तीन जोड़ी भूखी आंखें – रेणु गुप्ता : Moral Stories in Hindi

“अरे मन्नी, आज चटनी मत बनइयो  री। वह दो नंबर वाली के महीने भर की मलाई इकट्ठी हो गई है। कल उसका दही भी जमा दिया। अभी जाकर उससे घी  निकालना है। खूब बड़ा भगोना भरकर छाछ  लाऊंगी आज तो।  दस रुपयों  का बेसन और पांच पांच रुपयों का जीरा और  साबुत लाल मिर्च ले अइयो,  नत्थू की दुकान से मेरे आने से पहले पहले।

कड़ाही भरकर बढ़िया सी कढ़ी बनाऊंगी, राई जीरे  के छौंक  वाली। छकके  खइयो  दोनों भाई बहन,” घर घर खाना बना कर गुज़ारा करने वाली विधवा रमिया ने अपनी बेटी मन्नी और बेटे चंदू से कहा।

“अरे वाह अम्मा, कढ़ी बनाएगी आज? मैं तो पूरे दो कटोरे भर कर खाऊँगा कढ़ी, हां, कहे देता हूं।”

“अरे बेटा, तू तीन कटोरे खा लीजो। बस, अब तो खुस? पूरे भगोना भर छाछ निकलेगी आज उस दो नंबर वाली के।”

“रोज रोज चटनी से रोटी खाते खाते मुंह कैसा तो कड़वा कसैला हो आया अम्मा। अब तो इत्ते दिन से तूने कोई सब्जी ही ना बनाई। रोज ये मरी लहसुन मिर्ची की चटनी धर कर रोटी दे देवे है तू,” चंदू ने मां से कहा। 

“हां रे, सच बोल रहा है तू। इत्ते दिन से सब्जी ना खिलाई तुम दोनों को। सच कहूं तो तुम्हें रोज़ाना  चटनी और प्याज से सूखी रोटी खाते देख कलेजा सुलग उठता  है मेरा। पर क्या करूं बेटा। इस मुए कोरोना ने तो कमर तोड़ दीनी। तुम्हें रोजीना सब्जी दाल खिलाती तो पिछले बरस का खोली का बकाया किराया कैसे चुकाती? अभी तो तीन महीनों का किराया और बिजली का बिल और बचा है। बस ये चुक जायें,

तो फिर से दोनों बखत सब्जी जरूर बना दिया करूंगी तुम दोनों की खातिर पहले की तरह। थोड़े दिन और चटनी प्याज  से रोटी खा लो। क्या करूं बेटा, आज को तुम्हारे बापू जिंदा होते तो इत्ती मुसीबत ना आती। मैं अकेली एक कमाई से क्या क्या खर्चे पूरे करूं?” रमिया ने अपने बच्चों को पुचकारते हुए कहा।

तभी चंदू चहका, “अम्मा, पकौड़ी वाली कढ़ी बनाएगी न? आहा, आज तो पकौड़ी भी खाने को मिलेगी।”

“कोरी कढ़ी बनाऊंगी रे, इत्ता उछले मत। पता भी है, बेसन कित्ता महंगा है?”

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फिर घर से निकलते वक्त उसने पल्लू में बंधे  रूपयों  में से बीस  रुपये मन्नी  को दिए, और बोली,  “तू ही लइयो री  खुद सारा सामान, नहीं तो यह चंदू उनसे टॉफी खरीद लाएगा। मेरे पास एक बखत की कढ़ी के लिए खर्चने को और पैसे नहीं है, याद रखियो। सत्यानाश हो इस कोरोना का, इत्ता कर्जा चढ़ गया, जो दाल सब्जी छिन गई हमारे मुंह की। 

क्या करें, कहां जाएं हम गरीब?  हमारा तो नसीब ही खोटा है। किसी को देता है तो छप्पर फाड़ के, और किसी के भाग में रूखी रोटी। मेरे सब काम वाले घरों में  खतम होने से पहले थैला भर भर के ताज़ा सब्जी आ जावे है, और हम और हमारे बच्चों  खातिर सब्जी तो जैसे सपना होवे है,”  मुंह ही मुंह में बुदबुदाते  हुए रमिया  ने घर से कदम बाहर निकाला ही था, कि मन्नी ने पीछे से मां को आवाज दी,   “अम्मा री, कढ़ी खातिर एक चीज तो भूल ही गई।”

“तुझसे कितनी मर्तबा कहा है, पीछे से आवाज मत दिया कर।  बनते काम बिगड़ जाते हैं। अब फूट  भी छोरी, क्या कहना है?”

