हाथ में चाय का कप लिये शैलेश अखबार पढ़ रहा था कि उसकी नज़र हेडलाइन पर ठहर गई,’ बेस्ट सेलर किताब- वरदान के लेखक ‘ श्री शिव मंगल जी’ का सम्मान समारोह’।नीचे छपी तस्वीर देखकर वो चौंक पड़ा,” पापा जी!” उसे यकीन नहीं हुआ।उसने बड़े भाई शीलेश को फ़ोन किया,” भईया..आज की हेडलाइन देखी..।”
” हाँ..मुझे तो विश्वास नहीं हो रहा है कि पापा जी..,कल चलकर देखे..।” निलेश ने अपनी शंका व्यक्त की तब शैलेश बोला,” चलिये..कल शाम को ओरियेंट क्लब में मिलते हैं।”
अगले दिन शाम चार बजे दोनों भाई ओरियेंट क्लब के दर्शक दीर्घा की दूसरी लाइन में बैठे हुए थे।मंच पर उद्घोषक महोदय ने जब कहा कि अब आपके समक्ष बेस्ट सेलर के लेखक श्री शिवमंगल जी पधार रहें हैं तो पूरा हाॅल तालियों की गड़गड़ाहट से गूँज उठा।उन्हें माला पहनाकर, हाथ में पुष्प- गुच्छा देकर उनका स्वागत किया गया।मंच पर उपस्थित लोग बारी-बारी से उनकी प्रशंसा में दो शब्द कहते जा रहें थें और दर्शक-दीर्घा की सीट पर बैठे निलेश और शैलेश अपने पिता के ऊँचे कद को देखकर हैरान थे कि ये सब कैसे हुआ..वो तो…।
शिवमंगल जी ने अपने कस्बे के स्कूल से ही दसवीं पास की थी।शहर के काॅलेज़ से बीएड करके उन्होंने कस्बे के एक स्कूल में शिक्षक का पद संभाल लिया।उनकी माताजी ने अपनी पसंद की एक सुशील कन्या कनकलता के साथ उनका विवाह करा दिया।समय के साथ वो दो पुत्रों के पिता बन गये।समय के साथ उनके बच्चे सयाने होने लगे..उनकी पदोन्नति होती गई…तनख्वाह भी बढ़ती गई।इसी बीच उनके माता-पिता का देहांत हो गया।कनकलता उनके साथ हर सुख-दुख में कंधे से कंधा मिलाकर चलती रहीं।
शिवमंगल जी का बड़ा बेटा निलेश मुंबई में नौकरी करने लगा।साल भर बाद अपनी पसंद की लड़की नीता के साथ विवाह करके वो वहीं सेटेल हो गया।छोटा बेटा शैलेश दिल्ली के एक बैंक में नौकरी करने लगा।कुछ समय के बाद उसने अपनी सहकर्मी अंजू के साथ विवाह करके अपनी गृहस्थी बसा ली।निलेश दो बेटों का पिता बन गया और शैलेश एक बेटी का पिता।
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शिवमंगल जी छुट्टी लेकर पत्नी के साथ कभी निलेश के पास चले जाते तो कभी शैलेश के पास।शैलेश का ट्रांसफ़र दूसरे शहर हो जाता तो दोनों खुश हो जाते कि नया शहर घूमने को मिल जायेगा।
अपना साठवाँ जन्मदिन मनाने के बाद शिवमंगल जी को अध्यापन-कार्य से मुक्ति मिल गई तब उन्होंने पिता के कृषि-कार्य को संभाल लिया और पत्नी के साथ सुखद जीवन का आनंद लेने लगे।साल भर बाद निलेश बोला,” पापाजी..आपकी उम्र हो रही है और माँ भी घुटनों के दर्द से परेशान रहतीं हैं
तो क्यों न आप हमेशा के लिये हमारे साथ रहें..,बच्चों को आपका साथ मिलेगा और शैलेश से भी मिलना आसान हो जायेगा।” निलेश का अपने प्रति स्नेह देखकर वो ना नहीं कह सके।उन्होंने खेती का काम एक विश्वासी व्यक्ति को सौंप कर घर में ताला लगा दिया और पत्नी के साथ बेटे के पास चले गये।शहर उनका जाना-पहचाना तो था ही, सो जल्दी ही वो और कनकलता जी वहाँ के परिवेश में ढ़ल गये।शैलेश और अंजू भी उनसे मिलने आ जाते थे।
