टका सा मुँह लेकर रह जाना – डॉ ऋतु अग्रवाल : Moral Stories in Hindi

    “क्या मम्मी! भाभी की दो साड़ियाँ ही तो ली हैं मैंने। भाभी को तो शादी में ससुराल और मायके दोनों ही तरफ़ से इतनी साड़ियाँ मिली है। अगर मैं दो-तीन साड़ियाँ ले भी लूँगी तो क्या ही फ़र्क पड़ जाएगा। आखिर यह मेरा मायका है, मेरा हक़ है।” तृषा ने तुनक कर कहा जो कि अपनी नवविवाहिता भाभी के मायके से आई उसकी सबसे महँगी साड़ियों में से दो साड़ियाँ लेना चाह रही थी।

         ” हाँ, तो हमने कब मना किया कि यह तेरा मायका नहीं है। बेटा! हमने तुझे भी तो तेरी शादी में महँगी-महँगी साड़ियाँ दी थीं और अब भाई की शादी में भी दे रहे हैं पर यह साड़ियाँ बहू के मायके से आई हैं, इन पर तेरा कोई हक़ नहीं है।” तृषा की माँ दीप्ति ने कहा।

       ” माँ! तुम्हें मुझसे ज्यादा दो दिन की आई बहू प्यारी हो गई।” तृषा की ज़िद बढ़ रही थी।

          “बेटा! जितना मुझे तू प्यारी है उतना ही अपनी बहू भी प्यारी है। तुम दोनों मेरे लिए एक बराबर हो।” दीप्ति ने तृषा को समझाने की कोशिश की।

         “तो फिर ठीक है! अगर हम दोनों बराबर हैं तो इस पैतृक संपत्ति पर मेरा भी बराबर का हक़ है। देखिएगा! मैं भी इस प्रॉपर्टी में से अपना हिस्सा ज़रूर लूँगी।” तृषा बद्तमीज़ी पर उतर आई।

       “तो फिर ठीक है! तुझे प्रॉपर्टी में हिस्सा ज़रूर मिलेगा पर फिर साल में छह महीने हम तेरे साथ रहेंगे और हमारे व्यक्तिगत ख़र्चे के साथ-साथ पारिवारिक लेन-देन में तू भी आधा हिस्सा देगी।” दीप्ति ने कहा तो तृषा का चेहरा उतर गया और वह टका-सा मुँह लेकर भाभी के मायके से अपने लिए आई साड़ी लेकर चुपचाप अपने कमरे में चली गई।

स्वरचित 

डॉ ऋतु अग्रवाल 

मेरठ, उत्तर प्रदेश

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