उपहार (भाग-12) – बीना शुक्ला अवस्थी : Moral stories in hindi

सुनते ही जैसे वह अपराध मुक्त हो गया। उसकी आत्मा जैसे सुख और आनन्द से सराबोर हो गयी। वह ऑखों में ऑसू भरकर मूर्ति के चरणों में गिर पड़ा –

” प्रभो! जिसे हम पाप और पुण्य कहते हैं, वह सब तुम्हारी इच्छा से रची माया मात्र है। दक्षिणा के पैर की चोंट,सबका उसको छोड़ कर जाना, बाई की अनुपस्थिति में मेरा पहुॅचना संयोग नहीं था। तुम्हारा ही आदेश था। तुम ही चाहते थे कि दक्षिणा जिसे मैं प्राणों से अधिक चाहने लगा था, जिसे स्पर्श करने के सम्बन्ध में मैं सोंच भी नहीं सकता हूॅ ,

उसकी कोख में मेरा अंश पले। मैं और दक्षिणा किसी कमजोर क्षण में या किसी भूल से एक नहीं हुये थे बल्कि तुम्हें दक्षिणा के पति के नपुंसकत्व को सिद्ध करने के लिये  मेरे अंश को उसके भीतर स्थापित करके हम दोनों को सदैव के लिये एक करने के साथ ही उसके ऊपर लगे बंधत्व के कलंक को भी मिटाना था वरना वह संतान के लिये तरसते हुये सदैव सभी के मुखों से ” बॉझ ” सुन सुनकर आजीवन प्रताड़ित होती रहती। तुम्हें आभार

प्रकट करने के लिये मेरे पास शब्द नहीं हैं। शायद मेरे लखनऊ आने का उद्देश्य यही था। कुदरत ने दक्षिणा को यह उपहार प्रदान करने के लिये मुझे चुना था। लीलाधारी की लीला को उनके सिवा कौन जान सकता है?”

दक्षिणा की मॉ ने अहिल्या को बताया कि जब दक्षिणा को उसके गर्भवती होने के बारे में बताया गया तो उसके नेत्रों में एक चमक आकर विलीन हो गयी। जैसे जैसे समय बीतने लगा दक्षिणा की ऑखों में समाई वीरानी और अजनबीपन के बादल छंटने लगे। अब वह अहिल्या के चलते समय उसका हाथ पकड़ लेती थी।

अपने शरीर की गोलाइयों पर हाथ फिराकर कभी वह मुस्कराने लगती तो कभी हल्के हल्के बुदबुदाने लगती। अपने मम्मी, पापा, नर्स और अहिल्या को अब वह पहचानने लगी थी और उन्हें देखते ही मुस्कराने लगती। लेकिन एक बार जब उसकी सास और ननदें आईं तो उन्हें देखकर वह डरकर फिर वैसी ही हो गई।

आखिर वह दिन आया जब दक्षिणा ने एक बेहद खूबसूरत और स्वस्थ बेटे को जन्म दिया। दक्षिणा की प्रसव पीड़ा प्रारम्भ होते ही अहिल्या आ गई। पूरे नौ महीने आठ दिन बाद दक्षिणा के मुॅह से पहला शब्द निकला – ” मेरा बच्चा, मेरा सोना, मेरा लाल खिलौना।” वह पागलों की तरह अपने बेटे को चूम रही थी।

उपस्थित सभी की ऑखें ऑसुओं से भीग गईं। अहिल्या ने तुरन्त खुशी की अधिकता से रोते हुये मुकुल को फोन पर बताया कि बच्चे को देखते ही सब पूर्ववत हो गया। सुनकर मुकुल बिल्कुल जड़ हो गया, उससे बोलते नहीं बन रहा था। वह बस फोन रखकर भगवान के सामने रोये जा रहा था। उसके मन में ईश्वर की कृपा की आभा जगमगा रही थी।

दुबारा जब अहिल्या फिर कानपुर आई तो दोनों बच्चे भी साथ आ गये। अस्पताल के पलंग पर बगल में लेटे शिशु के रेशमी बालों को सहलाते हुये मातृत्व गर्व और वात्सल्य से भरपूर मुस्कराती हुई दक्षिणा को देखकर अहिल्या निहाल हो गई। दोनों बच्चों को पलंग पर बैठाकर दक्षिणा ने उनकी गोद में बच्चे को रखा और हॅसने लगी।

चूॅकि दक्षिणा का प्रसव सामान्य था तो उसे कोई परेशानी नहीं थी। दक्षिणा के पास ढेरों बातें थीं अहिल्या के लिये, वह अब पुरानी वाली दक्षिणा थी।

अहिल्या ने उसे बताया – ” दक्षिणा, एक बहुत जरूरी बात है। समझ में नहीं आ रहा है कि तुम्हें कैसे बताऊॅ? अभी तुम्हारी तबियत ठीक नहीं है लेकिन बताना जरूरी है।”

” मैं ठीक हूॅ, तुम बताओ।”

” मुकुल ने दुबारा देहरादून का स्थानान्तरण करवा लिया है। लखनऊ में उनका बिल्कुल मन नहीं लगता है। तुम्हारी दोस्ती के बाद थोड़ा सामान्य हुये थे लेकिन तुम्हारी बीमारी के बाद से तो बहुत व्याकुल रहने लगे हैं। पता नहीं क्या हो गया था कि रात रात भर टहलते रहते हैं।”

दोनों काफी देर तक चुप बैठी रहीं। फिर काफी देर बाद दक्षिणा ही बोली – ” लखनऊ तो अब मैं भी नहीं जाऊॅगी। चिकित्सा आधार पर मुझे कानपुर का स्थानान्तरण मिल जायेगा। आदेश आ गये हैं क्या?”

” अभी तो नहीं आये हैं लेकिन शायद इसी महीने के अन्त तक या अगले महीने के पहले सप्ताह तक आ जायेंगे। मेरा तो बिल्कुल मन नहीं था। लखनऊ मुझे और बच्चों को अच्छा लगने लगा था।”

” कोई बात नहीं अहिल्या, हो सकता है कि इसमें भी हम सबका हित हो। मेरी बीमारी में तुमने और मुकुल ने मेरी और मेरे मम्मी पापा की जो सहायता की है, उसके बारे में कहकर मैं कम नहीं करना चाहती। मैंने मुकुल और तुमसे इतना पाया है कि आजीवन नहीं भूल पाऊॅगी।”

“‘ मुझे भी तुम्हारे जैसी दक्षिणा कहॉ मिलेगी? शायद तुमसे मिलने के लिये ही हम इतने कम समय के लिये देहरादून से लखनऊ आये थे।” अहिल्या ने उसे गले से लगा लिया।

अहिल्या जब चलने लगी तो दक्षिणा ने कहा – ” अहिल्या, जाने के पहले एक रात के लिये बच्चों के साथ मेरे पास रह लेना। दुबारा पता नहीं कब मिलना हो?” दोनों की ऑखें भीग गईं।

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बीना शुक्ला अवस्थी, कानपुर

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