एक दिन शैलेश आया और शिवमंगल जी से बोला,” पापाजी…आप दोनों तो अब यहीं रह रहें हैं तो गाँव वाला खेत और घर बेच दीजिये…उस पैसे से मैं घर ले लूँगा और भईया भी बड़ा घर ले लेंगे।” सुनकर शिव मंगल जी सन्न रह गये।तभी निलेश आया और बोला,” हाँ पापा..मैं भी आपको यही कहने वाला था कि..।” शिवमंगल जी इतना ही बोले,” मुझे सोचने दो..।” लेकिन उनके दोनों बेटे सिर पर सवार हो गये तब उन्होंने घर बेचने से इंकार कर दिया।
उसी दिन से निलेश उनसे खिंचा-खिंचा सा रहने लगा।नीता भी बात-बात पर कनकलता पर झल्लाने लगती।एक दिन उसकी सहेलियाँ आईं हुईं थीं।सास से काम करवाना था तो मीठे स्वर में बोली,” माँ जी..आपके हाथ के मिर्च-पकौड़े बड़े स्वादिष्ट होते हैं।” माँ का दिल पिघल गया, बोली,” हाँ-हाँ..तुम सहेलियों के पास बैठो..मैं बनाकर लाती हूँ।” नीता ने सहेलियों से प्रशंसा बटोरी लेकिन बरतन उठाते समय कनकलता जी के हाथ से एक प्लेट क्या टूटी, नीता ने उन्हें बहुत सुना दिया।तभी शिव मंगल जी बोले,” चलो..अपने घर चलते हैं।” लेकिन माँ अपना पुत्र-मोह नहीं त्याग सकी।दिन बीतने लगे।
एक दिन शिवमंगल जी अखबार पढ़ रहे थे तो निलेश ने छीन लिया,” पापाजी..आप अखबार पढ़ कर क्या करेंगे..।” वो तिलमिला कर रह गये थें।कुछ महीनों के बाद शैलेश आया तो उन दोनों को अपने साथ ले गया।
दो दिनों के बाद शैलेश के यहाँ भी शिवमंगल जी को तीखे स्वर ही सुनने को मिले।बहू कभी उन्हें ड्राइंग रूम में बैठने से मना करती तो कभी कनकलता जी को मेहमानों के सामने न आने की हिदायत दे देती।
एक दिन शिवमंगल जी को बुखार हो गया।शैलेश ने डाॅक्टर को बुला दिया लेकिन अंजू ने उन्हें सर्वेंट क्वाटर में शिफ़्ट कर दिया।पति का अपमान कनकलता जी से बर्दाश्त न हुआ।पति के ठीक होते ही दोनों फिर से निलेश के पास आ गये।औलाद का मोह ही ऐसा होता है कि इंसान ठोकर खाकर भी बेटे के द्वार पर ही रहता है।
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एक दिन कनकलता जी दाल में नमक डालना भूल गई।इतनी-सी बात पर नीता उन पर बहुत गरज़ी..उसने उल्टा-सीधा सुनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी।शिव मंगल जी बोले,” अब चलो..।” वो बोली,” अपने ही तो बच्चे हैं।”
” अपने ही बच्चे हैं तो क्या उनसे जूते खायें..।” शिव मंगल जी गरजे और उसी रात पत्नी को लेकर बेटे का घर छोड़ दिया।निलेश ने उन्हें रोकना चाहा तो नीता बोली,” जायेंगे कहाँ.. दो दिन में खुद ही वापस आ जायेंगे।”
स्टेशन पर रात बिताकर सुबह की पहली ट्रेन से वे अपने गाँव आ गये..अपने घर में उन्हें सुकून मिलने लगा।शिव मंगल जी फिर से खेती करने लगे और गाँव के निर्धन बच्चों को पढ़ाने लगे।उनके पढ़ाये बच्चे कुछ बन जाते तो उन्हें लगता जैसे जीवन सार्थक हो गया।कनकलता जी मंदिर चली जाती और वहाँ आई महिलाओं की समस्या का निदान करतीं।इस बीच न तो उनके बेटों ने माता-पिता की खबर ली और ना ही उन्होंने..।
