काम  मुझे थमा ही देता ।

पापा की घर में एक नहीं चलती थी । बाजार से सब्जी लाना, दूध लाना सब मेरे ही जिम्मे था । घर आकर खाना बनाने में मदद करना, सबको खाना- पानी देना मेरे ही हिस्से में था । सब एक काम करके थक जाते थे । उस घर मे एक मैं ही थी शायद जो बिना रुके बिना थके लगी रहती थी । अब दीपक के लिए लड़की देखी जाने लगी । चारु हम सबको बहुत पसंद आई दीपक के लिए । 

शादी की तैयारियाँ ज़ोर – शोर से चल रही थीं ।  शादी में मीरा चाची ने पूछा भी मम्मी – पापा से की पूर्णिमा की शादी अभी नहीं करना ? बेटे से पहले इसका ही कर देते तो अच्छा होता । माँ ने मुझे तरेरते हुए मुस्कुराकर कहा…”सोचने से क्या होगा पहले कोई लड़का इसे पसन्द तो करे ।एक तो रंग दबा हुआ

ऊपर से बाहर निकले दाँत, कौन पसन्द करेगा ? पर कोई बात नहीं घर में हमारे देखभाल के लिए तो रहेगी न ।माँ के घर से विदा होकर चारु भाभी हमारे घर आ गयी । हर घड़ी एक नई उम्मीद लगाए रहती मैं की शायद अब मेरी ज़िंदगी मे अच्छा दिन आए । पर चारु भी घर वालों का मेरे प्रति व्यवहार देखकर सब सीख गयी थी ।

वो भी अपनी मर्जी से आराम करती और मेरी पढ़ाई से ध्यान हटाकर खाना बनाने में मुझे लगा देती । मम्मी – पापा को ये सब दिखता था लेकिन न जाने क्यों मेरे लिए उनके दिल मे कोई हमदर्दी ही नहीं थी । चारु के साथ जिस काम मे भी हाथ बंटाने जाती वो पूरा काम मेरे ज़िम्मे करके खिसक लेती थी।

शादी में रस्मों के दौरान भी जो उपहार मिले वो भी गरिमा दीदी ने मुझसे पहनने के बहाने मांग लिया और लौटाया भी नहीं ।

कुछ आँसुओं को बहा के कुछ आँसुओं को पी के जिए जा रही थी ।

लगभग दो साल हो गए दीदी की शादी को । फिर हमारे ऊपर वाले मकान में एक किरायेदार आए नमन अंकल ।  नमन अंकल ने मम्मी को अपने भतीजे  पवन से मिलवाया जो सॉफ्टवेयर इंजीनयर थे । पवन ने कई महीनों तक मुझे गौर किया, समझा और शादी के लिए घरवालों से सहमति ले ली । कोई पहला इंसान था

जिसने मेरी इतनी तारीफ की और खुद के लिए मुझे पसन्द किया । घबराहट भी थी मन में कहीं न कहीं की कोई मुझे कैसे पसन्द कर सकता है । पर अंदर ही अंदर बहुत खुश थी कि मुझे इतना अच्छा जीवन साथी मिला । अथाह धन तो नहीं था पवन के पास लेकिन जरूरत भर बिल्कुल था ।

घर – परिवार भी सब देख के समझ आ रहे थे बिल्कुल शांत और शालीन । लग रहा था अब इन रिश्तों के बगैर चैन से जीवन काटूँगी और अपनी  दुनिया में ध्यान मग्न और मस्त रहूँगी ।

शादी के ग्यारह दिन बाद बाद मम्मी के घर में पूजा थी । हम दोनों बहनें गए । दीदी को देखकर मेरी भावनाएँ स्वतः ही बाहर बिखरने को तैयार थीं ।जी चाह रहा था पता नहीं क्यूं गले लगकर फूट- फूट कर रोऊँ ।मैंने आगे बढ़कर गरिमा दीदी से गले लगकर कहा… कभी मिलने आया करो दीदी ।

दीदी ने अपने गले से मेरा सिर हटाते हुए फीकी मुस्कान बिखेरकर बस इतना ही कहा ..हूं ! अभी हटो बाकी लोगों से मिलकर आती हूँ । सारी भावनाएं फिर से खुद में सिमट कर रह गईं । मम्मी ने आवाज़ दी..पूर्णिमा ! प्रसाद और खीर बनाना है बेटा ! आ जाओ ।वापस  वास्तविक दुनिया में मैं लौटी हो जैसे ।

मैं बरामदे में बैठी काम कर रही थी । पवन जी की नजरें मुझे ढूंढ रही थीं । रिश्तेदारों की उस भीड़ में सिर्फ मैं ही शामिल नहीं थी । गरिमा दीदी सबके साथ घुल – मिलकर हँसी ठिठोली में लगी हुई थीं । आखिरकार पवन जी ने मुझे देख ही लिया । उन्होंने मेरे साथ मिलकर खीर और प्रसाद बनवाया

