….बीथिन में ब्रज में नबेलिन में बेलिन में
बनन में बागन में बगरो बसंत है… सृष्टि के मुंह से निकलते हुए शब्द वीना को देख थम गए थे….क्या बात है वीना … पूरा बसंत तो आज तुझमें ही उतर आया है अभी भी इस शादी से इंकार की वजह ढूंढ रही हो क्या.!!पर वो तेरा दूल्हा अब तेरी कोई वजह टिकने नहीं देगा समझी….वैसे तुम उसी के ख्यालों में इतनी खोई खोई सी हो .. सृष्टि ने छेड़ते हुए कहा तो दुल्हन के लिबास में सजी धजी वीना के चेहरे का रंग बासन्ती हो गया था गालों पर जैसे टेसू दहक उठे थे.. हड़बड़ा कर लजा गई …..मुझे क्या हुआ …!
वो तो दिख ही रहा है शकल पर तेरी..जोर से हंस पड़ी थी सृष्टि और वीना सच में खो गई थी…..
वह भी तो बसंत पंचमी का ही बसंती दिन था …..संगीत और ज्ञान की देवी मां सरस्वती के पूजन और बसंतोत्सव का बृहद कार्यक्रम पूरे जुनून पर था… बड़ी सी सुंदर रांगोली सजी थी मां वीनापानि की मनहारिनी मूर्ति मंच पर सुशोभित थी सभी पुष्प अक्षत मिठाई फल बेर आदि से उनका वंदन स्तवन कर रहे थे….अपने हाथों से बनाई हरसिंगार की पुष्प माला मां वीना पाणी को पहनाकर या कुंदेंदुतुषारहार धवला…. अपनी मधुर आवाज में गाते हुए ज्योहि वीना ने सिर झुका कर मां की चरण वंदना की…..आप तो स्वयं वीना के समान मधुर गाती हैं आपको कुछ मांगने की क्या आवश्यकता है मां वीनापानी तो आपकी ही सुनेंगी….बल्कि कुछ इस बेसुरे भक्त के लिए मांग लीजिए ना…..!बगल से आई धीमी मधुर आवाज से चौंक कर उसने नजर घुमाई तो सफेद झक कुर्ता पैजामे पर बसंती जैकेट पहने धवल दंत पंक्ति दिखाते एक अपरिचित युवक को देख नज़रे फिर झुका लीं थीं… इस युवक की आंखों में अपने लिए कुछ विशेष प्रशंसा के भाव जो देख लिए थे वीना ने।
आपको मेरा नाम कैसे पता!! वीना के मुंह से अनायास ही प्रश्न फिसल गया था जाने कोई परिचित सा आकर्षण उसे विमोहित कर गया था।
अरे वीना सी सुरीली आवाज जो है आपकी.. मुस्कुरा कर कहता वह भी कुछ धृष्टता पर उतर आया था।
मुंह सिकोड़ कर वीना अति शीघ्रता से उसकी तरफ पीठ कर जाने को उध्दत हो गई थी.. बेवजह इस अनजान के क्या मुंह लगूं मां राह देख रही होंगी ।
अरे मेरे मुंह पर क्या गोबर लगा है जो आपने पीठ ही कर ली जोर से हंस दुष्टता से कहता वह घूम कर ठीक उसके सामने आ खड़ा हुआ और फिर अपनी चुंबक सी दृष्टि वीना के चेहरे पर चिपका दी… गोबर सुनते ही वीना थोड़ा चौंक गई थी ।
…इस तरह बार बार क्यों देख रहा है जाने कौन है ये कहां से आ गया है आज तक तो इस कॉलोनी में कभी नहीं दिखा… मन ही मन घबराती वह एक हाथ से आज मां द्वारा पहनाई बसंती साड़ी को संभालती एक तरह से उसकी उद्दंड आंखों को नकारती अपना कदम बढ़ाने लगी थी की सहसा सामने पानी से भरा एक गड्ढा आ गया था और उसका पैर उसमें अटक गया था।
