तपस्या का फल – बालेश्वर गुप्ता  : Moral stories in hindi

Moral stories in hindi: प्रतिदिन ही प्रातः 6 बजे मैं सुबह की सैर के लिये निकलता और सीधे पहुँच जाता,जैन बुक डिपो पर।असल मे जैन साहब पुस्तको की दुकान चलाने के  अतिरिक्त तमाम समाचार पत्र भी वितरित कराते थे। उन्होंने कई समाचार पत्रों की एजेंसिज ली हुई थी।मैने घर के लिये दैनिक जागरण अख़बार बांध रखा था,जो हॉकर अपने समय पर घर पहुचा देता था,सुबह सुबह यहां आने का मकसद एक अन्य अखबार पढ़ना होता था।सो रोज आना एक की कीमत में दो दो अखबार पढ़ने को मिल जाते थे।चूंकि मैं एडवोकेट था इसलिये जैन साहब और अन्य मेरा विशेष सम्मान भी करते थे।

      एक दिन मैंने सुबह जैन साहब को एक व्यक्ति पर बिगड़ते देखा, उस व्यक्ति का मुँह दूसरी ओर था,इसलिये तुरंत मैं पहचान भी नही सकता था।जैन साहब गुस्से में उसे चेतावनी दे रहे थे कि इन अखबारों को हाथ भी मत लगाना, पहला हिसाब क्लियर करो तब आना।वह व्यक्ति गिड़गिड़ाता सा और शर्मसार होते हुए कह रहा था,सेठ जी आपके पैसे आ जायेंगे, चिंता मत करो, इस बार की देरी को माफ कर दो।जैन साहब पसीज ही नही रहे थे।उस व्यक्ति के बोलते ही मैं उसे पहचान गया वो तो मेरे ही पड़ोस में रहने वाले राजेन्द्र जी थे।

       राजेन्द्र जी एक किराना की दुकान पर मुनीम थे,इतना मैं जानता था,उनका एक बेटा इंजीनियरिंग में सेलेक्शन के बाद वजीफा ले पढ़ रहा था और दूसरा छोटा बेटा इंटर में था।माली हालत अच्छी नही थी सो तरस खा राजेन्द्र जी की पत्नी की बड़ी बहन ने उन्हें अपना सर्वेंट क्वाटर रहने को दे रखा था।मैं ये नही समझ पा रहा था कि राजेन्द्र जी अखबारों को लेने को इतनी जिल्लत क्यूँ झेल रहे थे?बाद में पता चला कि राजेन्द्र जी जैन साहब से पुराने अखबार ले जाते थे और घर मे पत्नी के साथ जब भी समय मिलता लिफाफे बना कर उन्हें बेच कर कुछ अतिरिक्त आय कर लेते।ऐसी दयनीय स्थिति होते हुए भी अपने को पूरी तरह झौंकते हुए अपने बच्चों की पढ़ाई पूरी कराने की उनकी यह जद्दोजहद कहो या फिर कहो तपस्या,लेकिन राजेन्द्र जी अपने कर्म में लगे थे।मैंने राजेन्द्र जी के बिना अखबार लिये जाने के बाद जैन साहब से कहा कि जैन साहब राजेन्द्र जी जितने भी उधार के अखबार ले,उन्हें मना मत करना,ना ही उनसे इस प्रकार का व्यवहार करना,उनके द्वारा लिये उधार की जिम्मेदारी मेरी।आप चाहे तो एडवांस में मुझसे ले सकते हैं,लेकिन राजेन्द्र जी को पता नही चलना चाहिये।मेरा इतना कहने पर जैन साहब खिसिया गये  और आगे राजेन्द्र जी से दुर्व्यवहार न करने का वायदा भी किया।

         राजेन्द्र जी के छोटे बेटे ने इंटर पास करते ही एक दवाइयों की कंपनी में पार्ट टाइम काम करना प्रारंभ कर दिया।इस बीच ही राजेन्द्र जी की पत्नी की बहन का वह सर्वेंट क्वाटर जिसमे राजेन्द्र जी रह रहे थे ,बरसात में उसके बरामदे की छत गिर गई,वो तो शुक्र रहा वह कमरा बच गया जिसमें राजेन्द्र जी अपनी पत्नी एवम छोटे बेटे के साथ सो रहे थे।लेकिन वह कमरा भी कभी भी गिर सकता था।समस्या थी कि अब रहेंगे कहाँ?

