ताउम्र ग्लानि रही : Moral Stories in Hindi

Moral Stories in Hindi :  ” साहब…आज गरीबों में कपड़े और खाना-दवाइयाँ बँटवानी है।” बहादुर ने अपने मालिक से कहा।

  ” हाँ बहादुर, याद है…हाॅल में रखे सभी सामानों को तुम गाड़ी में भरो..मैं अभी आता हूँ।” कहकर अविनाश ने बीस-पचास के नोटों का बंडल अपने पर्स में रखे, गर्म शाॅल अपने कंधे पर डाली और गाड़ी में बैठ गये।

   ” साहब..किधर चलना है…पुलिया के नीचे या..।”

” पुलिया के नीचे ही चलो…वहाँ के लोग भी तो ठंड से कंपाकंपा रहे होंगे।” कहते हुए अविनाश बंद शीशे से  शहर की बदलती तस्वीर को देखते जा रहें थें।कुछ साल पहले तक तो कितनी हरियाली थी यहाँ…गर्मियों॔ में पंखे की ज़रूरत ही नहीं पड़ती थी…पर अब ढूँढने से भी एक पेड़…।” गाड़ी रुकते ही उनकी सोच को भी विराम लग गया।

     पुलिया के नीचे का दृश्य देखकर अविनाश की रूह काँप गई।इतनी ठंड में इन बेचारों को खुले में रहना पड़ रहा है…।उन्होंने बहादुर की मदद से एक-एक करके सभी को कंबल ओढ़ाया, बच्चों को बिस्कुट के पैकेट दिये और रुपये देने लगे तो कहीं-से एक बाईस-तेईस वर्षीय लड़का आया जिसके बाल बिखरे हुए थे, कहने लगा,” पहले आग लगाते हो, फिर बुझाने आते हो…हा-हा…।”

      सुनकर अविनाश चौंक गये।उन्हें कुछ समझ नहीं आया तो किसी से पूछा कि उस लड़के ने ऐसा क्यों कहा? पहले तो उसने जवाब नहीं दिया लेकिन जब अविनाश ने हाथ जोड़कर विनती की तब उसने कहा,” साहेब …पुरानी टोला में हमारी बहुत बड़ी बस्ती थी।हम सब वहाँ पर बहुत खुश थें।पानी-बिजली की थोड़ी दिक्कत थी, फिर भी हमारे सिर पर छत थी।फिर एक दिन…।

  ” फिर एक दिन क्या….।” अविनाश ने उसके दोनों कंधों को झकझोरते हुए पूछा।

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  ” फिर एक दिन पाँच-छह साहेब…।” उसने एक ही साँस में सबकुछ बता दिया जिसे सुनकर अविनाश के पैरों तले ज़मीन निकल गई।हे भगवान! ये मुझसे क्या अनर्थ हो गया।उनका मन आत्मग्लानि से भर उठा।उनके लिये वहाँ ठहरना मुश्किल हो गया।थके हुए कदमों से चलकर वो गाड़ी में बैठ गये।गाड़ी अपनी रफ़्तार से चलने लगी और अविनाश की आँखों के सामने अतीत के पन्ने पलटने लगे…।

      पढ़ाई में हमेशा अव्वल आने वाले अविनाश के पिता की किराने की दुकान थी।घर की आर्थिक-स्थिति अच्छी न होने के कारण वे दसवीं से आगे नहीं पढ़ पाये थें और इसीलिये वे चाहते थें कि उनका बेटा खूब पढ़े और देश-समाज की सेवा करे।अविनाश ने पहली बार में ही आईएएस की परीक्षा पास कर लिया था।शहर में उसकी पहली पोस्टिंग हुई थी।घर से विदा हो रहें थें,तब उनके पिता ने उन्हें आशीर्वाद देते हुए कहा था,” बेटा…मन लगाकर काम करना।कोई गलत काम न करना और किसी गरीब का दिल न दुखाना।” 

      पिता की सीख को गाँठ मारकर अविनाश शहर आ गये और अपना काम ईमानदारी से करने लगे।उनके पास जो भी फ़ाइल आती…वो पूरी जाँच-परख कर ही उसपर हस्ताक्षर करते।कई लोगों ने तो उन्हें रिश्वत देने की भी कोशिश की लेकिन वो अपने उसूलों पर अडिग रहे।