लपक कर अपना हाथ बढ़ा उसने वीना को मजबूती से संभाल ही लिया था… देखा अभी मैं नहीं होता तो आप इसमें गिर ही गई होती… शरारत से मुस्कुराया था वह और खीच कर वीना को अपने बराबर से खड़ा कर लिया था।
वीना के माथे पर पसीनेकी बूंदे झिलमिला उठीं थीं और हाथों की थरथराहट में मानो उसके दिल की धड़कनें ही धड़क उठीं थीं।
लड़खड़ाते कदमों से किसी तरह वह अपने घर पहुंच सकी थी।
घर पहुंची ही थी कि मां की आवाज गूंज उठी कितनी देर लगा दी तूने वीनू वह अविनाश कबसे तेरी राह देख रहा था… नहीं समझ सकी अरे वही तेरे पिता के जिगरी मित्र पारस अंकल का बेटा बचपन में तुम दोनो साथ खूब खेले हो …. पारस अंकल तो तेरे पिता से मजाक भी किया करते थे तुम दोनो को देख कर कि “…देख लेना शिवा तेरी बेटी को मैं ले जाऊंगा ये मेरी ही बेटी है।तेरे पापा भी हंसकर कह दिया करते थे अरे कल का ले जाता तू अभी ही ले जा अपने घर लेकिन तेरे बेटे को मैं ले आऊंगा ये समझ लेना … और दोनो खूब हंसते की दोनों के बच्चे हमारे ही साथ यहीं रहेंगे।
लेकिन समय की गति किसने देखी है….एकाएक बिसनेस में घाटा हुआ तो होता चला गया तेरे पिता की माली हालत गिरती गई…. सबने साथ छोड़ दिया … पारस अंकल ने भी….. वह अपने परिवार के साथ दूसरे शहर चले गए …. अविनाश उन्हीं का बेटा है आर्मी में है पिछले साल ही इसकी नौकरी लगी है हम लोगों से मिलने हमे ढूंढता यहां चला आया है…पता है पारस अंकल भी कोविड में गुजर गए….तेरे पिता की मृत्यु की खबर सुन कर अविनाश बहुत दुखी हो रहा था कह रहा था”.. अब इतने गैर हो गए हम मां कि इतना बड़ा दुख अकेले ही आप लोग सहन कर गए ।
इतना ही सुन कर वीना को अविनाश की बचपन की सूरत याद आ गई।अच्छा तो ये अवि है …. पहचान में ही नहीं आ रहा है तभी मुझसे शरारते कर रहा था…बचपन में भी इसी तरह शरारती था यह।रोज शाम को सारे बच्चे रेत में खेलते और रेत का घर बनाया करते थे.. लेकिन अवि मजे से चुपचाप दूर बैठा सबको घर बनाते देखता रहता था.. जैसे ही सबका काम खत्म होता तेजी से दौड़ कर आता और सबके रेत के घर तोड़ देता था।सारे बच्चे इसे पीटने के लिए रेत भर भर के और डंडे पत्थर लेकर इसके पीछे दौड़ते थे पर ये हंसता खिलखिलाता ऐसा छू मंतर हो जाता था मानो धरती निगल गई हो।
…स्कूल में भी हमेशा शरारत करता और रोज कान पकड़ के मुर्गा बना मिलता तो कभी घुटने के बल बैठने की सजा और कभी कभी तो खुद प्रधानाचार्य जी पारस अंकल से इसकी शिकायत करने आ जाते थे… उस दिन इसने कुर्सी पर सोते प्रधानाचार्य जी के खुले मुंह में चार मच्छर मार कर रख दिए थे …. नींद खुल गई थी उनकी डंडा लेकर जो दौड़ाया उन्होंने तो अवि गोबर पर जा गिरा था पूरे मुंह में गोबर लग गया था सारी क्लास उसे देख ठहाके लगाने लगी थी और तभी सर उसे कान पकड़ के घर ले आए थे…!और तब पारस अंकल ने इसकी जो ठुकाई की थी कि पिता जी और मां को इसके घर जाकर बीच बचाव करना पड़ गया था…!
लेकिन दूसरे दिन से फिर वही शरारतें शुरू थीं इसकी….!!
