अपनेपन की महक – सुमन लता ” सुमन “
भूल रही सब रिश्ते- नाते, कैसी दुनिया दारी,
सुख सुविधा ने अपने पन की, महक छीन ली सारी ।
अपना घर अपनी माटी को, तज कर जाना पड़ता
उस पल मानव का मन बेबस, होकर खुद से लड़ता,
जब आशाएँ पूरी होती, जाते सब बलिहारी,
सुख सुविधा ने अपने पन की, महक छीन ली सारी ।
महँगी- महँगी मोटर- गाड़ी, ऊँचे महल बनाए,
चार दिवारी में सुख खोजे, गमले खूब सजाए,
मनवा जब आहत हो आती, याद उन्हें महतारी,
सुख सुविधा ने अपने पन की, महक छीन ली सारी ।
दादा- दादी ताऊ- ताई, काका- काकी सारे,
बचपन वाले संगी- साथी, छूट गए वो प्यारे,
हाय करें क्या मानव मन पे, भूख पड़ गई भारी,
सुख सुविधा ने अपने पन की, महक छीन ली सारी ।
सुमन लता ” सुमन “
फतेहाबाद ( हरियाणा)
रचना – स्वरचित, मौलिक
अपनेपन की महक – सुभद्रा प्रसाद
” नीलम, आज शाम को धीरज की पार्टी में चलेगी ना ? उसने सभी दोस्तों के लिए खास पार्टी रखी है | बहुत मजा आयेगा |जरा अच्छे से तैयार होना |”सोनम नेअपनी रूमपार्टनर से कहा |
” मैं नहीं जाऊंगी | मम्मी से पूछा तो वो डांट रही थी | बोली , तुम्हें पढने के लिए शहर में भेजा है, रात की पार्टी मनाने के लिए नहीं |” नीलम बोली |
” अरे, तू मम्मी की डांट की इतनी परवाह हीं क्यों करती है ?वह देख थोडे ना रही है | उन्हें मत बताना | “
” मैं मम्मी से झूठ नहीं बोलती | उनके डांट में अपनेपन की महक होती है | वह मेरी परवाह और मुझसे बेहद प्यार करती है | हमेशा मेरे भले की बात ही कहती है |मैं उनकी बात जरूर मानूंगी, पार्टी में नहीं जाऊंगी |”
नीलम की बात सुनकर सोनम ने सोचा | उसकी मम्मी भी तो मना करती है| वह भी नहीं जायेगी |
# अपनेपन की महक
स्वलिखित और अप्रकाशित
सुभद्रा प्रसाद
पलामू, झारखंड |
अपनेपन की महक – महजबीं
शहला ऑफिस से तेजी से निकली और ऑटो को रुकने के लिए हाथ दिया। अभी वो ठीक से ऑटो में बैठ भी नहीं पाई थी।उसका एक पैर ऑटो में और एक रोड पर था कि ड्राइवर ने ऑटो स्टार्ट कर दिया। वो ऑटो के साथ घिसटने लगी और गिरने ही वाली थी कि ऑटो में बैठी एक महिला ने हाथ पकड़ कर उसे अंदर खींच लिया। शहला बिल्कुल स्तबथ थी। उसने कृतज्ञ आँखों से महिला को देखा जिससे उसे अपनेपन की एक महक आ रही थी कि अगर आज वह उसे इतने अपनेपन से ना संभालती तो उसका एक बहुत बुरा एक्सीडेंट हो सकता था।
लेखिका: महजबीं
अपनेपन की महक – सीमा गुप्ता
चालीस साल पहले कॉलेज के छात्रावास में निधि का बड़ी बहन बनकर ख्याल रखती थी उसकी रूममेट रूचि दीदी। निधि भी उन्हें भरपूर सम्मान देती थी।
निधि को मैस की सब्जी पसंद नहीं आती तो दीदी उसे कमरे में लाकर देसी घी में जीरे का छौंक लगा सब्जी को स्वादिष्ट बनाकर निधि को प्यार से खिलाती थी।
पढ़ाई पूरी हुई और साथ छूट गया। दोनों बहुत रोई थीं। घर-घर में फोन नहीं था तब। दोनों की शादी के बाद चिट्ठी-पत्री भी बंद हो गई। निधि ने बेटी की शादी का कार्ड दीदी को भेजा तो वह वापस आ गया।
