तीर्थ यात्रा – शुभ्रा बैनर्जी : Moral stories in hindi

Moral stories in hindi : ममता आज भी अपने बचपन की यादों को सहेजे रखी थी। यद्यपि सारी सुख सुविधाएं उपलब्ध नहीं थीं उस समय,पर जितना भी मिला बहुत था।तब आज-कल के जैसे बड़े-बड़े सपने नहीं देखतीं थीं आंखें। संयुक्त परिवार में खुशियों के हर लम्हों को सभी के साथ बांट लेने का चलन था।

साझी खुशियां और दुख भी साझे। स्कूल -कॉलेजों में लड़के और लड़कियों के बीच एक जैसी दोस्ती होती थी।लड़कियां लड़कों के साथ फुटबॉल, खो-खो,पिट्टुल,छिपा-छिपाई खेल सकती थीं ममता तो कंचे भी खेल चुकी थी।स्कूल के ट्रिप में कक्षा आठवीं में ट्रक में बैठकर सभी शिक्षकों के साथ जाना आज भी रोमांचित करता है।

कॉलेज के टूर में ना जाने कितनी जगह घूमना हुआ।पापा मना करते थे,अकेली लड़की कैसे जाएगी नई जगह बोलकर,पर मां कुछ ना कुछ जुगाड़ कर के भेज ही देतीं थीं।कितना भरोसा होता था अपनी बेटी पर ,कि कुछ ग़लत नहीं होगा।ममता ने पुरी,आगरा ,नैनीताल,बनारस की यात्रा कॉलेज टूर में ही कर ली थी।जब कभी मां से पूछती”तुम डरती नहीं हो मां,मुझे अकेले इन जगहों में भेजने में?

“तब वह हंसकर कहतीं”यही समय तो है ममतू , दुनियादारी की फिकर छोड़ घूम लेने का।कल को पता नहीं मौका मिले या नहीं।हमारे पास इतने पैसे तो नहीं हैं कि तुम सभी भाई-बहनों को साथ में लेकर कहीं घूमने जाएं,तो तेरी किस्मत का घूमना अगर तुझे मिल रहा है,तो घूम ले।मुश्किल से सौ या डेढ़ सौ रुपए में एक हफ्ते का टूर हो जाता था।

आज बेटी को जब बतातीं हूं तो बेझिझक कहती है वह,”नानी ने तुम्हें आजादी देकर तुम्हें आत्मनिर्भर बनाया है मम्मी।उस दौर में पति की इच्छा के विरुद्ध जाकर, सास-ससुर को मनाकर अपनी बेटी को घूमने जाने देना किसी क्रांति से कम नहीं था”।

ममता ख़ुद भी इस बात को स्वीकार करती है।अपने बच्चों चाहे बेटा हो या बेटी,भरोसा करना बहुत हिम्मत का काम है,और यह हिम्मत उसे अपनी मां से मिली।सीमित साधनों में हर खुशी देने की पूरी कोशिश की उन्होंने।यहां तक कि वीडियो के उस जमाने में ममता को लेकर खुद जातीं थीं।

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तोहफा, हिम्मत वाला, लावारिस नजराना और भी ना जाने कितनी फिल्में मां के साथ ही देखीं थीं ममता ने।शादी बुआ ने तय की थी ममता की।मां खुद रेलवे में स्टेशन मास्टर की बेटी थीं ,हो रेलवे की नौकरी में पास मिलने की सुविधा उन्हें सदा ही विशेष उपलब्धि लगती।यहां तो दामाद कॉलरी में काम करने वाला था।

उनका माथा ठनका तो सीधे होने वाले दामाद से ही पूछ लिया”साल में एक बार परिवार और पत्नी को घुमाने ले जाने तक कमा लेते हो ना तुम?”उनका प्रश्न सुनकर बुआ के होश उड़ गए और होने वाली सासू की भंवे तन गईं।शादी के बाद पति और सास ने ही बताई थी, मां के इस आंदोलन कारी प्रश्न के बात।ममता मुस्कुरा कर रह गई।ऐसा उसकी मां ही कर सकती है।बेटी रुपयों की तंगी के कारण कहीं घूमने जाने से वंचित ना रह जाए,यह सोच कितनी मांओ की हो सकती है?