          एक दिन अविनाश का मित्र प्रशांत एक बिल्डर को लेकर उनके पास आया।बिल्डर का परिचय कराते हुए प्रशांत बोला,” मैं इनके साथ मिलकर पुरानी टोला में एक कॉम्प्लेक्स बनाना चाहता है।”

 अविनाश बोले,” पुरानी टोला में तो आबादी बसी हुई है।दूसरे कई प्लाॅट खाली हैं,तुमलोग वहाँ काॅम्प्लैक्स बना सकते हो।गरीबों की बस्ती उजाड़ने की परमिशन मैं हर्गिज़ नहीं दूँगा।” कहते हुए उनकी आवाज़ तीखी हो गई थी।

       उस दिन तो प्रशांत चला गया लेकिन कुछ दिनों के बाद प्रशांत फिर से उस बिल्डर के साथ आया और एक नक्शा दिखाते हुए बोला,” अवि…देख…बस्ती वालों के लिये हम यहाँ पर आवास बनवा रहें हैं, पक्के मकान होंगे और बिजली-पानी भी होगा।इन सभी को यहाँ शिफ़्ट कर देंगे तब तो तुम्हें परमिशन देने में कोई आपत्ति नहीं होगी न..।” सुनकर अविनाश बहुत खुश हुए कि मेरा दोस्त सबके भले के बारे में सोचता है।उन्होंने कहा,” ये तो बहुत अच्छी बात है।लेकिन पहले तुम उनके रहने की व्यवस्था करना उसके बाद ही…।”

” तुम चिन्ता मत करो भाई..हमें भी उनकी फ़िक्र है।” प्रशांत के चेहरे पर विश्वास देखकर अविनाश ने उसके काम्पलैक्स वाली फ़ाइल पर अपने हस्ताक्षर करके मंज़ूरी दे दी।

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      अविनाश का विवाह हो गया, उसे एक बेटा भी हुआ और वह अपने परिवार के साथ व्यस्त हो गया।एक दिन प्रशांत ने उसे बताया कि ‘ओरिएंट काॅम्पलैक्स ‘ बनकर तैयार हो गया है और कल उसका उद्घाटन है।तुम्हें आना है।अविनाश ने उसे बधाई देते हुए कहा कि बेटे के स्कूल में फ़ंक्शन है,फिर कभी।

       साल भर बाद उसने समाचार-पत्र में पढ़ा कि पुरानी टोला बस्ती वालों की स्थिति बहुत बदतर हो गई है।बिल्डर ने उन लोगों के साथ धोखा किया।पढ़कर उसे प्रशांत पर बहुत गुस्सा आया।उसने तुरन्त प्रशांत को फ़ोन लगाया लेकिन प्नशांत ने फ़ोन नहीं उठाया।अविनाश पर ऑफ़िस के काम का दबाव था,इसलिए उन्होंने एक-दो कोशिश के बाद फ़ोन नहीं किया।अपने काम और परिवार की व्यस्तता में वे पुरानी टोला की घटना को भूल गये।

      समय के साथ अविनाश की पदोन्नति होती चली गई।उनका बेटा भी MSCS(master of science in computer science) करने के लिये US चला गया।पत्नी संग बैठकर वे बेटे के लिये भावी सपने देखते रहते थें।एक दिन बेटे ने बताया कि उसे जाॅब मिल गई है,सुनकर दोनों फूले नहीं समाये थें।

       फिर एक दिन बेटे ने कहा,” डैड…मैं इंडिया आ रहा हूँ।” तब उनकी पत्नी उनसे बोली,” अबकी तो इसकी शादी कर देनी है।मैं भी तो अपनी बहू का मुँह देखूँ….पोते-पोतियों को गोद में खेलाऊँ….।” सुनकर वो खूब हँसे थें।