फेसबुक, इंस्टाग्राम पर बस एक उन्हीं को नहीं खोज पाई है निधि। लेकिन आज भी निधि देसी घी में जीरा डालकर सब्जी छौंकती है तो रूचि दीदी के #अपनेपन की महक से सरोबार हो जाती है।
- सीमा गुप्ता (मौलिक व स्वरचित)
#अपनेपन की महक
#गागर में सागर
सम्मान – लतिका श्रीवास्तव
नहीं मां ये पानी उतारना आरती करना ये सब देहाती तरीके नहीं करना और प्लीज अपनी ये सीधे पल्ले की साड़ी सिर ओढ़कर आज मत पहनना जिमी के मम्मी डैडी विदेशी हैं क्या सोचेंगे हम लोग कितने बैकवर्ड हैं।इसीलिए मैने होटल में मुलाकात का सुझाव दिया था लेकिन जिमी नहीं माना ।चिंटू पैर नहीं छूना हैंडशेक करके हैलो बोलना है समझ गया ना.. मिनी तनाव में थी।
बाहर कार का हॉर्न बजा और वे लोग आ गए।चिंटू मिनी दीदी की तरफ देखता अपनी नई टाइट जीन्स संभालते हुए उनसे हैंडशेक करने लपका ही था कि उन्हें देख रुक गया।जिमी की मां साड़ी पहनी हुई थीं सिर पर पल्लू था और जिमी के पिता पायजामा कुर्ता और खादी की जैकेट में थे।जिमी भी साधारण पैंट शर्ट में था और आते ही उसने लपक के छिपी खड़ी मिनी की मां के पैर छू लिए तो मिनी अवाक रह गई।
मिनी ऐसे क्यों देख रही हो एक दूसरे की संस्कृति का सम्मान करना ही तो असली अपनापन है जिमी ने हंसकर कहा तो मिनी अपनेपन की इस महक में डूब ही गई। मां तुरंत ही छिपाकर कर रखी आरती की थाली और जल भरा कलश उठा लाईं थीं।
आरती के तुरंत बाद जिमी की मां ने बड़े सम्मान से सिर पर पल्लू लेते हुए मिनी की मां को दोनों हाथ जोड़ कर नमस्ते किया तो मिनी की मां ने गहरे अपनेपन से आगे बढ़ उन्हें गले से लगा लिया।
लतिका श्रीवास्तव
#अपनेपन की महक – डॉक्टर संगीता अग्रवाल
पति की मृत्यु के बाद,श्यामली बिल्कुल अकेली पड़ गई थी,लड़कियां ससुराल की हो गई और लड़के अपनी
पत्नियों के…अपनेपन की महक से महरूम वो क्या करें?समझ न पाती।
फिर उन्होंने शुरू किया सड़क के कुत्तों, गाय,बंदर को रोटी बनाकर खिलाने का सिलसिला।एकाध रोटी से
शुरू किया काम वो बढ़ाती चली गई और आज वो बहुत व्यस्त हैं।
उन कुत्तों की आंखों में खुद के लिए स्नेह देखकर,गाएं भी मानो उन्हें पहचान जाती हैं और स्नेह प्रदर्शन करना
नहीं भूलती,श्यामली बहुत खुश हैं,अपनेपन की महक कहीं से भी मिल सकती है,जरूरत है उसे सही जगह
ढूंढने की।
डॉक्टर संगीता अग्रवाल
वैशाली,गाजियाबाद
अपनेपन की महक – डाॅ संजु झा
मैं अमन अपने कुछ दोस्तों के साथ इंजिनियरिंग कोचिंग के लिए कोटा शहर के लिए रवाना हो गया। सभी दोस्त माता-पिता से पहली बार अलग हो रहे थे,इस कारण सभी काफी भावुक थे और सभी की आंखें नम थीं।
कोटा शहर पहुंचकर सभी अपनी पढ़ाई में रम गए। मैं काफी संवेदनशील और अंतर्मुखी स्वभाव का था। पढ़ाई से फुर्सत मिलने पर मैं मां की याद में छुप-छुपकर आंसू बहाता था। यहां अपनेपन के अभाव में अकेलापन ज्यादा ही मायूस करता था।उस दिन होली थी और मां की यादें मुझे भाव-विह्वल कर रहीं थीं।उसी समय मेरे दोस्त विनय की मां,जो कोटा आईं हुईं थीं, पकवान की थाली लेकर विनय के साथ मेरे कमरे में आईं और बड़े ही अपनेपन के साथ कहा -“बेटा! होली के अवसर पर तुम दोनों मेरे सामने खाओ, जिससे मुझे संतुष्टि मिलेगी।”