नाना को मां ने आश्वस्त किया था कि कॉलरी में भी घूमने जाने का भत्ता अलग से मिलता है,तब बात पक्की हुई।मां ने कहा था “पापा की मर्जी के खिलाफ भी तुझे नेपाल तक भेजा था मैंने।अब गृहस्थी की गाड़ी संभालने के चक्कर में अपने मन को मत मारना।परिवार में खर्चे कभी कम नहीं होंगे,बढ़ते ही रहेंगे।जो अलग से पैसे देगी कंपनी घूम लिया करना पति के साथ। ना-नुकुर मत करना, आदतन।”

हे भगवान इन्हें घूमने-फिरने के सिवाय और कुछ नहीं सूझता,ममता अक्सर सोचती थी तब।अब ससुराल में रहकर मां को याद करती है कि सच में सारे साधन होने के बाद भी,घूमने जाना कहां हो पाया?ससुर को लकवा मार गया।बच्चे छोटे थे,ख़ुद स्कूल में नौकरी कर रही थी।समय नहीं मिला कभी और कभी संयोग नहीं बन पाया।सासू मां की सकारात्मक सोच की वज़ह से अपने स्कूल ट्रिप कभी नहीं छोड़ी ममता।यह भी ईश्वर की अपार लीला थी।

अब ममता की भी उम्र हो रही है।सासू मां अस्सी पार कर चुकी हैं।अब तीर्थ करने का बहुत मन करने लगा है। उज्जैन बेटी ज़िद करके भेजी,और बनारस बेटा लेकर गया।सासू मां को अकेली घर पर छोड़कर ज्यादा दिनों के लिए घर छोड़ना संभव नहीं अब।पुरी जाने का बहुत मन था पति का,पर किसी न किसी कारण जाना नहीं हो पाया।अब उनकी मौत के बाद ममता भी अकेली पड़ गई।एकदम अकेले कहीं जाना भी संभव नहीं और सब के साथ जाने के लिए समय ज्यादा चाहिए।

हर साल सावन में ज्योतिर्लिंग दर्शन का विचार करती।होली में वृंदावन‌ जाने का मन करता,पर हो ही नहीं पा रहा था।कॉलोनी में महिला मंडली समूह बना-बनाकर गोवा, मुंबई,बनारस,केदारनाथ और भी ना जाने कहां -कहां घूम रहीं थीं।ममता बड़बड़ाती रहती “जब समय था तब परिवार के चक्कर में नहीं जा पाया तुम्हारा बेटा।अब खुद ही चला गया मुझे अकेली छोड़कर।सब अपने-अपने पतियों के साथ जातीं हैं ,तो मुझे अच्छा नहीं लगता।”

सासू मां कहती”देखना जब भगवान का बुलावा आएगा ना,तुम पहुंच जाओगी ख़ुद ही।मेरी चिंता मत करना।मैं संभाल लूंगी ख़ुद को।”ममता को स्वयं ही ग्लानि होती,मां की क्या ग़लती है?अब इस उम्र में वो साथ भी नहीं जा सकतीं और ना ही उन्हें छोड़कर ममता कहीं जा सकती।यही तो बंधन है परिवार का,मां का।मेरी मां ठीक ही बोलती थीं।

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आज शाम को कॉलोनी की महिलाओं द्वारा सावन कार्यक्रम की रूपरेखा तैयार की जा रही थी।ममता के घर पर मीटिंग थी।ममता नाचने और गाने की प्रतियोगिता से कोसों दूर रहती थी ,हां मंच संचालन उसके जिम्मे था।मीटिंग समाप्ति पर सभी को चाय पिलाकर फुर्सत ही हुई थी ममता की कि पड़ोस वाली भाभी ने घूमने जाने का राग फिर छेड़ दिया “भाभी जी,इस बार सावन के आखिरी सोमवार को हम सभी ने बनारस जाने का सोचा है,आप भी चलिए ना।

भाई साहब के रहते तीर्थ कर लेतीं तो अच्छा था।जोड़े में ही तीर्थ का पुण्य मिलता है।खैर,आप अकेले भी जा सकतीं हैं,हम लोगों के साथ।”ममता की दुखती रग में हांथ रख दिया था पड़ोसन ने।कान में लगा पिघला सीसा घुल रहा हो।चेहरा तमतमा आया था ममता का गुस्से और असहाय की भावना से।सासू मां जो ममता के चेहरे के भावों को,उसकी आवाज के दर्द तक को समझतीं थीं,ने पलटवार कर दिया।”बेटा ,मेरी बहू ने तो कब के चारों धाम तीर्थ कर लिए।उसे पुण्य कमाने की जरूरत नहीं।मेरे हिस्से का पुण्य भी मैंने उसे दे दिया।मेरी बहू ख़ुद ही गंगासागर है।”