“अम्मा री, कढ़ी  के छौंक की खातिर हींग  भी तो चाहिए। थोड़े दिन पहले तू  किसी के घर से कढ़ी लाई थी न,  हींग के बघार वाली। मुझे वैसी ही कढ़ी  खानी है। अभी तक उसका स्वाद जुबान पर धरा है। मेरी अच्छी अम्मा बीस रुपये  और दे दे।  हींग भी ले आऊंगी।”

“ना री मन्नी, हम गरीबन को ये स्वाद के चोंचले  सोभा ना देते री छोरी। जे नखरे अमीरन को ही साजे   हैं री। पता भी है हींग,  कितनी महंगी आवे है? बीस रुपये  की जरा सी देवे है यह मरा नत्थू। उत्ते में  तो एक किलो आलू आ जावेंगे। चल चल, ज्यादा रार मत कर री,  मुझे जाने दे।  देर हो गई तो वह दो नंबर वाली प्राण पी  जावेगी।”

“अम्मा बस बीस रुपये, देदे न अम्मा,  मेरी अच्छी अम्मा।”

“ले मरी, पीछे ही पड़ जावे है तू तो।  चल ले यह बीस रुपये और। पीछा छोड़ मेरा”, रमिया ने बनावटी गुस्से से  बेटी को झिड़कते हुए कहा।

दो नंबर के बंगले पर घी  निकालते और खाना बनाते रमिया को रात के  नौ  बजने आए। रोज तो आठ   बजते  बजते वह घर पहुंच जाती थी।

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मन्नी और चंदू दोनों बड़ी बेसब्री से आठ  बजे से मां की राह तक रहे थे।  

“अरे जिज्जी, अम्मा को आज बहुत देर हो गई। इतनी देर तो वह कभी ना करती। मेरे तो पेट में बुरी तरह से मरोड़ उठ रही हैं भूख के मारे जिज्जी।”

“अरे चंदू, मेरा भी यही हाल है। फिकर  मत कर।  मैंने कड़ाही में बढ़िया सा हींग, जीरे और लाल मिर्च का बघार तैयार कर दिया है।  रोटियां भी सेक  दी हैं। बस अम्मा आ जाए तो कढ़ी बने।”

“जिज्जी,  बहुत बढ़िया खुशबू आ रही है, हींग के तड़के  की। आज तो कढ़ी  बहुत बढ़िया बनेगी, है ना”, चंदू ने होठों पर जीभ फिराते हुए कहा।

“हां रे, मेरे भी मुंह में पानी आ रहा है, कढ़ी की सोच सोच कर। आज तो जी भर कर खाऊंगी हींग के छौंक वाली कढ़ी।”

कि तभी दूर से एक बड़ा सा डब्बा हाथों में थामे आती मां दिखीं।

उसे देखते ही चंदू झपट कर मां की तरफ भागा और उस से लिपट गया, “अम्मा री, इत्ती देर कर दी।”

पलक झपकते ही  न जाने क्या हुआ, रमिया का संतुलन बिगड़ा और देखते-देखते छाछ का डब्बा रमिया के हाथों से फिसल कर जमीन पर औंधा गिर गया।

तीनों मां, बेटा और बेटी हक्के बक्के समवेत स्वरों में चीख पड़े,  “हौ… ।”

रमिया ने आव न देखा ताव, चंदू के गाल पर  अपनी पूरी ताकत लगाकर एक के बाद एक थप्पड़ जड़ दिए, “चल मरे, अब खा ले कढ़ी। एक  मिनट का सबर ना है।”

चंदू अपना गाल सहलाते हुए  हो हो कर बिलख उठा।

तीन  जोड़ी भूखी आंखें जमीन पर तितर बितर धार धार बहती  छाछ पर चस्पा थीं।

रेणु गुप्ता

मौलिक

स्वरचित

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