घर से दूर होकर पहली बार अपनेपन की सुगंध पाकर मैं आंटी के गले लगकर रो पड़ा।
समाप्त।
लेखिका -डाॅ संजु झा । स्वरचित
दादी की गोद – विभा गुप्ता
सुधा की शादी के चार महीने हो रहे थे, तब से वो देख रही थी कि उसकी जेठानी आशा के बच्चे अपनी दादी के साथ ही खाते हैं, उनके के ही साथ सोते हैं।एक दिन उसने आशा से कह दिया,” दीदी..आप अपने बच्चों को अम्मा जी के साथ सोने क्यों देती हैं..कहीं उन्हें कोई इंफेक्शन…।” सुनकर आशा उसके कंधे पर अपने दोनों हाथ रखते हुए गंभीरता-से बोली,” सुधा..दादी की गोद में मेरे बच्चों को बहुत सुकून मिलता है…दादी के सीने से लगकर सोने में उन्हें एक अपनेपन की महक मिलती है।जानती हो..अम्मा जी के हाथ से तो वो सारी सब्ज़ियाँ भी खा लेते हैं।बच्चे कहते हैं कि दादी के हाथों में मिठास है।सुधा, बड़ों की छत्रछाया नसीबवालों को ही मिलती है और उनसे बच्चों में इंफ़ेक्शन नहीं..संस्कार आते हैं।अम्मा जी ने तो…।”
” साॅरी दीदी..रिश्तों के अपनेपन की महक को महसूस करने में मुझसे भूल हो गई लेकिन अब नहीं होगी।अब मैं भी अपने बच्चे को अम्मा जी के ही..।” कहते हुए सुधा ने अपने पेट पर हाथ रखा तो आशा ने मुस्कुराते हुए उसे अपने सीने-से लगा लिया।
विभा गुप्ता
# अपनेपन की महक स्वरचित, बैंगलुरु
अपनेपन की महक – संध्या त्रिपाठी
तबादले की वजह से आशिता और अनुराग अलग-अलग रहते थे अनुराग अपने मम्मी पापा के साथ रहता था , छुट्टियों में कभी आशिता आ जाती तो कभी अनुराग चला जाता …..एक दिन …..
हेलो मम्मीजी मेरी दो-तीन दिनों की छुट्टी बाकी है, मैं आ रही हूं …पर बहू अनुराग तो यहां नहीं रहेगा , उसका रियूनियन है ! तो क्या हुआ मम्मीजी मैं अनुराग के अनुपस्थिति में आप लोगों के पास नहीं आ सकती …अच्छा तो है मुझे और समय मिलेगा आप और पापाजी के साथ बिताने का …आपकी इस बार रसोई से पूरी तरह छुट्टी ! शकुंतला देवी सोच रही थी , मैं तो चाहती हूं बेटा कि तुम दोनों पति-पत्नी ज्यादा समय साथ बिता सको.. पर तेरी सोच में बेटी और मां वाले अपनेपन की महक आ रही है !
(स्वरचित)
संध्या त्रिपाठी
अंबिकापुर ,छत्तीसगढ़
अपनेपन की महक – डा.शुभ्रा वार्ष्णेय
दादी ने पोती आर्या को पुराने संदूक से एक कंबल निकालने को कहा। कंबल के साथ बचपन की यादें भी बाहर आ गईं।
आर्या ने मुस्कुराते हुए पूछा, “दादी, इतने पुराने कंबल का क्या करेंगे? नया मंगवा दूँ?”
दादी ने कंबल को गले लगाते हुए कहा, “बेटा, इस कंबल में तुम्हारी माँ के बचपन की हँसी, तुम्हारे दादाजी की कहानियाँ और सर्द रातों का अपना-सा एहसास बसा है। ये सिर्फ कंबल नहीं, अपनेपन की महक है।”
आर्या ने कंबल को छूते हुए महसूस किया—दादी सही कह रही थीं। कुछ महकें वक्त के साथ भी नहीं मिटतीं।
प्रस्तुतकर्ता
डा.शुभ्रा वार्ष्णेय