Moral Stories in Hindi : ” देखो सुशील… इस समय मेरे पापा को मेरी ज़रूरत है।भाई रहते तो एक अलग बात थी, लेकिन…।”
” हाँ तो…तुम उन्हें पैसे तो दे ही रही हो ना..।” तीखे स्वर में सुशील बोला तो श्रद्धा तिलमिला उठी, ” पैसे दे रही हो..से तुम्हारा क्या मतलब है सुशील।मैं सिर्फ़ तुम्हारी पत्नी ही नहीं, किसी की बेटी भी हूँ और बेटी होने के नाते उनकी तकलीफ़ में मुझे उनके साथ रहना भी ज़रूरी है।”
” वो सब मैं नहीं जानता…पापा ने कह दिया कि तुम्हें नहीं जाना है तो नहीं जाना है…।” कहकर वह करवट बदलकर सो गया।श्रद्धा समझ गई कि अभी कुछ कहने से कोई फ़ायदा नहीं…कल सुबह तक इनका मूड अपने आप ठीक हो जायेगा।वह अपने बैग में कपड़े रखने लगी।
सुशील के विवाह को लेकर उसके पिता कृपाशंकर और माता गिरिजा जी के बहुत सारे सपने थें।वे बहू के साथ-साथ दहेज़ में मोटी रकम भी लेना चाहते थें लेकिन सुशील ने अपनी बचपन की दोस्त श्रद्धा से विवाह करके उनके अरमानों पर पानी फेर दिया था।श्रद्धा के पिता रेलवे में गार्ड थें।अपनी सीमित आय में उन्होंने अपने बेटे और बेटी को अच्छी शिक्षा दी।उनके बेटे को रेलवे में ही नौकरी मिल गयी और श्रद्धा बैंक में काम करने लगी।
विवाह के बाद श्रद्धा ने अपना तन-मन-धन अपने परिवारवालों के नाम कर दिया था।वह पूरी कोशिश करती थी किसी को उससे शिकायत न हो लेकिन उसकी सास कभी नहीं संतुष्ट होती।गाहे-बेगाहे आये-गये लोगों के सामने दहेज़ न मिलने का दुखड़ा रोने का वे एक भी मौका अपने हाथ से जाने नहीं देती थीं।यहाँ तक कि उन्होंने श्रद्धा को मायके जाने पर भी रोक लगा दिया था।श्रद्धा की खुशी के लिये उसके परिवारवालों ने भी संतोष कर लिया था।
छह महीने पहले एक दुर्घटना में श्रद्धा के भाई की मृत्यु हो गई।परिवार पर इतना बड़ा दुख आये तो कौन बेटी उनके साथ खड़ी न होगी।जब समय मिलता, श्रद्धा अपने मायके चली जाती थी।यही बात उसके सास-ससुर को खटकने लगा था।कुछ दिनों पहले उसकी माँ सीढ़ियों से गिर पड़ी थीं।पैर में प्लास्टर चढ़ा था।भाई की जगह उसकी भाभी काम पर जा रही थी, इसलिए वह कुछ दिन माँ के पास रहकर उनकी सेवा करना चाहती थी।यही बात उसने ससुर से कही तो उन्होंने उसे जाने से मना कर दिया।सुशील से कहा तो उसने भी उसके दुख को नहीं समझा और अपने पिता का ही साथ दिया।लेकिन उसने भी ठान लिया कि चाहे कुछ भी हो, वह बेटी होने का अपना कर्तव्य अवश्य निभायेगी।
अगली सुबह जब वो अपने मायके जाने को उद्दत हुई तो उसकी सास ने कह दिया,” मायके जा रही हो बहू तो वापस आने की ज़रूरत नहीं है।” उनके शब्द उसे तीर की तरह चुभे।उसने एक नजर सुशील पर डाली और बाहर निकल गई।
मायके में आकर श्रद्धा ने अपने ससुराल के बारे में सब अच्छा-अच्छा बताया।वह माँ की देखभाल करती और वहीं से अपने काम पर भी चली जाती।पंद्रह दिनों के बाद उसने सुशील को फ़ोन करके कहा कि एक बार आकर माँ से मिल लेते तो उन्हें अच्छा लगता।
” तुम हो ना..।” टका-सा जवाब देकर सुशील ने फ़ोन पटक दिया था।अंदर तक वह आहत हो गई थी।सुशील क्यों नहीं समझ पाते हैं कि एक स्त्री को पत्नी और बेटी, दोनों का फ़र्ज निभाना पड़ता है।
एक दिन एक सहकर्मी से उसे पता चला कि सुशील का एक्सीडेंट हो गया है और वह शहर के संजीवनी हाॅस्पीटल में एडमिट है।अब तो उससे रहा नहीं गया।उसने तुरन्त बैंक में एक सप्ताह की छुट्टी की अर्जी दे दी और सुशील से मिलने हाॅस्पीटल चली गई।सुशील के सिर और पैर पर पट्टी बँधी देख वह तो रो पड़ी। अब वह सुबह में अपनी माँ का खाना-दवाई तैयार कर देती और अपनी सास व ससुर का टिफ़िन लेकर हाॅस्पीटल चली जाती।दिन-भर वह सुशील का देखभाल करती और शाम को घर आकर अपनी माँ की सेवा करती।
सुशील के प्रति श्रेया की तन्मयता और सेवा-भावना देखकर गिरिजा जी को अपने व्यवहार पर आत्मग्लानि हुई। श्रेया के बारे में उन्होंने कितना गलत सोचा था।उनकी बहू तो टू इन वन है जो पत्नी के धर्म और बेटी के कर्त्तव्य को एक साथ निभाना बखूबी जानती है।
सुशील जब घर आ गया तब अगले दिन गिरिजा जी श्रेया के मायके जा पहुँची।सास को अचानक देखकर श्रेया चकित थी।उसने पूछा,” माँजी…सुशील तो ठीक है ना।”
” हाँ…,वो ठीक है।मैं तो तुमसे माफ़ी…।” गिरिजा जी अपनी बात पूरी कर पाती तभी श्रेया की माँ आ गईं।
” अरे आप यहाँ…सब ठीक तो है…।”
” आपसे मिलने आईं हैं माँ…।” श्रेया ने बात संभाली।
” जी हाँ…अब आपकी सेहत कैसी है? आप इज़ाजत दें तो हम अपनी बहू को ले जाएँ।”
समधन के मुँह से अपनी बेटी के लिये बहू संबोधन सुनकर श्रेया की माँ की आँखें खुशी-से छलछला उठी।उन्होंने कहा,” आप ही की अमानत है, जब जी चाहे ले जाइये।
माँ की सेवा करके श्रेया बेटी का फ़र्ज़ पूरा कर चुकी थी,इसलिये पत्नी-धर्म का पालन करने के लिये वह अपनी सास के साथ ससुराल आ गई जहाँ सुशील और उसके ससुर उसका बेसब्री-से इंतज़ार कर रहें थें।उसे देखते ही सुशील मुस्कुराते हुए बोला , ” श्रीमती टू इन वन का हार्दिक स्वागत है।” फिर तो सभी हा-हा करके हँसने लगे।
विभा गुप्ता
स्वरचित
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