एक दिन शिवमंगल जी को उनके मित्र ने सुझाव दिया कि सभी बुजुर्ग अपने-अपने घरों में तिरस्कृत होते हैं..आप अपने अनुभवों को लिखिये..।तब उन्होंने अपने बचपन के दिन..अपने संघर्ष..पत्नी का सहयोग..बच्चों के साथ बिताये खट्टे-मीठे अनुभव..अपने साथ हुए व्यवहार..नयी पीढ़ी की सोच…आधुनिकीकरण के दुष्प्रभाव तथा अपने आसपास की घटनाओं को शब्दों में पिरोया और एक किताब का रूप दिया जिसका नाम रखा- वरदान
उनकी किताब प्रकाशित होते ही लोग खरीदने लगे।महीने भर में वरदान पुस्तक की पाँच सौ से अधिक प्रतियाँ बिक गई।लोगों के बीच उनकी पुस्तक की चर्चा होने लगी।उनकी पुस्तक से कई परिवारों में जागृति आई।तब उनके मित्र ने कहा,” शिवमंगल..तुम्हारे लिये तो बेटों का #अपमान बना वरदान साबित हुआ।” सुनकर वो मुस्कुरा दिये।
पुस्तक के प्रकाशक की तरफ़ से ही उन्हें सम्मानित किया जा रहा था।तालियों की गड़गड़ाहट से निलेश और शैलेश की तंद्रा टूटी।एक सज्जन ने शिवमंगल जी पूछा,” आप अपनी सफलता का श्रेय किसे देना चाहते हैं।” तब वो मुस्कुराते हुए बोले,” अपने दोनों बेटों को…।” सुनकर निलेश-शैलेश की आँखों से झर-झर आँसू बहने लगे।अगली सुबह ही दोनों शिव मंगल जी के पास पहुँच गये।चरण-स्पर्श करके अपने व्यवहार के लिये
माफ़ी माँगे और घर चलने का आग्रह करने लगे।तब वे बेटों के सिर पर हाथ फेरते हुए बोले,” मेरे बच्चों.. मेरे हृदय में तुम्हारे लिये प्यार और भी बढ़ गया है क्योंकि मेरे लिये तो अपमान बना वरदान है।तुम लोगों की स्नेह की बेड़ियों में जकड़ा रहता तो मैं स्वयं को कैसे पहचान पाता।तुम्हारी माँ जो जागरुकता अभियान चलाकर समाज-सेवा कर रही है, वो सब तो बेटे..तुम लोगों के कारण ही संभव हो पाया है।इसलिये हम दोनों की तरफ़ से ‘ थैंक यू बेटा ‘..।
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” फिर भी पापाजी..हम आपके बेटे..।” कहते हुए निलेश की आवाज़ लड़खड़ा गई।
” वो तो तुम हमेशा रहोगे लेकिन अभी हमें अपने कस्बाई परिवार को देखना है..उनके दुख को दूर करके.. उनके सुख में शामिल होकर अपने जीवन को सार्थक करना है।” तपाक-से कनकलता जी बोलीं और अंदर चली गई ताकि उनके आँख से बहते हुए आँसुओं को उनके बेटे देख न ले।
निलेश-शैलेश वापस चले आये और अगले दिन शिवमंगल जी भी पत्नी के साथ वापस अपने घर आकर अपने जीवन के उद्देश्यों को पूरा करने में जुट गये।अब न तो उनको अपनी बढ़ती उम्र का एहसास होता है और ना ही कनकलता जी को पुत्र-मोह सताता है।
विभा गुप्ता
स्वरचित, बैंगलुरु
# अपमान बना वरदान
अपनों से अपमानित होकर इंसान अक्सर खुद को निरीह मान लेता है लेकिन कभी-कभी वही अपमान उनके लिये उन्नति के नये मार्ग खोल देता है जो उनके लिये एक वरदान साबित होता है जैसा कि शिवमंगल जी और कनकलता के साथ हुआ।