     फिर बेटे की फ़्लाइट के लैंडिंग का शुभ दिन आया।पत्नी ने पूरा घर दीवाली की तरह सजा लिया था।आरती की थाल लेकर बाट जोह रही थी कि तभी फ़ोन की घंटी घनघनाई और खबर आई कि बेटा जिस कैब से आ रहा था, वह दुर्घटनाग्रस्त हो गई है।पति-पत्नी अस्पताल दौड़े लेकिन….।डाॅक्टर ने कहा,” ही इज़ नो मोर”(He is no more)” तब उन्होंने बड़ी मुश्किल से खुद को संभाला था लेकिन उनकी पत्नी बेटे का गम बर्दाश्त नहीं कर पाई और महीने भर के अंदर वो भी अविनाश को तन्हा कर गईं।पत्नी की तस्वीर के आगे रोते हुए सोचते कि आखिर मुझसे ऐसी कौन-सी गलती हो गई जो भगवान ने मुझे इतनी बड़ी सज़ा दी है।

       नौकरी से सेवानिवृत्त होकर अविनाश वापस अपने शहर आ गये और एकांत जीवन जीने लगे।आध्यात्मिक चिंतन में लीन रहते और ज़रूरतमंदों की मदद करते।उसी संदर्भ में वे पुलिया के नीचे गये थें।तब उन्हें किसी ने बताया कि एक दिन चार-पाँच लोगों ने एक बड़े साहेब का हस्ताक्षर किया गया हुआ कागज़ दिखाया और हमारी छतों पर बुलडोज़र चला दिया।कुछ ने भागकर यहाँ पर शरण ली और कुछ वहीं पर दब गये…।” कहते हुए आँखें भर आई थी उसकी।फिर बोला कि घर बनवाने का झांसा देकर हमें बेघर कर दिया साहेब।राजू तब चार बरस का था, बेचारा अनाथ हो गया।समझ आने पर जब भी किसी साहेब को देखता है तो ऐसे ही बड़-बड़ करने लगता है।हम लोग तो साहेब ऐसे ही कीड़े- मकोड़े की तरह….।

   ” नहीं……।” एकाएक अविनाश चीख पड़े।

” क्या हुआ साहब…।” बहादुर ने घबराते हुए पूछा और गाड़ी साइड कर दी।

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“सिया” – रीता खरे

       अविनाश फूट-फूटकर रोने लगे।उनके एक गलत हस्ताक्षर कर देने से कितने लोग बेघर हो गये,अपनों से बिछड़ गये।उनकी आत्मा चित्कार उठी,” काश!…मैं हस्ताक्षर नहीं करता…काश! मैं जाकर देखता कि घर बना है नहीं? मैंने क्यूँ उन्हें अनदेखा कर दिया..।” आत्मग्लानि के बोझ तले वे दबते जा रहें थें, एकाएक उन्होंने अपने आँसू पोंछे और निश्चय किया कि वे उन सभी को न्याय दिलवाएँगे।

        घर पहुँचकर उन्होंने अपने वकील मित्र से सलाह लेकर प्रशांत पर धोखा और ज़ालसाजी का केस दायर कर दिया।यह सब करना इतना आसान तो नहीं था लेकिन यदि इरादे मजबूत हो और कुछ करने का हौंसला हो तो कुछ भी असंभव नहीं है।उनकी इस लड़ाई में रुकावटें तो बहुत आईं लेकिन ईश्वर की कृपा से वे सभी बाधाएँ एक-एक करके दूर होती गई।तीन वर्ष की लंबी कानूनी लड़ाई के बाद अंततः उन्हें सफलता मिली।कोर्ट के आर्डर से प्रशांत ने उन सभी विस्थापित परिवारों के लिए घर बनवाये। 

      सभी को अपने-अपने घरों में बैठे हँसते-मुस्कुराते  देखकर अविनाश बहुत खुश थें लेकिन उनकी वजह से उन लोगों को जो दुख और पीड़ा सहनी पड़ी, अपनों से बिछड़ना पड़ा, उसकी ग्लानि तो उन्हें ताउम्र रही।

                                       विभा गुप्ता

# आत्मग्लानि                   स्वरचित 

              यूँ तो हम सभी यही प्रयास करते हैं कि हमसे किसी का दिल न दुखे।लेकिन कभी-कभी अनजाने में हमसे भूल हो जाती है जिसकी आत्मग्लानि हमें उम्रभर रहती है।

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