भरत अपने ममेरे भाई की शादी में ननिहाल आया हुआ था। मामा के अन्य रिश्तेदारों का रहन-सहन और आकर्षक डिजाइन के महंँगे लिवास के सामने वह अपने पोशाक को तुच्छ महसूस करने लगा। उसके पास स्वेटर, मफलर के साथ मात्र दो सेट मामूली कपड़े थे।
प्रारम्भ में उसके मामा रमाशंकर ने हाल-सामाचार पूछने की औपचारिकता निभाई थी। बाद में किसी रिश्तेदार ने सीधे मुंँह उसके साथ बात-चीत नहीं की लेकिन अपनी नानी की आत्मीयता व स्नेह से सराबोर व्यवहार से वह आत्मविभोर हो गया। वैसे भी वह बहुत दुखी था। उसकी माँ की मृत्यु साल-भर पहले महामारी में हो गई थी। वह अपने पिताजी के कहने पर यहाँ आ गया था क्योंकि उसके पिताजी को लगन(शादी-विवाह का मौसम) होने के कारण प्राइवेट नौकरी में छुट्टी नहीं मिली।
शादी के घर में दर्जनों तरह के काम थे। वह भी अपने मामा की सहमति से काम में अपनी भागीदारी निभाने लगा। सुबह से लेकर शाम तक खटता किन्तु कोई पूछने वाला नहीं था कि खाया भी है या भूखे पेट काम कर रहा है। सभी अपने आप मे मगन थे, आनन्दित थे। अपने नानी के कहने पर ही वह स्वयं भोजन लेकर करता था। वह मानहानि से डरता था कि उसपर कोई ऊंगली न उठा दे। लांछना न लगा दे कि वह पेटू है।
उस दिन रिसेप्शन पार्टी थी। लोग सुबह से ही उसकी तैयारी में लगे थे। पंडाल, सामियाना, गेट… आदि तो पहले से ही तैयार था। शाम होते-होते कैटरर द्वारा विभिन्न प्रकार के व्यंजनों, मिठाइयों और कई तरह के भोजन बनाने का काम भी पूरा हो गया था।
लम्बे-लम्बे टेबलों पर अनेक प्रकार के स्वादिष्ट और सुगंधित व्यंजनों से भरे पात्रों को रखा जाने लगा।
भरत जब एक टेबल पर खाली प्लेटों को रख रहा था कि उसे अचानक कुछ गिरने की आवाज सुनाई पड़ी। उसने पीछे मुड़कर देखा तो पाया कि रसगुल्लों से भरा पौट टेबल पर से नीचे जमीन पर गिर गया है। रसगुल्ले जमीन पर बिखर गए थे।
भरत ने वहांँ पर लोगों से पूछताछ भी की किन्तु किसी ने भी संतोषप्रद जवाब नहीं दिया।
वहांँ पर इतने लोग भी काम कर रहे थे कि निश्चित रूप से यह बताना मुश्किल था कि किसकी लापरवाही से ऐसा हुआ।
रमाशंकर के कान में किसने क्या कह दिया या क्या गलतफहमी हो गई कि उसने तैश में आकर भरत से कहा, “आखिरकार परेशानी खड़ी कर ही दी तुमने!…”
“नहीं मामा!… मैंने नहीं गिराया है, मैं तो दूसरे टेबल पर प्लेट रख रहा था” उसने सफाई दी।
“आमंत्रित लोगों को खिलाने के समय रसगुल्ले घट जाएंगे तो कितनी बेइज्जती होगी, सोचा भी है तुमने?”
“मैंनें नहीं…”
“चुप!” उसने गुस्से में कहा।
अपने मामा के साथ जुबान लङाना शिष्टाचार के खिलाफ होता है, ऐसा समझकर वह मौन हो गया।
” हटो तुम यहाँ से… यहांँ पर क्या जरूरत है तुम्हारी, जाओ आराम करो” तल्खी के साथ दांँत पीसते हुए उसके मामा ने कहा।
भरत क्षुब्ध होकर कुछ दूरी पर जाकर खड़ा हो गया।
रिश्तेदार लोग भी वहांँ पर जमा हो गये, किन्तु सभी मौन थे।
भरत ने निर्णय ले लिया कि वह यहांँ से अभी तुरंत अपना घर चला जाएगा। वह इस बात से बहुत दुखी था कि उसे उस गलती के लिए अपमानित और प्रताड़ित किया गया रिश्तेदारों के सामने, जो उसने की ही नहीं थी।
बातें घर में फैल गई।
एक कारिंदा ने दबी जुबान से बतलाया कि रसगुल्लों का बर्तन बाबू(मामा) के बड़े दामाद के छोटे भाई की गलती के कारण नीचे गिर गया था।
जब भरत की नानी को मालूम हुआ कि भरत अभी जा रहा है तो वह दौड़ी आई उसके पास उसको रोकने की नीयत से। सारी स्थिति से अवगत होने के बाद उसने साफ शब्दों में कहा,
“यह कहांँ का न्याय है?… गलती कोई और करे, दंड किसी और को मिले। यह गरीब है, इसका मतलब यह तो नहीं है कि किसी घटना के सारे दोष उसके सिर मढ़ दें, बिना पता लगाये और बिना जाँच-पड़ताल किये। भले ही किसी ने उसकी आवभगत नहीं की, खातिरदारी नहीं की लेकिन उसने अपना फर्ज निभाया।
तब तक रमाशंकर भी वहांँ पहुंँच गया था लेकिन उसकी नानी के सामने उसकी जुबान बंद थी। कुछ मिनट के बाद उसके दामाद का भाई भी वहांँ पहुंँच गया खेद प्रकट करते हुए।
सभी ने भरत को रोकना चाहा किन्तु वह चुप्पी साधे हुए वहांँ से चुपचाप प्रस्थान कर गया।
नानी ने कहा, “रिश्तेदार अमीर हो या गरीब भेद-भाव नहीं करना चाहिए, सबको समान रूप से सम्मानित करना चाहिए।”
#आत्मसम्मान
स्वरचित
मुकुन्द लाल
हजारीबाग (झारखंड)