वैंटीलेटर – रवीन्द्र कान्त त्यागी : Moral Stories in Hindi

कमरे में धीमी रौशनी वाला बल्ब जला हुआ था। सामने की दीवार पर एक बत्तीस इंच का एल ई डी टीवी टंगा था जो इस समय बंद था। दायीं तरफ की खिड़की पर एक कूलर धीमी गति से ठंडी हवा फेंक रहा था। बाईं तरफ की दीवार से सटा हुआ एक दीवान था जिसपर एक साफ सुथरी चादर बिछी हुई थी और एक बुजुर्ग आँखें बंद किए हुए लेटे हुए थे।

दीवान के सिरहाने की ओर एक बड़ा वाला ऑक्सीज़न सिलेन्डर लगा हुआ था जिस से निकलकर एक नलिका बुजुर्ग के मुंह पर लगे हुए मास्क तक जा रही थी। सिलेन्डर पर लगी शीशे की पारदर्शक ट्यूब में बुलबुले उठ रहे थे। बुजुर्ग मास्क से ऑक्सीज़न आने के कारण ही सामान्य साँसे ले पा रहे थे।

तभी दरवाजा खुला और एक चालीस साल के आदमी ने प्रवेश किया। उसने बुजुर्ग के माथे पर हाथ रखा। बुजुर्ग ने आँखें खोल दीं।

“पिताजी, थोड़ा बैठ जाइए। आप का कुर्ता बदल देता हूँ। हस्पताल चलना है।” आदमी ने धीरे से कहा।

“एंबुलेंस बुलाई होगी। तेरी गाड़ी तो मुझे पिछली बार हस्पताल में भर्ती कराने में ही बिक गई थी।” इस अवस्था में भी बुजुर्ग ने मुस्कराकर कहा।

“अरे पिताजी, आप भी न जाने क्या क्या सोचते रहते हो। गाड़ी पुरानी हो गई थी। तंग कर रही थी। आप से किसने कहा कि बीमारी में…। अब नई लेंगे न दीवाली पर।”

“चल छोड़। नई लेगा। निशा को मैडीकल कॉलेज भी भेज देगा। सूरज को स्कूटी भी दिलवा देगा और…।”

“सब हो जाएगा। बैठ जाइए। कुर्ता बदल देता हूँ। सुरेश की कार मंगवाई है दस बजे।”

“नहीं जाना है हॉस्पिटल। ठीक होना होगा तो यहीं हो जाऊंगा।”

“क्या बाऊजी, आप भी हर बार बच्चों की तरह जिद करते हो। पैसे हैं मेरे पास। सब ठीक है। आप तैयार हो जाइए।”

बुजुर्ग कुछ देर आँखें बंद करके एकदम शांत लेटे रहे। फिर धीरे से कुहनियों का सहारा लेकर उठ बैठे। फिर धीरे से कहा “देख बेटा, बात पैसों की नहीं है। मुझे पता है तू मैनेज कर लेगा… किन्तु… प्रश्न ये है कि क्या दुनिया से हर आदमी की विदाई वैंटीलेटर पर ही होनी जरूरी हो गई है।”

“अब… वैंटीलेटर इसमें कहाँ से आ गया पिताजी। ये तो सब आधुनिक चिकित्सा व्यवस्था का एक अंग है तो…।”

“हाँ बेटा, वो तो है। और बहुत से मामलों में लोगों की जान भी बचाता ही है। दुर्घटना में और…। जब हस्पताल में नियति के आदेश से आदमी धीरे धीरे मर रहा होता है तो अंत में डॉक्टर वैंटीलेटर टांग देते हैं। खैर वो दूसरी बात है मगर देख… मैं बच्चों की तरह जिद नहीं कर रहा हूँ बल्कि ये मेरा गंभीर चिंतन है। मेरा हस्पताल न जाने का निश्चय एकदम दृढ़ है। और ये तेरी आर्थिक स्थिति के कारण नहीं है। अरे गाँव की जायदात बिक जाएगी तो फिर तेरे पास बहुतेरा पैसा होगा जिंदगी ठीक से गुजारने लायक। मगर… सवाल ये है कि…।”

“आप अधिक मत बोलिए पिताजी। मैं आप के लिए गर्म दूध लता हूँ हल्दी डालकर।” बेटे ने कहा।

“नहीं। अभी नहीं। तू जरा बैठ मेरे पास। देख बेटा, इस धरती पर जब से जीवन है तब से जन्म भी है और मृत्यु भी। जिस दिन इंसान दुनिया में आता है, उस दिन उसके भविष्य का कुछ भी निश्चित नहीं होता है। इस एक सत्य के सिवा कि एक दिन उसे जाना होगा। इंसान पूरी जिंदगी अपनी इच्छाओं के लिए, तृष्णाओं के लिए,महत्वाकांगशाओं के लिए, दुनिया की सारी विलासिताओं को भोगने के लिए, प्रतिष्ठा पाने के लिए और अपने वंश को आगे बढ़ाने के लिए दौड़ता रहता है। वो दौड़ता ही रहेगा, अगर नियति, कहीं न कहीं पूर्णविराम न लगा दे तो।” उन्होने चेहरे पर हल्की मुस्कान बरकरार रखते हुए कहा।”

