बड़े शहर की तेज़ रफ़्तार में, जहाँ हर कोई अपनी धुन में भागा जा रहा था, वहीं एक घर की पहली मंज़िल पर, आरोही ने अपना नया ठिकाना बनाया था। वह एक अनाथ लड़की थी ( माता पिता की एक एक्सिडेंट में मृत्यु होने के बाद दूर के रिश्तेदारों ने भी अपना पल्ला झाड़ लिया था ये सोचकर की अकेली लडकी की जिम्मेदारी कौन उठाए ) ,
जो अपने छोटे से शहर को पीछे छोड़, अपने सपनों को पूरा करने के लिए यहाँ नौकरी करने आई थी। उसके भीतर एक शांत दृढ़ता थी, और आँखों में भविष्य के लिए एक चमक। लेकिन, साथ ही, अकेलेपन का एक बोझ भी था, जिसे वह किसी को दिखने नहीं देती थी। मकान मालिक थे रमेश जी और उनकी पत्नी सुधा जी।
रमेश जी का स्वभाव थोड़ा सख्त था, उनकी आवाज़ में एक अनकही गंभीरता थी। उनके बच्चे कई साल पहले विदेश जा बसे थे, और शायद यही खालीपन उनके सख्त व्यवहार का कारण था। सुधा जी ममतामयी थीं, उनके चेहरे पर हमेशा एक सहज मुस्कान रहती थी, पर बच्चों से दूर होने का दर्द उनकी आँखों में भी झलकता था।
शुरुआत में, आरोही और अंकल-आंटी के बीच का रिश्ता पूरी तरह व्यावसायिक था। आरोही सुबह अपनी नौकरी पर जाती, शाम को लौटकर अपने कमरे में दुबक जाती। रमेश जी किराए के कागज़ात और नियमों की बात करते, और सुधा जी बस कुशलक्षेम पूछ लेतीं। आरोही को भी लगता था कि बड़े शहर में रिश्ते ऐसे ही होते हैं – औपचारिक और सतही।
लेकिन, धीरे-धीरे, उन सभी लोगों में ‘विश्वास की डोर’ बनने लगी। एक दिन आरोही बीमार पड़ी, तेज़ बुख़ार में अकेली बिस्तर पर पड़ी थी। सुधा जी को पता चला तो वे बेताब हो उठीं। अपने बच्चों की याद उन्हें सताने लगी, और वे आरोही के लिए सूप और खिचड़ी बनाकर लाईं।
रमेश जी से भी डॉक्टर को बुलाने की ज़िद करने लगी। उनकी इस सहज ममता ने आरोही का संकोच खत्म करने में मदद की । उसे लगा, यह सिर्फ एक कमरा नहीं, एक घर है।
आरोही ने जब ठीक महसूस किया, तो वह भी इस स्नेह का मोल समझ गई। उसने देखा कि अंकल-आंटी के बच्चे विदेश में रहते हैं, और वे दोनों अक्सर अकेले ही रहते हैं। आरोही ने अपनी ओर से उनके लिए छोटी-छोटी चीजें करनी शुरू कर दीं। कभी वह आंटी के लिए बाज़ार से सब्ज़ियाँ ले आती,
तो कभी रमेश जी के अख़बार और चश्मे को सही जगह पर रख देती। उसने उनके लिए चाय बनाना शुरू किया और कभी-कभी छुट्टी के दिन उनके साथ बैठकर बातें करती। धीरे-धीरे, इन छोटे-छोटे पलों ने उनके बीच की दूरी मिटा दी। आरोही अब सिर्फ एक किराएदार नहीं थी, बल्कि उनके घर का एक अभिन्न अंग बन चुकी थी।
वह उनके साथ सुबह की चाय पर बैठकर दिनभर की बातें करती, आंटी के साथ किचन में हंसी-मज़ाक करती और रमेश जी के साथ शाम की सैर पर निकल जाती।
अंकल-आंटी के लिए वह उनकी बेटी जैसी थी, और आरोही के लिए वे माता-पिता का वो साया थे, जिसकी उसे हमेशा तलाश थी। उसके हर सुख-दुख में वे साथ खड़े होते, और वह भी उनकी हर ज़रूरत का ख्याल रखती।
यह रिश्ता सिर्फ एकतरफा नहीं था। एक बार, रमेश जी के पेंशन से जुड़े कागज़ात में कुछ दिक्कत आ गई। ऑनलाइन प्रक्रिया उन्हें समझ नहीं आ रही थी, और बच्चों की मदद दूर थी। आरोही ने अपनी तकनीकी जानकारी और धैर्य से उनकी पूरी मदद की, घंटों बैठकर सारे फॉर्म भरे और ऑनलाइन आवेदन किया, जिससे उनकी समस्या सुलझ गई।
