निशा की कालिमा ने अपने पैर पसार लिए थे ।सभी सोने चले गए थे , दादी भी सो गई पक्की नींद में । दस बरस की छोटी सी सुगन ने अपनी कोठरी का दरवाज़ा बंद किया और दीये की रोशनी में अपने पुराने सन्दूक को धीरे से खोला ।उसे दो रंग की ओढ़नी ही तो मिलती थीं सफ़ेद और काली ।वह विधवा जो थी ।
चुपके से उसने काली ओढ़नी निकाली , छुपा कर रखा गोटा और सितारे ।और लगी अपनी ओढ़नी सजाने ।’कल मेरी प्यारी सहेली बिन्नी की शादी है सब ने सुंदर सुंदर लहंगे बनवाए हैं ।
दादी मुझे कभी कुछ अच्छा नहीं पहनने खाने देती ना ही किसी के ब्याह में जाने देती है।कल मेरी बिन्नी का ब्याह है मैं भी जाऊँगी ।’और अपनी टिमटिमाते गोटे के सफ़ेद सितारों से चमकती ओढ़नी को देख सगुन ख़ुशी से उछल गई । उसने कई दिनों से छुपा कर रखी खनखनाती चूड़ियाँ पहनी ,पैरों में पायल ,हाथों में आलता लगाया ।वह ख़ुशी में भूल ही गई कि रात का चौथा पहर उड़ने को है उसने अपनी ओढ़नी पहनी और निकल पड़ी उन्मुक्त गगन को छूने।
खनखन की आवाज़ से दादी की निद्रा टूटी सामने सगुन को सजी धजी देख उसका खून खौलने लगा , बोली-” # ये क्या अनर्थ कर दिया तुमने और पास रखा चिमटा उठा कर दे मारा जो सीधा सगुन के माथे पर लगा और वह वहीं ढेर हो गई ।अब वह बेड़ियाँ तोड़ स्वतंत्र हो गई थी ।उड़ने लगी उस जहां की तरफ़ अपनी पायल को छनकाती ,अपनी चूड़ियों को खनखनाती।
आज के इस बदलते परिवेश के समाज में बहुत से लोग काफी पढ़ालिखें , समझदार तो है लेकिन उनकी सोच वही पुरानी ही है ।विधवा स्त्री को कोई अधिकार नहीं देता। किसी शुभ कामों में आगे नहीं आने देता, अच्छे से पहने -ओढ़े तो.. दबी ज़ुबान से कहेगा—“ हाय! ये क्या अनर्थ कर रही हैं..
तब इस का मुझे अंदाजा न था. पति की मृत्यु को अभी कुछ ही दिन हुए थे, मैं अपने आप को संभाल भी न पाई थी कि, जीवन की मूलभूत आवश्यकताओं के लिए मुझे घर से बाहर निकलना ही था.
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जो काम अभी तक पति के नाम से हो रहे थे वहां उन का नाम हटवा कर अपना नाम कराना था. कभी अकाउंट खोलने के लिए बैंक भागती, कभी एफिडेविट बनवाने के लिए कचहरी. कभी गैस कनैक्शन पर नाम बदलवाने, राशन कार्ड पर भी अपना नाम अंकित कराने के लिए दफ्तरों के चक्कर लगाती. मुझे जल्दी न थी, लेकिन जब बिना नाम बदलवाए राशन और गैस मिलनी बंद हो गई तो दौड़ लगानी ही पड़ी. सभी जानते हैं कि एक बार जाने से काम नहीं होता. चक्कर लगाने के साथसाथ ‘बेचारी’ का ठप्पा और लग जाता है.
किसी रिश्तेदार या परिचित ने यह नहीं कहा कि आप घर बैठो, यह काम हम करा देंगे और कुछ फुसफुसा कर कहते—# ये क्या अनर्थ कर रही हो … क्रिया-क्रम के सवा महीने बाद पहले “ पग-फिराने” मायके जाया जाता हैं.. वैसे भी मैं शुरू से स्वाभिमानी रही हूं और अपना काम खुद करना चाहती हूं. मेरा उसूल है जब तक विशेष आवश्यकता न पड़े, किसी को तकलीफ मत दो.
तभी मेरे जेहन में एक सवाल उभरा. गैस कनैक्शन और राशनकार्ड दोनों ही सरकारी हैं. फिर सरकार दोनों नंबर पतिपत्नी दोनों के नाम से क्यों नहीं देती. यदि गैस बुक और राशनकार्ड में आइदर और ‘सरवाइवर’ कौलम के साथ पत्नी का नाम भी दर्ज हो तो पति की अचानक मृत्यु पर पत्नी को दफ्तरदफ्तर खाक छाननी नहीं पड़ेगी।
लोग मेरे साहस की प्रशंसा कर मेरा मनोबल बढ़ाते थे. मुझे लगता, मेरे अपने मेरे करीब हैं. समयसमय पर हालचाल पूछने आते रहते या मोबाइल से संपर्क बनाए रखते. आश्वासन भी देते कि पैसे की कमी हो तो बताना. कोई परेशानी हो तो कहना, हम आधी रात को भी तैयार हैं. मुझे अपने रिश्तेदारों पर गर्व होता क्योंकि वे सब मेरे दुख में मेरे साथ खड़े थे.
अफसोस यह कि पति की क्रिया -क्रम के बाद पूरा ही परिदृश्य बदल गया. पहले तो लोगों ने यह जानने की कोशिश की कि वे क्याक्या छोड़ गए हैं। कितना कर्जा हैं, कुछ नए चेताया कि संभलसंभल कर चलना. यह कांटों भरी डगर है, कुछ ने कहा कि—-“ कुछ ऐसा-वैसा ना कर देना कि समाज कहे-# क्या अनर्थ कर दिया तुमने ! समझ -परिवार में तुम्हारी जग-हंसायी हो।” मै मौन सब की सुनती रहती. मुझे क्या फैसला लेना है, यह मेरा निजी मामला है।
संध्या सिन्हा
#ये क्या अनर्थ कर दिया तुमने