सारी महिलाओं की बोलती बंद हो गई।चिढ़कर ऐसा देखा उन्होंने सासू मां की तरफ़,ममता को हंसी ही आ गई।एक साहसी भाभी ने अपने हथियार नहीं डाले” अरे!अम्मा कहां कहां घूम आई आपकी बहू?हमें तो पता ही नहीं चला।बता देती तो गंगा जल ही मंगवा लेते हम।प्रसाद भी तो नहीं दिया भाभी ने कभी।”

सासू मां भी मैदान छोड़ने वालों में से नहीं थीं वह।ख़ुद मुश्किल से चार इंच की होंगीं पर साढ़े छह इंच के लंबू पति को उंगली में नचाती थीं(ऐसी पदवी ममता ने ही दी थी हंसकर)।तुरंत पैंतरा बदल कर बोली”बेटा ,इस दुनिया में सभी तीर्थ करतें हैं अपना पुण्य कमाने के लिए।मेरी बहू ने तो अपनी सास को तीर्थ करवा दिया।

इससे बड़ा तीर्थ और क्या होगा?”बस बोलती बंद हो गई सभी की।खिन्न मन से विदा लीं वे।ममता ने आश्चर्य से सासू मां की तरफ देखकर पूछा”मां,मैंने कब तुम्हें तीर्थ करवाया?कितना झूठ बोलती हो तुम इस उम्र में।अपनी बहू को बड़ा करने के लिए झूठ बोलकर पाप का भागी क्यों बनी तुम?”

“नहीं रे,मैंने कोई झूठ नहीं बोला।तुम ही तो मुझे अपनी बहन के पास (लखीमपुर खीरी)लेकर गई थीं। कितने सालों  तक तुम्हारे ससुर ने मुझे अपने मायके से संबंध नहीं रखने दिया।सालों पहले मेरे इकलौते भाई से विवाद होने के बाद से ना तो मायके से कोई मेरे पास आया और ना ही मैं गई।

मेरे अपने  बच्चों ने कभी सुध नहीं ली अपने मामा -मौसी की। तुमने ढूंढ़कर निकाला मेरे भाई -बहन का पता।मेरी विधवा बहन के पास लखीमपुर तुम लेकर गई थीं ना बच्चों की छुट्टियों में।मेरे लिए सालों के बाद अपनी बहन से मिलना,साथ में घूमना किसी तीर्थ से कम नहीं।गोला जाकर शिवलिंग में जल और कमल चढ़ाना याद नहीं तुम्हें?तुम्हें सारे तीर्थ का फल मिलेगा बेटा।जो अपनी सास की इच्छा बिना कहे पूरी कर दे,वो बहू हो तुम।तुम्हें पुण्य कमाने के लिए किसी से होड़ करने की जरूरत नहीं।”

वह रो रहीं थीं और साथ में ममता भी।हां यह तो सच है , पंद्रह दिन तक रुकी थी वह बच्चों और सास को लेकर मौसी  सास के घर।खूब मस्ती की थी बच्चों ने वहां।मौसी को अपनी बहू के साथ का सुख कभी  नसीब नहीं हुआ था(वह इकलौते बेटे को मां से अलग कर कहीं और रहती थी)।

उन्होंने जी भर के ममता लुटाती थी ममता पर।गोला में जाग्रत शिवलिंग भी लेकर गईं थीं।दोनों बहनों ने बुढ़ापे में कुछ दिन साथ रहकर जो सुख अर्जित किया था ,वह आज सासू मां के आंसू बयान कर रहे थे।एक सास ने तीर्थ की परिभाषा बदल दी और एक नया अर्थ दिया तीर्थ को।अब ममता कभी अफसोस नहीं करेगी कहीं ना जा पाने की विवशता पर।एक मां ने कम साधन में कितने तीर्थ करवा दिए,ओर एक मां ने अपने पुण्य उसे दान में दे दिए।ममता के सारे तीर्थ पूरे हुए।

शुभ्रा बैनर्जी

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