        मुझे जानकारी मिली तो मेरा एक छोटा सा फ्लैट खाली था,मैंने इस फ्लैट में रहने का आफर राजेन्द्र जी को दिया।उनकी कैपेसिटी के अनुसार न्यूनतम किराया बता दिया जिससे उन्हें वहां रहने में संकोच ना हो।दरअसल मेरी उनसे सहानुभूति थी।मैं देख भी रहा था और महसूस भी कर रहा था कि यह व्यक्ति अपने दुःख को ही उसकी दवा समझ कर जी रहा था।

       किसी प्रकार बड़े बेटे ने  इंजीनियरिंग पास कर ली।तीन माह बाद में उसकी जॉब भी लग गयी।बेटा सुयोग्य निकला, घर पर ध्यान देने की मंशा उसने पहले ही जाहिर कर दी थी।भाई को उच्च शिक्षा हेतु पहले ग्रेजुएट करने की हिदायत दे दी। एक वर्ष बीता ही था कुछ सुख की अनुभूति होनी प्रारम्भ ही हुई थी कि शिव रात्रि पर्व पर राजेन्द्रजी का छोटा बेटा अपनी माँ को स्कूटर पर बिठा मंदिर ले गया रास्ते मे सड़क निर्माण हेतु पत्थर पड़े थे,उन पर स्कूटर फिसल गया।राजेन्द्र जी की पत्नी स्कूटर से गिर गयी,सिर एक पत्थर से टकराया और निःशब्द वो आने वाले सुख को छोड़ इस दुनिया से कूच कर गयी।

    राजेन्द्र जी तो पगला से गये।मैं भी सांत्वना देने गया तो फफक कर बोले जरूर मैंने कोई न कोई पाप किये होंगे,तभी तो उसे भगवान ने मुझसे छीन लिया।पत्नी के इस प्रकार असामायिक रूप से चले जाने के बाद राजेन्द्र जी एकदम चुपचाप रहने लगे,उनके चेहरे से ही लगता कि वो एक असहनीय बोझ लिये जी रहे हैं।

       बड़े बेटे का जॉब अमेरिका में लग गया,छोटे बेटे को उसके बड़े भाई ने उच्च शिक्षा दिला एक फार्मा कंपनी खुलवा दी,उससे पूर्व  बड़े बेटे ने अपने पिता राजेन्द्र जी और छोटे भाई वास्ते एक घर का निर्माण करा दिया था,उसमे वो शिफ्ट भी हो गये थे।संपन्नता अब साफ दिखाई देने लगी थी।मुझे भी संतोष हुआ कि राजेन्द्र जी का संघर्ष,उनकी तपस्या का फल उन्हें मिल गया है।जबसे राजेन्द्र जी अपने नये घर मे शिफ्ट हुए ,उनसे कम ही मिलना होता गया।पिछले दिनों पता चला कि वह बड़े बेटे के पास अमेरिका गये हैं, छः माह बाद वापस आयेंगे।

        अमेरिका छः माह रहने के बाद राजेन्द्र जी अपने घर वापस आ गये थे।एक दिन मैं उनके घर के पास से गुजर रहा था तो मेरी इच्छा राजेन्द्र जी से मिलने की हुई,वे घर पर ही थे।शून्य में निहारते,खोये खोये राजेन्द्र जी मेरे सामने बैठे थे।अपनी भरपूर कठिनाइयों के दिनों में भी खिले रहने वाले राजेन्द्र जी को क्या हो गया जो वे ऐसे गुमसुम बैठे हैं, जबकि अब उन्हें किसी भी चीज की कमी नही रही थी।

         मुझसे रुका नही गया,उन्हें लगभग झिंझोड़ कर मैंने कहा राजेन्द्र बाबू आपको क्या हो गया है?अब जब सब दुःख समाप्त हो गये है,सुख के दिन आ गये है तब आपने अपनी ये कैसी हालत बना रखी है, आपके मन मे आखिर चल क्या रहा है?

        जैसे गहरी नींद से जागे राजेन्द्र बाबू,मुझे भरपूर निगाहों से देखा,फिर ऐसे बोले मानो किसी गहरे कुँए से बोल रहे हो,हाँ, ये बात तो है, अब तो चारो ओर सुख ही सुख है,दोनो बेटे हाथों पर रखते है,पर ये तो बताओ मेरे दुःख में सदैव साथ देने वाली इस सुख में कहाँ है?

      अपनी पत्नी को याद कर कितनी बड़ी बात कह गये थे,राजेन्द्र जी।मेरे पास कोई उत्तर नही था।मैंने उन्हें कोई ढ़ाढस भी नही बधाया, मैं नही चाहता था,उनके मन मे अपनी पत्नी की याद में बने ताजमहल पर कोई चोट पहुंचे।

     बालेश्वर गुप्ता, नोयडा

मौलिक,अप्रकाशित।

 

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