अभी भी कोई सुधार नहीं हुआ है इसमें वैसे का वैसा ही है और बचपन की बातें भी याद है इसे.. तभी तो गोबर का जिक्र रहा था…..सिर्फ कद काठी बढ़ गई है सोच कर ही वीना को हंसी आ गई ।
मेरी ही बातें याद करके तुम हंस रही हो है ना!! झूठ मत बोलना अचानक फिर से टपक पड़ा वह।
पता नहीं इतनी मुखर वीना की उसको देखते ही बोलती क्यों बंद हो जाती थी।चुप हो वह तुरंत उठकर जाने लगी थी।
वीना प्लीज बैठो ना नाराज हो क्या !! रोक लिया था उसने…तुम्हीं से मिलने तो आया हूं मैं पता है कितनी हिम्मत जुटा कर आया हूं पिताजी ने बचपन में ही तुम्हे अपनी बेटी बनाने का जो स्वप्न मेरे मन में बो दिया था वह हर पल मेरे साथ ही रहा…मुझे गहरी पीड़ा हुई थी जब तुम लोगो की आर्थिक स्थिति खराब होते ही पिता जी ने मदद करने सहारा देने की बजाय पल्ला झाड़ लिया था और शहर ही छोड़ दिया था।बहुत गुस्सा आया था अपने पिता पर मुझे … रिश्तों का भी कुछ दायित्व होता है इतना गहरा रिश्ता हमारे परिवारों का यूं ही बिखरा जा रहा था….पर छोटा था ना विरोध करने की अपने पिता के निर्णयों का निरादर करने की हिम्मत नही थी मुझ में… लेकिन तभी से मन में दृढ़ संकल्प ले लिया था इन टूटते रिश्तों की कड़ी को जोड़ने का दायित्व मेरा है…जब अपने पैरो पर खड़ा हो जाऊंगा तब जरूर आऊंगा तुम्हारे पास और अंकल से माफी मांगूंगा… आज इतने बरसों बाद आया भी तो अंकल नही मिले… शायद मिलना ही नही चाहते होंगे हम लोगो से ।सच बात है ऐसे दगाबाज मित्र और उसके पुत्र से क्या मिलना!!! माफी के काबिल नहीं है हम… गला भर आया था अविनाश का।
जड़ सी हो गई थी वीना उसे रोता देख कर..!! इतना शरारती लड़का अंदर से इतना भावुक और कोमल भी होगा उसकी कल्पना से परे थी ये बात।
ठीक ही कह रहा है अविनाश उस आर्थिक नुकसान से पिताजी अंदर से टूट गए थे और पारस अंकल जिनकी दोस्ती ही उनकी मजबूती थी ऐसे कठिन समय मे उनका इस तरह धोखा दे जाना उन्हें बुरी तरह तोड़ गया था और तोड़ता गया था …उसके बाद वह कभी पनप नहीं पाए नाते रिश्तेदारों से भी दूर होते चले गए…. यही उनकी मृत्यु का कारण बना आंखे भर आईं पिता की याद करके वीना की।
वीना मुझे माफ कर दो मेरे पिता की गलती का कुछ प्रायश्चित करने का मौका दो…. अंतिम समय में पिता जी ने मेरा हाथ पकड़ कर शिवा अंकल से मिलने का वादा लिया था माफी मांगने की बात कही थी बचपन में कही उनकी बात को पूरी करने को मैने अपना दायित्व बना कर रखा है …. बचपन से लेकर आज तक मैं इस दिन का इंतजार करता रहा हूं … आज अंकल भी नहीं हैं तब तो मेरा दायित्व और भी बढ़ गया है… बोलो इस दायित्व को पूरा करने में मेरा साथ दोगी ना..!! वीना की दोनों कोमल हथेलियों में अपना आंसुओं भरा मुंह छुपा कर एक शिशु सा बिलख उठा था..वह!
वीना की मां ने आकर हक्क खड़ी वीना से अवि के हाथ छुड़ाए थे चुप कराया था और वादा किया था एक वर्ष की मोहलत दो सोचने के लिए इसके पिता के जाने के बाद मेरा दायित्व और भी बढ़ गया है ।
लेकिन अविनाश की सच्ची साफ गोई दोनों का दिल जीत ले गई थी… मां को भी अपनी बेटी के लिए ऐसा वर कहां मिलता जो उनका बेटा ही बन चुका था …. अविनाश की माता तो वैसे ही बहुत शर्मिंदा थीं और वीना के पिता की मृत्यु की खबर ने उन्हें और भी दुखी कर दिया था….।
आज एक साल के बाद बसंत पंचमी के दिन वीना के पिता और अवि के पिता की कही बातें जमीनी रूप ले रहीं थीं…कोई अपना दायित्व निभाने में सफल हो रहा था… एक बेटी जा रही थी तो एक बेटा आ रहा था..!!
वीना की जिंदगी में वीणा के स्वर फूट रहे थे..!!
लतिका श्रीवास्तव