तपस्या – विभा गुप्ता

#बड़ी_बहन 

        मंच पर उद्घोषक महोदय ने जैसे ही संजीव का नाम पुकारा, पूरा हाॅल तालियों की गड़गड़ाहट से गूँज उठा।सिविल सेवा की परीक्षा में द्वितीय स्थान प्राप्त कर संजीव ने अपने परिवार का ही नहीं, ज़िले का भी नाम रोशन किया था।इसी खुशी में शहर के एक प्रतिष्ठित सभागार में उसे सम्मानित किया जा रहा था।

              दर्शक-दीर्घा के प्रथम पंक्ति में बैठी सुनयना मंच पर खड़े अपने भाई को वात्सल्य-भाव से निहार रही थी।सोचने लगी, वक्त कैसे बीत गया, पता ही नहीं चला।लगता है,जैसे कल की ही बात हो जब छोटा- सा संजीव उसकी उँगली थाम कर चलता था।माँ की डाँट से बचने के लिए उसके दुपट्टे से वह जब खुद को ढ़क लेता था तो अपने भाई के प्यार पर वह निहाल हो जाती थी।

              पिताजी जब नई माँ को ब्याह कर घर लाये तो रिश्तेदारों ने कितनी थू-थू की थी कि जवान बेटी के रहते खुद दूल्हा बन बैठे।कहते थें, देख लेना विश्वनाथ,ये नई तेरी बेटी को चार दिन में ही बाहर कर देगी।फिर संजीव का जन्म हुआ,नई माँ ने मानों उसे एक खिलौना दे दिया था।उसके साथ खेलने के लिए उसने न जाने कितनी ही बार स्कूल गोल किया था।

             संजीव के तीन वर्ष पूरा होते ही पिताजी ने पास के ही स्कूल में उसका एडमिशन करा दिया था।स्कूल से वापस आकर फिर वे दोनों खेलने में इतने व्यस्त हो जाते कि कभी-कभी तो उन्हें खाने की भी सुध नहीं रहती थी।नई माँ उसे बहुत प्यार करती थीं, सभी बहुत खुश थें लेकिन जल्दी ही उनकी खुशियों को किसी की नज़र लग गई।


             वह बी ए फाइनल ईयर की परीक्षा की तैयारी कर रही थी, संजीव भी तीसरी कक्षा में पढ़ रहा था।एक शाम पिताजी को काम से लौटते हुए एक ट्रक ने टक्कर मार दी।हाॅस्पीटल पहुँचने से पहले ही उन्होंने दम तोड़ दिया।नई माँ इस सदमे को बर्दाश्त नहीं कर सकीं और एक दिन संजीव का हाथ उसके हाथ में देकर वे भी उससे हाथ छुड़ाकर हमेशा के लिए चली गईं।नाते-रिश्तेदार तो जैसे इसी फ़िराक में बैठे थें, कहने लगे, सौतेला भाई कब अपना होता है,अनाथालय में देकर फ़्री हो जाओ और विवाह करके अपना घर बसा लो।तब उसने संजीव का हाथ जोर से पकड़कर कहा था, ” मैं इसकी बड़ी बहन हूँ, बड़ी बहन माँ समान होती है और माँ बच्चे को अपने से अलग कभी नहीं करती।” 

             उसने पढ़ाई छोड़कर उसी काॅलेज में लाइब्रेरीयन का पदभार संभाल लिया और संजीव के भविष्य को संवारना अपना लक्ष्य बना लिया।संजीव ने भी अपनी दीदी के मेहनत और त्याग का मान रखा।दसवीं की परीक्षा में उसने पूरे स्कूल में प्रथम स्थान प्राप्त किया था।वह IAS बनकर लोगों की सेवा करना चाहता था, इसलिये बारहवीं कक्षा में आर्ट्स के विषयों का चयन किया और काॅलेज की पढ़ाई के साथ-साथ सिविल सेवा की परीक्षा की तैयारी भी करने लगा।संजीव जब रात-रात भर जाग कर पढ़ाई करता तो दिनभर की थकान के बावज़ूद वह संजीव के साथ जागती, काॅफ़ी बनाकर पिलाती जिससे उसे नींद न आये और थकान दूर हो।

            सिविल सेवा की परीक्षा से ठीक एक दिन पहले न जाने कैसे उसका पैर सीढ़ियों पर से फिसल गया, उसने सोचा, हल्की-सी मोच होगी, एक-दो दिन में ठीक हो जाएगी लेकिन डाॅक्टर ने उसके पैर पर प्लास्टर चढ़ाकर उसे एक महीने के लिए बिस्तर पर बैठा दिया।

         अगले दिन परीक्षा थी,उसने संजीव से बहुत कहा कि मैं ठीक हूँ , तू मेरे लिये अपने सालों की मेहनत पर पानी न फेर , जा, परीक्षा दे आ।लेकिन संजीव नहीं माना, बोला, ” दीदी , ये परीक्षा न सही, कोई और सही पर तुम्हें इस हाल में छोड़कर मैं कहीं नहीं जाऊँगा।” उस वक्त उसने खुद को कितना कोसा था।


               एक महीने बाद प्लास्टर कटा।जब वह फिर से काम पर जाने लगी तो संजीव भी अगले साल की परीक्षा की तैयारी में फिर से जुट गया।संजीव की मेहनत रंग लाई।सिविल सर्विसेज ज्वाइन करने का उसका सपना पूरा हुआ और उसकी तपस्या भी…..।”  ” अरे, ये तो अपना संजीव है।” पीछे से एक आवाज़ आई जिसे सुनकर वह वर्तमान में लौटी।तभी पीछे से किसी ने कहा, ” इसकी दीदी हमेशा इसके साथ खड़ी थीं।उन्होंने साबित कर दिया कि बड़ी बहन माँ से कम नहीं होती है।”

                                    लेखिका

                               विभा गुप्ता, बैंगलूरू

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