इसी तरह, सुधा जी एक बार बाज़ार में गिरते-गिरते बचीं और उनका पैर मुड़ गया। आरोही ने न केवल उन्हें सहारा दिया, बल्कि कई दिनों तक उनके लिए घर के काम में हाथ बँटाया और उनकी देखभाल की। जब भी अंकल-आंटी को डॉक्टर के पास जाना होता, या बिजली-पानी के बिल जमा करने होते, तो आरोही बिना किसी हिचकिचाहट के उनके साथ जाती और सारे काम निपटाती।
जब भी अंकल-आंटी अपने बच्चों की याद में उदास होते या उनकी शिकायत करते कि वे उनसे मिलने नहीं आते, तो आरोही उनके पास बैठती। वह सिर्फ़ सुनती नहीं, बल्कि उन्हें अपनेपन का अहसास दिलाती और कभी-कभी ऐसी बातें कहती जो उनके मन को सुकून देतीं। इन मुश्किल पलों में, जब उन्हें अपने बच्चों की कमी सबसे ज़्यादा महसूस हुई,
आरोही ने वह सहारा दिया जिसकी उन्हें सबसे ज़्यादा ज़रूरत थी। उनके लिए आरोही अब सिर्फ़ बेटी ही नहीं, बल्कि एक भरोसेमंद साथी और सहारा बन चुकी थी। अब ये सिर्फ एक ‘विश्वास की डोर’ नहीं थी, बल्कि एक अटूट और अदृश्य पारिवारिक बंधन था। यह रिश्ता इतना गहरा हो गया था कि अब वे एक-दूसरे के बिना अपने जीवन की कल्पना भी नहीं कर सकते थे।
सब कुछ सामान्य चल रहा था, तभी एक दिन एक भयानक तूफान आया, जिसने आरोही के छोटे से संसार को तहस-नहस कर दिया। उसके दफ़्तर के एक नए सहकर्मी ने, उसे एक ‘ज़रूरी कूरियर पैकेट’ भेजने को कहा। ये आरोही का काम भी नहीं था , लेकिन उस सहकर्मी ने आरोही से कहा की वह किसी जरूरी काम में फंसा है और ये बोहोत अर्जेंट कोरियर है ।
अगर समय से नहीं पहुंच पाया तो उसकी नौकरी के लिए खतरा है । आरोही ने सोचा किसी की मदद हो जाएगी । आरोही को ज़रा भी अंदाज़ा नहीं था कि उस पैकेट में क्या है। उसने बिना सोचे-समझे उसे पोस्ट कर दिया। कुछ ही दिनों बाद, पुलिस ने उसके कमरे पर छापा मारा।
रमेश जी और सुधा जी भी स्तब्ध रह गए। पुलिस ने दावा किया कि आरोही के पते से एक अंतर्राष्ट्रीय ड्रग्स रैकेट का खुलासा हुआ है, और उसके कमरे से भी प्रतिबंधित ड्रग्स बरामद हुए हैं। आरोही चीखती रही,
अपनी बेगुनाही का दावा करती रही, लेकिन पुलिस ने उसकी एक न सुनी। उसे गिरफ्तार कर लिया गया, और कुछ ही घंटों में यह ख़बर मीडिया में फैल गई।
शहर के अख़बारों और न्यूज़ चैनलों पर ‘ड्रग्स रैकेट में फँसी युवा लड़की’ की हेडलाइनें छा गईं। आरोही को तुरंत ‘अपराधी’ और ‘नशेड़ी’ का तमगा दे दिया गया।
उसके सहकर्मियों ने उससे दूरी बना ली, कुछ ‘दोस्त’ मुकर गए, और दूर-दराज़ के उसके कुछ रिश्तेदार, अगर थे भी, तो बदनामी के डर से उन्होंने भी पल्ला झाड़ लिया। वह अकेली रह गई, बेबस और लाचार, एक काल कोठरी में बंद।
रमेश जी और सुधा जी यह सब देख कर सदमे में थे। उनके कानों में पड़ोसियों के फुसफुसाहटें और रिश्तेदारों के फोन पर ताने गूँजने लगे—”उस लड़की से दूर रहो”, “पता नहीं कौन से धंधे में फँसी थी”, “तुम्हारे घर में ऐसे लोग!”। उनके मन में भी क्षण भर के लिए संदेह आया। क्या उन्होंने पहचानने में गलती कर दी थी?
