Moral stories in hindi : मैं जिस घर में किरायेदार थी उसके सामने वाला घर मुझे बहुत प्रिय था, कारण था उनका बगीचा और साथ में लगा झूला. बचपन से कुछ ऐसे ही घर की सोच मेरी भी थी, हरियाली और झूला. जहाँ बैठ कर चाय पीयूं और कुछ लिखा करूँ. एक और बात उस घर कि मुझे प्रभावित करती थी वो था उसका नाम “बावरी सदन” और नीचे लिखा था “रिटायर्ड मेजर जनरल सलिल”.
एक ओर जहाँ वो सर अपनी पदवी के हिसाब से काफ़ी अनुशासित रहते वहीं वो आंटी इस उम्र में भी बहुत संकोची थीं. कामवाली के जाने की बाद भी आंटी ढूंढ ढूंढ के काम किया करती थीं. सादगी और सलीके से साड़ी पहने वो बिल्कुल मेरी माँ जैसी दिखती थीं, शायद इसलिए भी उनको देखना अच्छा लगता था.
मुझे वो जितने प्रिय थे उतने ही वो पूरे मोहल्ले में कौतुहल का विषय. आते-जाते मैं भी बहुत कुछ सुनती थी या मेरी मकान मालकिन सुना जाती थी कि पता नहीं कैसे लोग हैं, न कोई आता-जाता है न ये किसी से बात वात करते हैं. इनके बाल बच्चे भी कभी नहीं दिखे, पता नहीं हैं भी या नहीं. मैं उनको टालमटोल कर के निकल लेती थी. वैसे भी ये खाली दिमाग़ शैतान का घर वाली बातें थीं. लोग तो किसी को नहीं छोड़ते.
पर धीरे-धीरे ये तो मैं भी महसूस कर रही थी कि उनका किसी से कुछ लेना देना नहीं है. बस कभी-कभार जब मैं बालकनी में दिख जाती तो आंटी मुझे देखकर मुस्कुरा भर देती थी. अब इसे औपचारिकता कहिये या अपनापन, मुझे उनका इतना करना भी बहुत अच्छा लगता था.
ऐसे ही सब चल रहा था कि एक दिन अचानक मेरे दरवाजे पर किसी ने दस्तक दी. गेट खोलने पर मैंने देखा कि वही सामने वाली आंटी हैं और मुझे अपने साथ चलने को कह रही हैं. मैं भी किसी अनहोनी कि आशंका जान चली गयी उनके साथ.
जाकर देखा तो सर फर्श पर गिरे पड़े हैं. तुरंत आंटी की सहायता से उनको बिस्तर पर लिटाया और अपने एक डॉ. मित्र को सहायता के लिए कहा. वो एम्बुलेंस के साथ आया और उनको अस्पताल ले गया. वहाँ जा के पता चला हार्ट अटैक था पर ज्यादा घबराहट की बात नहीं. बस उनका ट्रीटमेंट चलेगा कुछ दिन.
ये सुनकर आंटी थोड़ा सहज़ हुईं. मैं उनके लिए चाय लेकर आयी और पूछा कि परिवार में कोई है, रिश्तेदार, बच्चे जिसको इस कठिन घड़ी में बुला लें तो आंटी रोने लगीं. कुछ समय बाद उन्होंने कहा, बेटा! हमारा कोई बच्चा नहीं और ना ही कोई रिश्तेदार या जान- पहचान वाला है. जो है हम ही एक-दूसरे के हैं.
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मैं आश्चर्य से उनको देख रही थी. उन्होंने आगे कहना शुरू किया, असल में हम पति-पत्नी नहीं हैं. मेरे पति साहेब की गाडी के ड्राइवर थे. 45 वर्ष पहले पहाड़ की यात्रा के लिए सर, मालकिन, उनका 6 साल का बेटा, मैं, मेरे पति और मेरी 2 साल की बेटी जा रहे थे. रास्ते में गाडी असंतुलित हुई और खाई में जा गिरी जिसमें सब की मृत्यु हो गयी, मुझे और साहेब को छोड़कर.
हमारा तो सब कुछ ख़त्म हो गया था, दुनिया ही उजड़ गयी थी हमारी. परिवार वालों ने अपशकुनी कहकर साथ रखने से मना कर दिया परन्तु साहेब ने अपना आसरा दिया. पहले तो सब साहेब के डर से कुछ कहते नहीं थे पर धीरे-धीरे सबने बातें बनानी शुरू कर दीं. सब हमको उपेक्षा की दृष्टि से देखते थे.
मुझपर कटाक्ष करते और साहेब को देखकर कुटिल मुस्कान. रिटायरमेंट के कुछ समय के बाद लगने लगा कि वहाँ रहना ठीक नहीं तो हम यहाँ आ गए. हम दुनिया की नजर में पति-पत्नी हैं. साहेब ने अपना सब कुछ मेरे नाम पर कर दिया है.
पर हम पति-पत्नी नहीं हैं, इसलिए हमारी कोई संतान भी नहीं है. साहेब मुझे अपने साथ रखकर दुनिया समाज की उपेक्षित नजरों से बचा रहे तो मैं साहेब की कुर्बानियों और एहसानों का बदला चुका रही. हम बस एक-दूसरे का खालीपन दूर कर रहे हैं. दुःख-सुख साझा कर रहे. वरना तुम ही सोचो बेटा बावरी और सलिल का कोई मेल है?
मैं निःशब्द बैठी रही. सोच रही थी ऐसा भी कहीं होता है कि 45 वर्षों से एक-दूसरे के साथ रह रहे और केवल कर्तव्य निभा रहे! जब इन दोनों की दुनिया उजड़ी तब तो इनकी उम्र बहुत कम थी, क्या कभी इनके मन में एक-दूसरे के प्रति आकर्षण नहीं जगा होगा!
क्या एक ही घर में रहकर कोई विकार नहीं आया होगा! जिसके नाम सब कुछ कर दिया उसको कभी चाहा नहीं होगा! और आंटी जो पत्नी वाले सारे धर्म निभाती थीं, कांच की चूड़ियाँ, बिंदी, सिन्दूर, बिछवे लगाए रहती थीं कभी सर को सच में पति बनाने का मन नहीं किया होगा! जो भी हो पर उनका रिश्ता अमूल्य और पूजनीय है. नमन है ऐसे जोड़े को
#उपेक्षा
लेखिका : पूजा गीत