“कुछ भी हो पिताजी। आदमी को आखिरी क्षण तक स्वयं को स्वस्थ रखने का और… जिंदा रहने का अधिकार तो है न। वरना तो ये अत्महत्या हो जाएगी।”

“अत्महत्या नहीं बेटा। आत्म समर्पण। नियति के सामने। प्रकृति के सामने और विधाता के सामने। पिछली बार गए थे न हस्पताल। तो क्या उन्होने मेरे कमजोर हो चुके लंग्स को नया कर दिया। क्या उन्होने मेरी उम्र को घटा दिया। बस मेरी विदाई काल को थोड़ा सा आगे ही तो सरका पाये।”

“आप के तर्कों का तो मेरे पास कभी कोई जवाब नहीं था लेकिन एक बेटे का फर्ज…।”

“अरे तूने कहाँ अपने फर्ज में कोई कसर छोड़ी है मगर… अच्छा चलो, मैं डॉक्टर के पास गया। उन्होने मेरी उम्र को छह महीने या एक साल बढ़ा दिया। ठीक है। तब वो कौन सा एक साल बढ़ेगा। इसी बीमारी और बुढ़ापे के कष्ट झेलता हुआ एक साल ना। दवाइयों की सहायता से लड़खड़ाता हुआ, घिसटता हुआ एक साल।

मुझे लगता है कि पुराने काल में हमारी फिलौसोफी सही थी। जब शरीर थक गया और अब सरवाइव करने के कोई चांस नहीं हैं तो लोग बुजुर्गों की घर पर ही सेवा करते थे। उन्हे उनकी इच्छा का खिलाते पिलाते और भगवान से उनकी मुक्ति की प्रार्थना करते थे। आज खास तौर पर शहरों के सारे बुजुर्ग वैंटीलेटर पर दम तोड़ रहे हैं।”

“अब तो नया जमाना है। चिकित्सा क्षेत्र में बहुत तरक्की हुई है। सब ठीक हो जाएगा पिताजी।”

“कहीं न कहीं तो इंसान को संतोष और शब्र होना चाहिए कि अब मैंने जीवन के अपने दायित्व पूरे कर लिए। जितनी क्षमता थी उतना दौड़ लिया। मन का खाया, पहना, ओढ़ा। अब जितनी सांसें बची हैं उन्हे, देह को डॉक्टर की नुकेली सुईंयों से छिदवाए बिना, उनके नुकीले शल्य शस्त्रों से कटवाए बिना शांति के साथ अपने बच्चों के मध्य रहकर गुज़ारूँ।”

“ऐसी बातें मत करो पिताजी। मुझे याद है जब मुझे टाइफाइड हुआ था तो आप पूरी रात जागकर मेरे माथे पर ठंडी पट्टी रखते रहे। मेरी पढ़ाई के लिए आप ने अखबार बंद करवा दिया। ऑफिस की चाय पीनी बंद कर दी और…।” उसने एक हिचकी ली। गला रुँध गया और आवाज बंद हो गई।

“अरे… क्या छोटा बच्चा है रे तू जो ऐसे इमोशनल हो रहा है।”

“हाँ… बच्चा हूँ आप का। आप के बिना एक कदम भी नहीं चल सकता। आज भी कोई काम आप से पूछे बिना कर सकता हूँ क्या।”

“बावले, जिंदगी से लड़ना सीख। तेरी माँ से कितना लगाव था। तेरा भी और मेरा भी। जिये न उसके बिना इतने बरस। तू मेरा बहुत जिम्मेदार और लायक बेटा है। जिंदगी में कभी लड़खड़ाना मत।

जितना इलाज होना था हो गया। अपनी जॉब पर जाने की तैयारी कर। मैं अभी कहीं नहीं जा रहा। न हस्पताल न ऊपर।” बोलकर उन्होने बेटे के बालों में उँगलियाँ घुमायीं।

तभी उनकी बहू एक ग्लास में दूध लेकर आई। उसने उनके चेहरे से मास्क हटाया और बिना कुछ बोले किसी बच्चे की तरह उनके मुंह से दूध का ग्लास लगा दिया। उसके बाद तौलिये से उनका चेहरा साफ किया और आराम से सहारा देकर लिटा दिया। उन्होने असीम शांति के साथ अपनी आँखें बंद कर लीं थीं।

रवीन्द्र कान्त त्यागी

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