क्या आरोही इतनी भोली नहीं थी जितनी दिखती थी? लेकिन, जब वे पुलिस स्टेशन में आरोही से मिलने गए, तो उसकी आँखों में उन्हें भय और बेबसी दिखी, लेकिन कोई झूठ नहीं। उसे देखकर सुधा जी का मातृत्व जाग उठा। उन्हें याद आया कैसे आरोही ने उनकी हर छोटी-बड़ी बात का ध्यान रखा था, कैसे उसकी आँखों में हमेशा सच्चाई झलकती थी।
रमेश जी को भी अपनी सीधी-साधी बेटी जैसी दिखने वाली आरोही की ईमानदारी पर विश्वास था। एक गहन विचार-विमर्श के बाद, उन्होंने एक ऐसा अभूतपूर्व निर्णय लिया, जिसने उनकी बची हुई ज़िंदगी को दांव पर लगा दिया – वे आरोही पर विश्वास करेंगे और उसे बचाएंगे, चाहे कुछ भी हो जाए।
रमेश जी ने अपनी सारी बचत और सुधा जी के गहने बेचकर एक महंगा वकील किया। उन्हें सामाजिक बहिष्कार का सामना करना पड़ा। उनके कुछ पुराने दोस्त उनसे बात करना बंद कर दिया, पड़ोसियों ने मुंह मोड़ लिया। पुलिस ने भी उन पर दबाव डाला कि वे ‘अपराधी’ का साथ न दें। लेकिन, ‘विश्वास की डोर’ उन्हें बांधे हुए थी।
वे हर रोज़ आरोही से मिलने जाते, उसे हिम्मत देते, उसे बताते कि वे उस पर विश्वास करते हैं। आरोही के लिए उनकी यह अटूट विश्वास ही एकमात्र सहारा था, जिसने उसे जेल की अंधेरी दीवारों के बीच भी ज़िंदा रखा। वकील ने रमेश जी और सुधा जी के साथ मिलकर सबूत जुटाने शुरू किए। यह एक मुश्किल और खतरनाक काम था। उन्हें उन इलाकों में जाना पड़ा
जहाँ वे कभी नहीं गए थे, उन लोगों से बात करनी पड़ी जो संदिग्ध लगते थे। कई बार उन्हें धमकियाँ मिलीं, लेकिन उन्होंने हार नहीं मानी। रमेश जी की दृढ़ता और सुधा जी की प्रार्थना ने उन्हें आगे बढ़ाया।
कई हफ़्तों की कड़ी मेहनत और कई निराशाजनक सुनवाई के बाद, आखिरकार एक दिन उन्हें एक महत्वपूर्ण सुराग मिला। वकील ने उस सहकर्मी को ढूंढ निकाला जिसने आरोही को पैकेट दिया था, और कुछ और सबूतों के साथ यह साबित हो गया कि आरोही को एक बड़े ड्रग्स रैकेट ने मोहरे के रूप में इस्तेमाल किया था। असली अपराधी पकड़े गए।
न्यायालय ने आरोही को सभी आरोपों से बरी कर दिया। जब वह जेल से बाहर आई, तो उसे लेने वाले सिर्फ रमेश जी और सुधा जी थे। मीडिया, जो उसे पहले अपराधी बता रहा था, अब उसकी बेगुनाही का ढोल पीट रहा था।
लेकिन आरोही के लिए यह सब मायने नहीं रखता था। उसकी आँखें सिर्फ अंकल-आंटी को ढूंढ रही थीं। उसने दौड़कर उन्हें गले लगा लिया, और उसकी आँखों से खुशी और कृतज्ञता के आँसू बहने लगे।
आरोही अब सिर्फ एक किराएदार नहीं थी, वह उनके लिए अपनी बेटी बन चुकी थी। रमेश जी का सख्त चेहरा अब स्नेह से भरा रहता था, और सुधा जी की ममता की कोई सीमा नहीं थी। उनके बीच का रिश्ता खून के रिश्ते से भी ज़्यादा गहरा और मजबूत हो गया था,
जो ‘विश्वास की डोर’ से अटूट रूप से बंधा था। आरोही ने अपना जीवन फिर से शुरू किया, लेकिन अब वह अकेली नहीं थी। उसे एक ऐसा परिवार मिल गया था, जिसने अंधेरे में भी उस पर विश्वास किया, और यही विश्वास की डोर अब उसके जीवन का सबसे मजबूत आधार थी।
यह कहानी बताती है कि कैसे सच्चा विश्वास, जब हर कोई साथ छोड़ देता है, तो एक अनजान रिश्ते में भी जीवन की सबसे बड़ी शक्ति बन जाता है।
समाप्त
मीनाक्षी गुप्ता