फिर मुझे सबके सामने जाने की ज़िद करने लगे ।  खीर की आँच बंद करते ही गरिमा दीदी आ गईं और मुझे कनखियों से निहार कर मन में ये बोलते हुए गयीं हो जैसे…”इसकी किस्मत देखो, इसके पति इसको कितना चाहते हैं अच्छी नहीं दिखती है तो भी । पूजा के बाद सबके जाने का समय हुआ तो तरुण जीजू ने हम दोनों को आने के लिए निमंत्रण दिया । हमने भी आने का वादा किया और घर लौट आए । 

घर आने पर पवन जी ने कहा..”दीदी से तुम्हारी बनती नहीं क्या ? अचानक उनके मुंह से इतनी बड़ी बात सुनकर अवाक रह गयी मैं । उनसे इस सवाल की बिल्कुल भी उम्मीद नहीं थी । सवालिया नज़रों से मैंने उन्हें देखा तब तक उन्होंने कहा…”तरुण जी बोल रहे थे वो बहुत परेशान रहते हैं ,

तुम्हारी दीदी ससुराल के किसी भी लोगों से बनाव नहीं रखना चाहती हैं । पहले वो किसी को नहीं पूछती थीं अब उन्हें कोई नहीं पूछना चाहता ।ऑफिस में व्यस्तता के कारण वो छुट्टी ज्यादा ले नहीं सकते । घबराहट , सीने में दर्द, चक्कर जैसी समस्या हुई, जांच कराने ले गए तो अभी रिपोर्ट नहीं आयी है ।

मेरे पास अब बोलने को कुछ नहीं था   । मुझे मेरे हर सवालों का जवाब मिल गया था । दो दिन बाद अचानक मायके से फोन आया । मम्मी नहीं रहीं, ब्रेन स्ट्रोक से खत्म हो गईं । एक समस्या सुलझ नहीं पाई और दूजी खड़ी हो गयी । वहां भी दीदी नहीं आईं थी सिर्फ जीजू आये थे । पूछने पर उन्होंने चिड़चिड़े अंदाज़ में कहा..”उसकी तबियत ठीक नहीं रहती ।

पन्द्रह दिन बाद जब मायके से लौटी तो थकान के कारण नींद लग गयी थी । दरवाज़े की घन्टी बजी तो नींद खुली । 

धुंधला सा दिख रहा था चेहरा…एक बेजान दुबली सी औरत, आंखें धँसी और सुजी हुई । निढाल सा चेहरा ।  एकदम गरिमा दीदी जैसी लगी ।पीछे से जीजू पार्किंग में गाड़ी लगाकर आए । अब साफ पहचान में आ रहा था । गरिमा दीदी का ये हाल..? आँखों पर यकीन नहीं हुआ ।

पवन आकर बोले..”अरे ! खड़ी क्यों हो बुलाओ दीदी को अंदर । “तरुण जीजू ! दीदी को क्या हुआ ? उन्होंने कहा…”सम्भालिए दीदी को, डॉक्टर ने कहा गहरे अवसाद में चली गयी हैं । तनावग्रस्त , अकेलेपन का शिकार हो गयी हैं और अपनों के साथ जितना हो सके रहने की सलाह दिया है । दवा के साथ साथ पूरी चीजें खुशियाँ और माहौल पर निर्भर है ।

पूर्णिमा एक कदम अपनो के नाम से आगे बढ़ाई फिर वो ठिठक के एक कदम पीछे हो गयी । दीदी का अपना कुछ बचा ही नहीं था सुंदरता और दिखावे के चक्कर मे वो सबसे दूर होते चली गईं । जीजू ने गरिमा दीदी को पकड़कर मेरी बाहों में सौंपा और मुझे लगा

उनसे ज्यादा तो अकेलेपन की शिकार मैं हो गयी । उनकी तकलीफ बीमारी बनकर सामने आ गयी, और मेरा क्या जो घुट- घुट कर दर्द को पी गयी । कई मौत मरी और ज़िन्दगी भी जी गयी । दहाड़ मारकर खूब ज़ोर से बरसों की दबी हुई रुलाई फूट पड़ी ।दीदी का प्यार और साथ मिला भी तो इस हालत में । 

जीजू का निराश चेहरा देखकर मैंने वादा किया..दीदी पहले जैसी खिलखिलाती मिलेगी जीजू । अब मेरा काम है उन्हें खुश और स्वस्थ रखना ।

मौलिक, स्वरचित

अर्चना सिंह 

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